बावरिया दिल
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता राजेश शुक्ला ‘छंदक’1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
नयन बाण एक दिल में चुभा,
कब गिनती बढ़ गयी ना जाना।
फिर फँसा मैं सप्तपदी की भँवर,
पर ये बावरिया दिल ना माना॥
चन्द्रमुखी के केशों में उलझ,
हर पल राह उसी की देखता था।
जब दर्द सहन को पार करे,
व्हिस्की से दिल को सेंकता था॥
एक दिन बीवी ने बच्चों के संग,
अपने मायके को प्रस्थान किया।
शायद इसी बहाने यदुनंदन ने,
प्रेयसी संग रहने को स्थान दिया॥
वह तीक्ष्ण नयन सुंदरता संग,
एक मोम की गुड़िया लगती थी।
अपने केशों में घनराज समाये,
वह मदहोशी की पुड़िया लगती थी॥
फिर मायापति की माया ने,
भारत में लॉकडाउन लगा दिया।
अब मैं निरीह बेचारा प्राणी,
केवल व्हिस्की का साथी बना दिया॥
कभी ब्लेंडर प्राइड, कभी सिग्नेचर,
कभी एम्पीरियल ब्लू सजती थी।
कभी रायल स्टैग, कभी रेड लेबल,
कभी ग्रीन लेबल जाम में बजती थी॥
अपने ही घर में तोते की तरह क़ैद,
हाथ में मोबाइल लिए टहलता था।
उससे मिलना बहुत ही मुश्किल है,
पर बावरिया मन ना ठहरता था॥
फिर इस बेचैनी में एक शाम,
बालकनी में कुर्सी पर बैठा था।
पास में मेकडावल का बना जाम,
मैं अपने ही ऊपर कुछ ऐंठा था॥
ठहरी नज़र जाम पर जिस क्षण,
मन निज गति से सामान्य हुआ।
जब दो पैग कंठ से नीचे उतरे,
अब कुछ दिमाग़ असमान्य हुआ॥
फिर बीकानेरी भुजिया को लेकर,
तीसरा पैग कंठ के पार किया।
अपनी सारी चिंता तकलीफ़ों को,
अब लगता था मैंने मार दिया॥
अब ब्रह्माण्ड नशे में सराबोर,
भाई मैं बड़ा पियक्कड़ था।
फिर दो पैग धड़ाधड़ कंठ चढ़ा,
मैं पीने में बहुत ही फक्कड़ था॥
व्हिस्की का नर्तन आरंभ हुआ,
सब बिन सोचे ही लिखता था।
जो होना वहाँ असम्भव था,
अब वह सम्मुख दिखता था॥
टकटकी लगाकर फिर देखा,
निज आँखें बहुत ही फैलायी।
रिमझिम होती इस बारिश में,
वह पेड़ के नीचे मिलने आयी॥
धवल पोशाक में वह बिल्कुल,
परियों की राजकुमारी लगती थी।
विधि की अजब अनूठी रचना,
सारी दुनिया से प्यारी लगती थी॥
वर्षा से भीगे अब वस्त्र चिपक,
तन के उतार-चढ़ाव दर्शाते थे।
मुझ रसिक भँवर को अनायास,
गिरि से सागर की यात्रा कराते थे॥
जल से तर-बतर ओंठ अब तो,
भीगी तोयज पंखुड़ियाँ लगते थे।
बालों से छूटे बूँद ढुलक कर,
मोतियों के जैसे सब लगते थे॥
उसके कपोल ज्यों कुन्द पुष्प,
बूँदों की मार को सहते थे।
दिल मेरा बहुत कचोटता था,
जब वे उसके तन से खेलते थे॥
अब ग्लानि भरा ये मन मेरा,
जिसको पश्चाताप ने घेरा था।
वह मिलने आयी इस वर्षा में,
उसको लाना फ़र्ज़ ये मेरा था॥
अब फोन करूँ, माफ़ी माँगूँ,
कैसे भी माने उसे मनाना है।
वह प्रेयसी से चंडी बन जाये,
इससे पहले उसे पटाना है॥
मैं मोबाइल ढूँढ़ता इधर-उधर,
वह कहीं नज़र ना आता था।
आँखों पर पानी के छींटे मारूँ,
उनको बार-बार फैलाता था॥
मैं मोबाइल खोज में फँसा ही था,
कि टिरिंग-टिरिंग कानों तक आई।
अब मोबाइल उसनेे कर ही दिया,
लगता है चंडी बन घर तक आई॥
मैं बड़ी मुश्किल से खड़ा हुआ,
पर पैरों का संतुलन ग़ायब था।
मैं उस मोबाइल पर ही था बैठा,
पीने के बाद मैं पूरा नायब था॥
मैंने हेलो-हलो कर डरते-डरते,
कर्णद्वार पर उसे लगाया था।
तबीयत कुछ गड़बड़ हुई आज,
इसलिए लेने तुम्हें ना आया था॥
मैं चटपटी चाट चितरंजन की,
अपने साथ में लाने वाला था।
इस रंगीन हो रही बारिश में,
तुमको ले मस्ती करने वाला था॥
इतना सुनते ही प्रतिउत्तर में,
परिचित ध्वनि जो भारी थी।
किसके संग मस्ती की सोची,
भैया नर पर भारी नारी थी॥
भैया पत्नी की ध्वनि को सुनते,
सिर से नशा तुरंत ही हिरन हुआ।
अब सूखा रक्त समूचे तन का,
जैसे ४४० बोल्ट ने मुझको छुआ॥
फिर घिग्घी बँध गई यारों अब,
मेरी ध्वनि बाहर नहीं निकलती थी।
प्रश्नों की झड़ी लगी थी कानों में,
उत्तर देने में जीभ फिसलती थी॥
जैसे-तैसे फिर अपने शब्दों को,
कुछ जलेबी की तरह घुमाया था।
फिर उसके प्रश्नों में ही उलझाकर,
भैया अपनी बीवी को मनाया था॥
फिर आँखें फैलाकर सम्मुख देखा,
वह पेड़ के नीचे से कहीं विलुप्त हुई।
जैसे नशे में लिखी गई कोई कविता,
फिर सामान्य अवस्था में लुप्त हुई॥
फिर मोबाइल पटककर कुर्सी पर,
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया था।
दूसरी वाली ने था काल किया,
मेरा मोबाइल ज़ोरों से चिल्लाया था॥
मोबाइल पर उसका नाम देख,
कैंसिल पर अँगूठा सरकाया था।
फिर धड़-धड़ मारे दो-तीन पैग,
अपने को कुर्सी पर लुढ़काया था॥
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अभिराम पाण्डेय 2022/10/01 11:21 AM
सराहनीय पत्रिका, सुंदर सृजन