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बड़े लोग

 

स्कूल से निकल कर अमिता तेज़ क़दमों से पैदल ही घर की जा रही थी। आज स्कूल में एक महत्त्वपूर्ण मीटिंग थी इस लिए पूरे स्टाफ़ को छुट्टी के बाद भी रुकना पड़ा। मीटिंग समाप्त होते ही कुछ लोग अपनी स्कूटी पर, कुछ अपनी कारों में जाने लगे। जिन लोगों की बस निकल गईं थीं वह दूसरें लोगों से लिफ़्ट माँग कर चले गए। केवल अमिता ही अकेली खड़ी रह गई। संकोचवश उससे किसी से लिफ़्ट माँगते भी न बन पड़ा। देखते-देखते स्कूल ख़ाली हो गया। पर्स खोल कर देखा इतनी दूर जाने के लिए उसमें पर्याप्त रुपए भी नहीं थे जो ऑटो या टैक्सी कर लेती। अंत में वो पैदल ही घर की ओर निकल पड़ी। सड़क पर बेतहाशा भीड़ से स्वयं को बचाती चली जा रही थी कि अचानक उसकी नज़र धीमी गति से बिल्कुल पास से गुज़री एक सफ़ेद कार पर पड़ी। अंदर से कुछ जानी पहचानी आवाज़ भी सुनाई दी। कोई फोन पर बात करते हुए गाड़ी चला रहा था। जब उसने कार के नम्बर पर नज़र डाली तो पता चला, अरे यह तो शैला दीदी की गाड़ी है। वो सोचने लगी कि गाड़ी तो बहुत धीमी थी और उसके बिल्कुल क़रीब से गुज़री परन्तु क्या उस पर चालक की नज़र नहीं पड़ी होगी? या जान कर अनजान बनने का प्रयास किया? यह सोच कर उसका मन उदास सा हो गया। 

घर पहुँची तो उसके पति रोहित अभी घर नहीं लौटे थे। उसने जल्दी से कपड़े बदले और चाय बनाने की तैयारी करने लगी। कुछ ही देर बाद ही उसे कॉल बैल सुनाई दी। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा शैला दीदी का बेटा रॉनित, मुस्कुराते हुए खड़ा था। अमिता की दोनों बड़ी बहनें भी इसी शहर में बड़े बड़े शानदार बँगलों में रहती थीं। अमिता बहुत प्यार से उसे घर के अन्दर ले गई और मुस्कुराते हुए बोली, “रॉनित, आज मौसी की याद कैसे आ गई?”

रॉनित बोला मौसी, “मुझे तो मम्मी ने भेजा है। अगले सोमवार को मेरा जन्मदिन भी है और मम्मी पापा की शादी की वर्षगाँठ भी है आपको उसके लिए निमंत्रण देने आया हूँ। आप और मौसा जी अवश्य आना।”

यह सुन अमिता के मन को ठेस लगी कि दीदी इसी शहर में ही रहती हैं। स्वयं भी आ सकती थीं या एक बार फोन भी कर सकती थीं। मन की वेदना मन में ही छिपाए वह। रॉनित को बैठने को कह जल्दी से चाय बनाने किचन में चली गई, सोचने लगी रॉनित उसके घर अकेले पहली बार आया है, ख़ातिरदारी तो बनती है। चाय के साथ केवल बिस्किट तो अच्छे नहीं लगेंगे साथ में ब्रेड पकौड़े भी बना लेती हूँ। महीने का आख़िरी सप्ताह था घर में तेल बेसन भी कम ही थे। उसने जल्दी से अपने सुघड़ हाथों से पकौड़े तलने शुरू कर दिए। पकौड़े तलने की ख़ुश्बू पा कर रॉनित किचन में ही आ गया और बोला, “मौसी आप यह सब क्या करने लग गईं हो? मुझे तो देर हो रही है, और मैं यह सब तला हुआ कुछ खाता भी नहीं हूँ। बस आप किचन से बाहर आ जाइये। अब मैं चलूँगा।”

यह सुन अमिता केवल चाय का कप लेकर किचन से बाहर आ गई। रॉनित को चाय देकर दीदी के हाल-चाल पूछने लगी। परन्तु रॉनित रुकने के मूड में ही नहीं था। वह बोला, “मौसी, दरअसल मम्मी ने आपके लिए कुछ भेजा था इस लिए मुझे आना पड़ा।” वह बाहर जा कर कार से एक बड़ा सा पैकेट निकाल कर ले आया और अमिता को देते हुए बोला, “यह मम्मी ने आपके लिए साड़ियाँ भिजवाई हैं, उन्होंने यह भी कहलवाया है कि कार्यक्रम के दिन इनमें से ही कोई साड़ी आप पहनें।” यह सुन कर अमिता अपमान से कट कर रह गई। उसने रॉनित को पैकेट वापस देते हुए कहा कि दीदी को कहना कि उसके पास बहुत सारी साड़ियाँ हैं। यह पैकेट तुम वापस ले जाओ। रॉनित पैकेट ले कर जाने लगा तो शिष्टतावश अमिता भी उसे छोड़ने उसके साथ बाहर तक चली गई। रॉनित कार में बैठते हुए बोला, “मौसी अभी कुछ देर पहले शास्त्री रोड पर आप ही आ रहीं थीं न? मैंने आपको देखा था, बहुत भीड़ होने के कारण मैंने गाड़ी नहीं रोकी।” यह सुन कर अमिता मन ही मन बहुत आहत-सी हो गई। चेहरे पर फीकी मुस्कान लाते हुए बोली, “कोई बात नहीं।”

रॉनित चला गया। कुछ ही देर उसके पति रोहित भी आ गए। हाथ मुँह धोकर चाय पीने बैठे तो चाय के साथ पकौड़े देख ख़ुश हो गए बोले, “वाह, आज तो मज़े आ गए!” बेचारी अमिता चुप्पी साधे रही। थोड़ी देर बाद उसने पति को शैला दीदी के घर से आए निमंत्रण के बारे में बताया और मिथ्या बहाना बनाते हुए बोली, “बड़ी दीदी व्यस्तता के कारण स्वयं न आ सकीं।” 

यह सुन कर रोहित बोले, “कोई बात नहीं घर में दो-दो कार्यक्रम हैं बहुत काम होगा। हम ज़रूर चलेंगे।” 

अमिता को रात भर बेचैनी के कारण नींद नहीं आ रही थी। रोहित थकावट के कारण गहरी नींद में सो गए थे। अमिता अतीत की गलियों में भटकने लगी। भटकते-भटकते वह बहुत दूर निकल आई। पुरानी यादों के रास्ते बहुत लंबे थे उनका कोई ओर छोर ही नहीं था। 

उनके पिता रतन लाल जी कपड़ों के थोक व्यापारी थे। उनका घर, धन धान्य से सम्पन्न था। जीवन आनंद से बीत रहा था। उनके पिता की गिनती शहर के माने हुए धनाढ्य और गणमान्य लोगों में हुआ करती थी। उनकी माँ सुशीला बहुत नम्र और मिलनसार महिला थीं। जब सुशीला पहली बार गर्भवती हुई तो रतल लाल जी की ख़ुशी का कोई अंत न था। उन दोनों को ख़ानदान का वारिस के जन्म लेने की उम्मीद थी। उस समय में लोग पुत्र को ही ख़ानदान का वारिस माना जाता था। समय आने पर सुशीला ने जुड़वाँ बेटियों को जन्म दिया। इस पर सब नाते-रिश्ते वाले कहने लगे कि उनके घर लक्ष्मी की और अधिक कृपा होने वाली है। बच्चियों के जन्म पर सारे रीति-रिवाज़ बड़ी धूमधाम से किए गए। कहीं पर कोई कसर नहीं छोड़ी गई। पूरा घर बच्चियों की किलकारियों से गूँजने लगा। बच्चियों का नाम शैला और गीता रखा गया। प्रसव के बाद सुशीला की तबीयत ख़राब रहने लगी। इलाज शुरू हो गया। बेटे की आस, रतन लाल जी के मन को बेचैन किए रखती। उन्हें अपनी अपार धन सम्पत्ति के वारिस के न होने की चिंता तड़पाती रहती। उधर सुशीला का स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता ही जा रहा था। घर में सुख सुविधा होते हुए भी दोनों पति पत्नी को पुत्र न होने का दुख सालता रहता। सुशीला को बीमारी से जूझते हुए आठ साल बीत चुके थे। अचानक, आठ साल बाद बीमारी की हालत में ही सुशीला एक बार फिर गर्भवती हो गईं। अब शारीरिक रूप वह बहुत कमज़ोर हो चुकी थी इस हालत में गर्भवती होना और वह भी इतने लंबे अंतराल के बाद ख़तरे से ख़ाली नहीं था। डॉक्टर ने स्पष्ट शब्दों में सुशीला और रतन लाल जी को चेतावनीद दे दी थी कि माँ या बच्चे किसी की भी जान को ख़तरा हो सकता है। बेटे की चाहत और ललक ने पति पत्नी दोनों का विवेकहीन बना दिया। डॉक्टर के मना करने के बावजूद भी सुशीला अपनी जान पर खेल गई। ख़ानदान को वारिस फिर भी नहीं मिला। इस बार सुशीला ने फिर बेटी को ही जन्म दिया। तीसरी बेटी ही अमिता थी। रतन लाल और सुशीला पुत्र न होने के ग़म में मन ही मन घुलने लगे। अमिता अपनी बहनों से आठ साल छोटी थी। बड़ी बहनें अमिता को बहुत प्यार और लाड़ करती थीं। बड़ी होने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई के साथ और सभी बातों का भी ध्यान रखती थीं। शैला और गीता दोनों ने स्कूल के बाद नामचीन कॉलेजों से पढ़ाई पूरी की। अमिता अभी स्कूल में ही थी। 

समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। दोनों बेटियों के ग्रेजुएट होते ही रतन लाल जी ने उनके विवाह के लिए वर खोजने आरंभ कर दिए। एक कहावत है, माया को माया मिले कर कर लम्बे हाथ उसी कहावत को चरितार्थ करते हुए उनकी दोनों बड़ी बेटियों के विवाह अमीर घरानों में हो गए। पत्नी सुशीला के समझाने के बावजूद भी रतन लाल ने बेटियों की शादियों में अपने वैभव और शान शौकत का खुल कर प्रदर्शन किया और शादियों में पैसा पानी की तरह बहाया। उनका कहना था कि बिरादरी को पता चलना चाहिए कि शहर के बड़े और अमीर आदमी की बेटियों का विवाह हो रहा है। अमिता अभी बहुत छोटी थी इस लिए उसके विवाह में अभी काफ़ी समय था। 

कुछ समय बाद ही अचानक उनके परिवार की सुख, धन और ऐश्वर्य को किसी की नज़र लग गई। एक मनहूस रात को रतन लाल जी को हार्टअटैक आया और वह बिना कुछ कहे-सुने इस दुनिया से चले गए। उनकी पत्नी सुशीला और तीनों बेटियाँ गहरे सदमे में डूब गए। सुशीला एक कम पढ़ी लिखी, सीधी-साधी महिला थीं। उसे अपने पति के व्यवसाय के हिसाब-किताब, लेन-देन के विषय की कोई जानकारी नहीं थी। इस बात फ़ायदा उनके सगे सम्बन्धियों और अन्य व्यापारियों ने उठाया। जो उनके देनदार थे उन्होंने पैसा लौटाया नहीं और कुछ धूर्त लोगों ने फ़र्ज़ी काग़ज़ात बनवा कर लाखों रुपये का उधार रतन लाल के नाम दिखा कर रुपयों का तक़ाज़ा करना शुरू कर दिया। जो लोग रतन लाल के बेहद क़रीब माने जाते थे वो भी इस षडयंत्र में शामिल हो गए। उन्होंने स्वर्गवासी रतन लाल के परिवार से मुँह फेर लिया था। यहाँ तक बड़े और अमीर घरों में ब्याही उनकी बेटियाँ और जमाताओं की भी अब नज़रें बदल गईं। बैंक में रखी जमा पूँजी भी धीरे-धीरे घर ख़र्च में समाप्त होने लगी। अमिता अभी पढ़ रही थी। सुशीला बहुत सोच-समझ कर घर ख़र्च करती थीं परन्तु जमा पूँजी भी कब तक चलती? 

घर में आर्थिक तंगी देख कर दोनों बड़ी बेटियाँ अपनी माँ को बँगला बेच कर, एक छोटा मकान लेने की सलाह देने लगीं। 

बेचारी सुशीला मरती क्या न करती? उसने दिल पर पत्थर रख कर, पति का बड़े चाव से बनाया हुआ बँगला बेच दिया। बँगले को बेच कर जो पैसा मिला उसमें से भी ब्याहता बेटियाँ अपने पतियों के कहने में आकर अपना हिस्सा माँगने लगी। बेबस और लाचार सुशीला को बँगले को बेचने पर मिले पैसे में से बड़ी बेटियों को भी हिस्सा देना पड़ा। 

अब सुशीला और अमिता दोनों एक छोटे से मकान में शिफ़्ट हो गईं। सुशीला ने बँगला बेच तो दिया परन्तु अपने उस बँगले के बिकने का ग़म उसने अपने दिल पर लगा लिया। वह गहरे अवसाद में डूब गई। उसने अब बिस्तर पकड़ लिया। अमिता ने माँ की तबीयत बिगड़ते देख उन्हें अस्पताल में एडमिट करवा दिया। लम्बी बीमारी और अस्पताल के महँगे-महँगे ख़र्च के चलते वो दोनों धीरे-धीरे फिर से आर्थिक तंगी से जूझने लगीं। दोनों बड़ी बेटियाँ कभी-कभी लोक-लाज रखने के लिए अस्पताल में फल या ताक़त के टॉनिक लेकर आ जाती थीं। दिलासा देने के स्थान पर अपनी माँ को चार बातें और सुना कर जाती थीं। वो हमेशा अपने माता-पिता पर ख़र्चीले और दूरदर्शी न होने का ताना कसती थीं। सुशीला का दिल अपनी बेटियों के तानाकशी से टूट कर बुरी तरह छलनी हो जाता था परन्तु फिर भी ज़ुबान पर ताला डाले चुप्पी साधे बैठी रहती। अपनी बड़ी बहनों के रोब-दाब से सामने बेचारी अमिता की भी कुछ पेश नहीं चलती थी। वह उनसे सहमी सी रहती थी। 

अचानक एक दिन, अमिता को अस्पताल में माँ की बचपन की एक प्रगाढ़ सहेली ऊषा दिख गई। वह भी अपने बेटे के साथ अपने इलाज के लिए आई हुई थीं। किसी समय में दोनों सहेलियाँ एक दूसरे के बहुत नज़दीक थीं। विवाह के बाद भी उनके आपसी सम्बन्ध बने रहे। ऊषा का एक बेटा था। जो सुशीला की बड़ी बेटियों के साथ का था। परन्तु हालात कुछ ऐसे बन गए कि कुछ सालों से दोनों सहेलियाँ अपनी-अपनी परेशानियों में घिरी, एक दूसरे से मिल नहीं पाईं थी। ऊषा के पति तो बहुत पहले ही एक दुर्घटना का शिकार होकर इस दुनिया से विदा ले चुके थे। अपने इकलौते बेटे को इंजीनियरिंग करवाने के सपने देखते थे। उनका बेटा रोहित बहुत होनहार भी था। रोहित बहुत धैर्यशाली और दृढ़प्रतिज्ञ युवक था। उसने माँ और पिता का सपना पूरा करने के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी भी कर ली। पिता सरकारी स्कूल में टीचर थे उसकी माँ ऊषा को पिता की पेंशन का कुछ हिस्सा मिलता था। रोहित ने धीरे-धीरे पिता द्वारा मकान ख़रीदने के लिए लोन की किश्तें भी देनी शुरू कर दीं। इतने सालों बाद मिलने पर दोनों सहेलियों ने अपने दुख-दर्द एक दूसरे से साझा किए। अपनी अपनी आपबीती एक दूसरे को सुनाई। 

सुशीला रोहित के व्यक्तित्व की सादगी विनम्रता और उच्च चरित्र जैसी विशेषताएँ देखकर बहुत प्रभावित हुई। उसने ऊषा से अमिता के लिए रोहित का रिश्ता माँग लिया। यद्यपि रोहित और अमिता की उम्र में आठ साल का अंतर था। इस बात का सुशीला और ऊषा दोनों को पता था परन्तु सुशीला ने रोहित के गुणों पर नज़र रखते हुए उम्र की इस बाधा को अनदेखा कर दिया। सब कुछ साफ़ और स्पष्ट था इसलिए इस विवाह में ऊषा को भी किसी प्रकार का इंकार नहीं था। देखते- देखते दोनों सहेलियों की यह पुरानी दोस्ती रिश्तेदारी में बदल गई। बेहद सादगी से रोहित और अमिता का विवाह संपन्न हो गया। संघर्षों की आग में तप कर अमिता भी बहुत समझदार हो चुकी थी। रोहित जैसे गुणवान और समझदार पति को पा कर वह बहुत प्रसन्न थी। अमिता और रोहित दोनों ने मिल कर अपने भावी जीवन के लिए कुछ बातें तय कर लीं जैसे अब अमिता भी नौकरी करेगी, रोहित के प्रमोशम की परीक्षा होने के बाद ही वो दोनों अपने परिवार को आगे बढ़ाएँगे। अमिता बी.एड. तो कर ही चुकी थी। थोड़ा प्रयास करने पर अमिता को एक स्कूल में अध्यापन कार्य मिल गया। दोनों पति-पत्नी ही एक दूसरे की भावनाओं और ज़रूरतों का ख़्याल रखते थे। 

सुशीला, शायद अमिता के विवाह के लिए ही जीवित थी। अमिता के विवाह के बाद वह अवसाद और कमज़ोरी से लड़ते-लड़ते आख़िर इस दुनिया से विदा हो गई। अमिता ने उस मकान पर ताला लगा दिया अपनी दोनों बड़ी बहनों को उसकी एक-एक चाबी दे एक चाबी अपने पास रख ली। जब कभी माँ और पिता की याद आती तो कुछ समय वहाँ बिता आती। ससुराल में जाकर अमिता ने अपनी सेवा से पति और सास दोनों का दिल जीत लिया। रोहित के ऑफ़िस में प्रमोशन के लिए परीक्षाएँ होती रहती थीं। रोहित भी इन की तैयारी में जुटा था। जब कोरोना की महामारी फैली तब दुर्भाग्यवश रोहित की माँ का भी कोरोना ग्रस्त हो कर स्वर्गवास हो गया। रोहित शोक सागर में डूब गया। उसकी माँ उसे सीनियर मैनेजर बने न देख सकी। यही पीड़ा उसे बार बार तड़पाती परन्तु समय के सामने तो किसी की नहीं चलती। 

अचानक रोहित पानी पीने उठा उसने नाइट लैंप जलाया उस आहट ने अमिता को अतीत से खींच कर पुनः वर्तमान में लौटा दिया। अगले सप्ताह दीदी के घर होने वाले कार्यक्रम के लिए उसने तैयारी भी करनी है। उसने अपनी सारी साड़ियों में से दो सबसे सुंदर साड़ियाँ निकाल कर अलग कर ली। उससे मैचिंग ज्वेलरी भी साथ ही रख ली। रोहित का सूट भी ड्राइक्लीन करवाने भिजवा दिया। अब कोई विचार से वह असमंजस में पड़ गई। पति से सलाह की उपहार में क्या दिया जाए? रोहित ने सुझाया दीदी के लिए साड़ी और रॉनित और जीजा जी के लिए सूट कैसे रहेंगे? अमिता को रोहित का सुझाव और समझदारी पर बहुत नाज़ हुआ। दोनों ने अपनी अपनी जमा-पूँजी में से कुछ रुपए निकाले और बढ़िया सूट और साड़ी ख़रीद कर पैक करवा लिए। 

कार्यक्रम के दिन तय समय पर अमिता और रोहित कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। एक फ़ार्महाउस में कार्यक्रम का भव्य आयोजन किया गया था। सजावट भी शानदार थी। ऐसे लग रहा था। मानो किसी विवाह का आयोजन हो। इतनी भीड़ में उन्हें बड़ी कठिनाई से शैला दीदी और जीजा जी दिखाई दिए। रोहित और अमिता ने उन्हें बधाई देते हुए उपहार भी देने लगें तो दीदी बोली, “अरे, अभी हमारे पास उपहार लेने का समय कहाँ है? उधर एक कमरे में कुछ लोगों को इस काम के लिए बिठा दिया है वहीं जाकर उपहार दे दो।” रोहित ने बड़े अपनेपन से दीदी को पूछा कि हमारे योग्य कुछ काम हो तो अवश्य बताएँ। शैला दीदी व्यंग्य से हँसते हुए बोली, “तुम लोग, देख नहीं रहे हो क्या? इस सारे काम के लिए कार्यक्रम प्रबन्धन वालों को लाखों रुपए देकर सारी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।” यह कहते-कहते, एकाएक दीदी की नज़र अमिता की साड़ी और ज़ेवर पर पड़ी। वो आवेश में आ गई और बोली, “अमिता यह क्या? तुम फिर वही पुराने फ़ैशन की साड़ी पहन कर आ गई हो तुमने सारे ज़ेवर भी आर्टिफ़िशल पहन रखे हैं क्या तुम्हारे पास सोने या डायमंड के कोई भी ज़ेवर नहीं हैं जो किसी ख़ास मौक़े पर पहन सको? मैंने, तुम्हें उस दिन इतनी सुंदर नए फ़ैशन की साड़ियाँ भिजवाई भी थीं पर तुम्हारा अहम आड़े आ गया। अरे, तुमने अपनी नहीं मेरी इज़्ज़त का तो कुछ ख़्याल किया होता।” वह और कुछ सुनाने के मूड में थीं इससे पहले वह कुछ और सुनाती उन्हें किसी ने बुला लिया। वह बात अधूरी छोड़ कर ही चली गईं। रोहित और अमिता दोनों अपमानित से खड़े रह गए। अमिता को अपने से अधिक पति का अपमान होने का दुख हो रहा था। बेचारे कितने उत्साह से यहाँ आए थे। अमिता की आँखें रोहित के समक्ष झुकी जा रहीं थीं। वह रोहित को सुनाते हुए बोली, “दीदी भी कभी-कभी अजीब-सी बातें कर जाती हैं।” रोहित भी अपमान से क्षुब्ध थे, फिर भी अपने क्रोध को दबा कर बोले, “अब क्या करना है? रुकना है या अपने घर लौट चलना है?” अमिता सोच में पड़ गई; अब क्या करे? उसी समय अमिता ने देखा कि दीदी और जीजा जी अपने नज़दीकी रिश्तेदारों के परिचय मेहमानों से करवा रहे थे। उसने सोचा हम तीन ही तो सगी बहनें हैं, अमीर हों या ग़रीब, कुछ भी हैं, हम हैं तो दीदी के सगे बहन और बहनोई। मेहमानों का स्वागत करना उनका भी कर्त्तव्य बनता है। यह सोच कर वह दोनों दीदी के पास जाकर खड़े हो गए। दीदी अपने रिश्तेदारों का परिचय भी मेहमानों से दे रहीं थीं परन्तु दीदी उन दोनों की ओर से अनजानी सी बनी रहीं। उनका परिचय तो दूर उनकी ओर देखा तक नहीं। अमीरी और वैभव का ऐसा दिखावा करना और अपनी सगी बहन को अनदेखा करना यह बातें अमिता के दिल में गहरा ज़ख़्म कर गईं। अमिता को मन ही मन बहुत दुख हुआ परन्तु चेहरे मन्द मुस्कान लिए चुप खड़ी रही। दोनों को भूख भी लगी थी। उत्सव में आने की जल्दी में कुछ खाया भी नहीं था। किसी ने उन्हें आगे बढ़ कर खाना खाने के लिए नहीं कहा और न ही किसी से उन्हें यह उम्मीद थी इसलिए उन्होंने स्वयं ही आगे बढ़ कर थोड़ा-सा खाना खाया और अपने घर लौट आए। बहुत थकावट हो गई थी इस लिए बिना कोई बात किए वह लेट गए। 

अगली दिन सुबह अमिता यथावत काम में लग गई परन्तु मन में कल की बातें सोच कर हाहाकार सा मचा था मन उसका मन बहुत अशांत सा था। रोहित बहुत समझदार थे उन्होंने अमिता से कल रात को हुई किसी भी बात का ज़िक्र तक नहीं किया। रोहित के प्रमोशन के लिए परीक्षाएँ निकट आ गईं थीं। रोहित कुछ छुट्टियाँ ले कर परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत में जुट गए। अमिता ने भी रोहित को पूरा सहयोग दिया। समय पर खाना और नाश्ता बना कर, सब काम पूरा करके स्कूल चली जाती ताकि रोहित को उसकी अनुपस्थिति में कोई दिक़्क़त न हो। आख़िर रोहित की मेहनत रंग लाई उसकी परीक्षा बहुत अच्छी हुई। उसे अपने विभाग में सीनियर मैनेजर बनने की पूरी आशा थी। 

परीक्षा समाप्त होते ही अमिता और रोहित तनावमुक्त महसूस कर रहे थे। अचानक, एक दिन मँझली दीदी गीता उनके घर आईं। गीता दीदी को देख रोहित और अमिता दोनों को बहुत ख़ुशी हुई। दीदी अपने साथ मिठाई और फलों की टोकरी भी लेकर आई थीं। यह देख अमिता शंकित सी हो गई क्योंकि अव्वल तो गीता दीदी उसके घर आती ही नहीं थीं, यदि कोई बात होती तो फोन करके उसे बुलवा लेती थीं। दीदी ने उनसे कुशल मंगल पूछने के बाद अपनी वाणी को चाशनी में डूबा कर बात शुरू की। वह बोली तुम दोनों को एक ख़ुशख़बरी देने आई थी। उन दोनों के मन में शैला दीदी के घर हुए अनुभवों के ज़ख़्म अभी तक ताज़ा थे। उस बार तो वह दोनों किसी तरह अपमान का घूँट पी कर चुप रह गए थे। अगर इस बार ऐसा कुछ हुआ तो रोहित भी बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। उन्होंने बनावटी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए गीता दीदी को बधाई दी और ख़ुशख़बरी क्या है यह जानना चाहा। दीदी ख़ुशी से उतेजित हो कर बोली तुम्हारे जीजा जी के पुराने मित्र जो मंत्री हैं उन्होंने अपना बड़ा सा फ़ार्म हाउस कौड़ियों के मूल्य में हमें बेच दिया है, बस उसके भूमि पूजन के आयोजन में तुम दोनों भी आमंत्रित करने आई हूँ। अमिता के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वह सोचने लगी कि दीदी ख़ुद इतनी अमीर हैं पर और अधिक अमीर बनने की ख़ुशी सँभाले नहीं सँभाल पा रहीं हैं। अमिता ने बड़ी आत्मीयता से कहा कि हम अवश्य इस अवसर पर आएँगे। गीता दीदी मंत्री जी की और अपने पति की मित्रता की प्रशंसा के पुल बाँधते नहीं थक रहीं थीं। अमिता ने दीदी से मनुहार करते हुए कहा कि आप इतने सालों बाद हमारे घर आईं हैं मैं लंच करवाए बिना तो आज आपको जाने नहीं दूँगी। यह सुन गीता दीदी बोली, “अरे आज नहीं, अब मैं चलती हूँ मुझे अभी बहुत जगह जाना है। दूसरे तेरे घर में एयर कंडीशनर भी तो नहीं है मेरा तो दिल यहाँ गर्मी से भी घबराने लगा है।” चलते-चलते बोली, “हमारे भूमि पूजन में तो तुम अच्छी तरह पहन ओढ़ कर आना, मंत्री जी और उनके जान-पहचान वाले बहुत बड़े-बड़े लोग भी आएँगे। मुझे पता चला है कि तुम शैला के घर ऐसे ही पुरानी हल्की-सी साड़ी और नक़ली ज़ेवर पहन के पहुँच गई थी। मेरे घर ऐसे नहीं करना कुछ ज़रूरत हो तो तो बता दे,” यह कहते हुए गीता दीदी बाहर खड़ी अपनी कार की ओर लपकी। कार में बैठ कर उन्होंने एक बार भी पलट कर पीछे नहीं देखा। अमिता हाथ हिलाते ही रह गई। 

गीता दीदी के जाने के बाद अमिता स्तब्ध खड़ी सोचने लगी क्या यह मेरी वही सगी बड़ी बहनें हैं जो बचपन में उसका इतना ख़्याल रखती थीं, मुझ पर जान छिड़कती थीं। आज वही बहनें धन-दौलत के अभिमान में आ कर उससे अपना हाथ छुड़वा कर उससे कितनी दूर हो गईं हैं। दोनों ने उसे कितना पराया कर दिया है। उसने उसी समय सोच लिया कि वो लोग गीता दीदी के भूमि पूजन में नहीं जायेंगे। उसे भी अपने पति का आत्मसम्मान प्यारा है। गीता दीदी द्वारा लाई गई फल और मिठाई उसने अपने घर से कुछ दूरी पर बनी हुई झुग्गियों में रहने वाले ग़रीब लोगों को बाँट दी। भूमि पूजन सम्पन्न हो गया। अमिता और रोहित की अनुपस्थिति कहीं पर भी दर्ज नहीं हुई। बाद में भी किसी ने भी उनके वहाँ न आने का कारण नहीं पूछा। 

समय ने करवट ली। रोहित ने सीनियर मैनेजर की परीक्षा बड़ी सफलता से पास कर ली। रोहित की सीनियर मैनेजर के पद पर नियुक्ति होने पर उसका तबादला मेरठ हो गया। अपना नया पद भार सम्भालने के कुछ समय बाद रोहित छुट्टी लेकर, अमिता को लेने वापस आये। रोहित के प्रमोशन होने की ख़ुशी में उन्हें सम्मान देने के लिए उनके जान-पहचान वालों ने उन्हें भावभीनी विदाई देने के लिए एक पार्टी रखी। अमिता ने अपने कुछ जानने वालों को भी आमंत्रित कर लिया। जिनमें उसकी बहनें और कुछ स्कूल के स्टाफ़ के लोग भी थे। 

उनके विदाई सामारोह में जब रोहित और अमिता दोनों स्टेज पर आए तो ज़ोरदार करतल ध्वनि के साथ पुष्पाहार पहना कर उनका भव्य स्वागत किया गया। रोहित की ईमानदारी, कार्य करने के प्रति लगन आदि गुणों की ख़ूब प्रशंसा हुई। रोहित और अमिता ने बड़ी नम्रता से सबको धन्यवाद दिया। कार्यक्रम के बाद शानदार डिनर का इंतज़ाम किया गया था। स्टेज से उतरने के बाद जब वो भोज के लिये ले जा रहे थे तो वहाँ आए लोगों में अमिता को अपनी दोनों बहनें और उनके पति भी खड़े दिखाई दिए। उसने आगे बढ़ कर, बड़े आदर से उन सबको भोजन करने की प्रार्थना की। वो सब अमिता की नम्रता और प्यार देख शर्म से पानी-पानी हुए जा रहे थे। अमिता ने, न तो क़ीमती ज़ेवर पहने हुए थे और न ही महँगी बनारसी साड़ी पहनी थी परन्तु फिर भी वो अपनी नम्रता और सौम्यता से सबकी नज़रों का केंद्र बनी थी। भीड़ में खड़े उसकी बहनों जैसे कुछ बड़े और अमीर लोग जो अमीरी के तराज़ू में तोल कर रिश्ते और आपसी मेलजोल बनाते हैं वह सब भी यह देख कर हैरान और शर्मसार हो रहे थे। भोज के बाद अमिता और रोहित चले गए। जाते-जाते वो तथाकथित धनवान और बड़े लोगों की सोच पर एक प्रश्नचिह्न लगा गए। जो लोग धन दौलत होने के कारण अपने सामान्य या ग़रीब रिश्तेदारों को अपने से तुच्छ और कमतर समझने लगते हैं। दरअसल प्यार, सम्मान और अपनेपन के रिश्ते, धन दौलत से कहीं अधिक बढ़े होते हैं परन्तु कुछ लोगों को यह बात समय रहते समझ में नहीं आती है और वह दौलत के पीछे अपने आत्मीय सम्बन्धों से दूर चले जाते हैं। बाद में जब उन्हें अपनी ग़लती का अहसास होता भी है तब बहुत देर हो चुकी होती है। 

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......गिलहरी
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सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
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"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
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सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
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थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

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