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पिता या बरगद

बरगद बूढ़ा जब हो जाये, 
पर छाया हमको देता है। 
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
विधि ने हमको इस जग में, 
बरगद जैसा पिता दिया। 
जिसने अपना सारा जीवन, 
बच्चों के हित बिता दिया। 
 
याद करो जब बचपन में, 
हम देख खिलौना मचले थे। 
झपट के उन हाथों ने थामा, 
जब फिसलन में फिसले थे। 
 
फिर अपने कंधे पर बैठाकर, 
मेला में हमें घुमाया था। 
कठपुतली नृत्य और जादूगरी, 
बंदर का नाच दिखाया था। 
 
जब देख मिठाई बच्चा रोये, 
वह डिब्बा भरके लेता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
बच्चों के बचपन में अनायास, 
यदि भार्या गोलोक चली जाये। 
बच्चों और व्यथित गृहस्थी की, 
बीच भँवर में फँस जाये। 
 
घर में करके सारे काम-काज, 
बच्चों को स्कूल भेजता है। 
जब एकान्त मिले कार्यालय में, 
अपने को चौराहे पर देखता है। 
 
बच्चों के आँसू पोंछ-पोंछ, 
ज़िन्दा तिल-तिल कर मरता है। 
बच्चों की ममता ना हो विभक्त, 
इसलिए विवाह ना करता है। 
 
बच्चे जब रात्रि में सिसकी लें, 
अपनी बाँहों में भर लेता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
बच्चों का लालन-पालन कर, 
अर्द्धनारीश्वर वचन निभाता है। 
अपनी इच्छाओं की समिधा रच, 
वह हवन कुण्ड बन जाता है। 
 
आयु बच्चों की ज्यों-ज्यों बढ़ती, 
वह मन में हर्षित होता रहता है। 
बच्चों की इच्छायें पूरी कर-करके, 
वह तन-मन-धन खोता रहता है। 
 
बच्चों की ख़ुशियों में ख़ुश रहना, 
अब उसकी नियति बन जाती है। 
बच्चे ज्यों-ज्यों उन्नति करते हैं, 
उसके तन में चमक आ जाती है। 
 
उनकी आवश्यकतायें पूरी करने में, 
अपनी जेबें ख़ाली कर देता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
बच्चों के बच्चे जब हो जाते हैं, 
वह मूलधन का ब्याज समझता है। 
अपने मुँह का वह कौर खिला, 
निज तन से अधिक समझता है। 
 
बच्चों को मिलता है नहीं समय, 
पिता से थोड़ा बतलाने का। 
सेमिनारों में घंटों व्याख्यान हैं देते, 
उलझे रिश्तों को सुलझाने का। 
 
बेटों से अधिक बीवियाँ उनकी, 
चौकीदार की तरह मानती हैं। 
ससुर केयर टेकर बन जाते हैं, 
वह निज को महारानी मानती हैं। 
 
अब दिल में घावों को समेट, 
अनुभवों की ऊर्जा देता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
पिता ने अपने जीवन भर की पूँजी, 
इन बच्चों को ही माना था। 
अगली पीढ़ी के इस परिवर्तन को, 
सपने में भी ना जाना था। 
 
जिन बच्चों और इस घर के हित, 
अपना सारा जीवन हवन किया। 
उन बच्चों ने निज पर फैलाकर, 
इस बूढ़ी शाखा से गमन किया। 
 
जिन बच्चों की नींद के ख़ातिर, 
अपनी नींदों को मार दिया। 
बच्चों के तलवों में ना छाले हो,  
कंधों पर सारा भार लिया। 
 
अब भी बनकर वह नीलकंठ, 
जीवन विष पी लेता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥
 
उचित हुआ जो बच्चों की माँ, 
इनके बचपन में चली गयी। 
वह मरती सौ बार दिवस भर में, 
ये दिन देखे बिन चली गयी। 
 
वह बेटे-बहू का यह ताण्डव, 
कभी सहन ना कर पाती। 
अपने सुहाग की दुर्दशा देख, 
वह ब्रेन हैमरेज से मर जाती। 
 
पिता जब तन से लाचार हुआ, 
आँखों से न दिखाई देता है। 
छड़ी के सहारे चल-चलकर, 
पीने का पानी स्वयं ही लेता है। 
 
अब बेटा मोबाइल करके, 
पिता को वृद्धाश्रम देता है॥
सोचो क्या वह बदले में, 
कभी भी, कुछ भी लेता है॥

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