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कठिन बहुत है डगर पनघट की

सुधा कॉलेज से घर लौटी तो देखा पिताजी घर पर ही थे। अम्मा उनके घुटनों की सिकाई कर रहीं थीं। उसने अम्मा को बैठने को कहा और स्वयं अपने छोटे से पर्स में से एक ट्यूब निकाल कर मालिश करने लगी। दोनों छोटी बहनें अम्मा से खाना परोसने की ज़िद कर रहीं थीं। झुँझलाई हुई अम्मा एक गहरा श्वास भर कर उठ खड़ी हुई और बड़बड़ाते हुए मीना और गीता को खाना परोसने लगी। खाना खिलाते-खिलाते अम्मा रोज़ की तरह महँगाई का रोना रोने लगीं। “बाज़ार में जाओ तो महँगाई ने आग लगा रखी है। फलों का तो दाम पूछते ही डर लगे है।” 

अब सुधा भी हाथ धोकर कपड़े बदल रसोईघर में आ गई, बोली, “लाओ अम्मा मुझे भी परोस दो।” अम्मा का बड़बड़ाना तुरन्त बंद हो गया। खाते-खाते सुधा बोली, “अम्मा अभी मुझे फिर जाना है, वह जो लाल कोठी वाले गुप्ता जी हैं न वह अभी रास्ते में मिले थे। वो अपने दोनों बच्चों की ट्यूशन के लिए कह रहे थे। मैंने हामी भर दी।” 

अम्मा को मन में तो बहुत तसल्ली-सी हुई पर दिखावा कर कहने लगी, “न, सुधा ना, उन्हें कल मना देना। तू कितना खटेगी हम सब के लिए।” 

सुधा भी अम्मा की दोहरी मानसिकता से बख़ूबी परिचित थी इसलिए चुप्पी साध गई। सुधा के पिताजी जयदेव जी शुरू से ही ढीले-ढाले क़िस्म के व्यक्ति रहे हैं। जल विभाग में क्लर्क थे। पहले-पहल जब सुधा का जन्म हुआ तब सब कहने घर में लक्ष्मी आई है लेकिन जब मीना और गीता का जन्म हुआ तब सुशीला और जयदेव निराशा के अंधकार में घिर गए। बेटे की चाह में दो बेटियाँ हो गईं थी। अब उन्होंने मन में दबी एक पुत्र की लालसा को मन में ही दफ़न ही कर दिया। सुधा सबसे बड़ी होने के साथ-साथ बहुत ही समझदार भी थी। सादगी और सुंदरता की अनोखी मिसाल थी। मीना ओर गीता भी अपनी दीदी का अनुसरण करने का प्रयास तो करती पर परन्तु उनकी चंचलता आड़े आ जाती

सुधा अँग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. कर रही थी। शाम को 3-4 बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने चली जाती थी। उनके साथ पड़ोस का बड़ा मकान शुक्ला जी का था। उनकी बड़े बाज़ार में सर्राफे की दुकान थी। अच्छे खाते-पीते लोग थे परन्तु अभिमान बिल्कुल नहीं था। सुधा अक़्सर पढ़ने के लिये एकांत की तलाश में छत पर चली जाती। नीचे तो मीना और गीता की छोटी-छोटी बातों झगड़े होते रहते पर अम्मा का उन पर बरसना जारी रख़ती थी जिससे पढ़ने में उसकी एकाग्रता भंग हो जाती थी। पता नहीं इत्तिफ़ाक़ से या स्वेछा से सुधा को उसके साथ वाली छत जो शुक्ला जी की थी, उस पर भी उनका बेटा शरद दिखाई दे जाता था। यह संयोग था, या कुछ और था, सुधा समझ नहीं पाती। वह एकग्रता से पढ़ती रहती। कभी-कभी छत से उतरते-चढ़ते दोनों की निगाह मिल जाती तो एक मन्द सी मुस्कान देकर पलट जाते। 

शरद की छोटी बहन शोभा भी में बी.ए. में उसी के कॉलेज में पढ़ती थी। वह बड़ी ही नम्र और सुंदर थी। कभी-कभी पढ़ाई की कोई समस्या लेकर सुधा के पास आ जाती थी। सुधा बड़े प्यार से उसकी समस्या का समाधान कर देती जैसे अपनी छोटी बहनों का करती थी। शुक्लाइन भी जब भी उनके घर हाल-चाल पूछने आती तो ख़ाली हाथ न आती। फल या मिठाई लेकर अवश्य आती थी। जयदेव और सुशीला संकोच से दब से जाते। सुधा को भी यह अच्छा नहीं लगता था। अक़्सर शुक्लाइन के जाते ही मीना और गीता फल या मिठाई पर टूट पड़तीं तो सुधा उन पर बहुत नाराज़ होती थी। सुधा को हमेशा अपने और अपने परिवार के स्वाभिमान के प्रति सजग रहती थी। 

एक दिन शुक्ला जी के घर से उनके सुपुत्र शरद के जन्मदिन के उपलक्ष्य में सत्यनारायण जी कथा का आयोजन था। जयदेव जी को भी कथा और भोज में सपरिवार आने का आमंत्रण था। जयदेव जी ने तो घुटनों के दर्द के चलते वहाँ जाने से इंकार कर दिया। सुधा ने अम्मा को गीता और मीना के साथ जाने की सलाह दी। ऐसे में शरद को कोई उपहार देना बनता था। बड़े सोच-विचार के बाद सुधा ने सुझाया अम्मा वो एक सिल्क के कपड़े का पीस जो कॉलेज में मंत्री महोदया ने 15 अगस्त पर उसकी कविता कर इनाम के रूप में दिया था, उसी का कुर्ता सिलवा उपहार में दे देते हैं। अम्मा को बात जँच गई। सुधा तुरन्त सदर बाज़ार जा कर अंदाज़ से नाप देकर कुर्ता सिलने को दे आई। 

जन्मदिन वाले दिन शुक्ला जी के घर बहुत चहल-पहल थी। कथा के बाद शानदार भोज था। सुधा तो अपने पिता के पास ही रही। अम्मा के साथ मीना और गीता को भेज दिया। घर वापिस आकर मीना और गीता उसी भोज की चर्चा करती नहीं थक रहीं थी। यह देख सुधा ने यह दोहा ‘रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीभ’ सुना कर उनकी इस चर्चा पर विराम लगवाया। जयदेव जी घुटनों का दर्द जब असहनीय हो गया तब उन्होंने स्वेच्छा से रिटायमेन्ट ले लिया। मासिक तनख़्वाह ने सिमट कर पेंशन का रूप ले लिया। आमदनी कम और ख़र्च वही था। अम्मा सारे दिन मीना और गीता को बिना वजह कोसती रहती। सुधा से यह सहन न होता वह उन्हें ज़ुबान पर अंकुश रखने को कहती तो अम्मा उसी पर बरसने लगती। अब सुधा एम.ए. के बाद बी.एड. कर रही थी। एक दिन सुधा, कॉलेज से जल्दी आ गई थी। मीना और गीता का इतंज़ार कर रही थी; तीनों मिल कर खाना खाती थीं। अचानक, शरद वही सिल्क का कुर्ता पहने हुए आ खड़ा हुआ। हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था। उसने आगे पढ़ कर जयदेव जी के चरणों को स्पर्श किया और बोला, “चाचा जी आशीर्वाद दीजिए मेरा एम.कॉम. का रिज़ल्ट आ गया। अब पढ़ाई ख़त्म करके मैं बाऊजी के साथ दुकान पर ही सहयोग करूँगा। बाऊजी का स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता। डॉक्टर ने उन्हें आराम की सलाह दी है।” जयदेव जी ने भी आशीर्वाद देते हुए शुभकामनाएँ भी दी। सुधा चाय बना लाई। सुधा की अम्मा भी वहीं बैठी थीं। वह शरद के सामने अपनी ग़रीबी और बेटियों की शादियों का रोना रोने लगी। सुधा का क्रोध से चेहरा तमतमा गया। जयदेव जी ने बात को बदल कर कुछ और चर्चा आरंभ कर दी। शरद के जाने के बाद सुधा और अम्मा की ठन गईं। सुधा बिना खाना खाए लेट गई। माँ भी लगातार बड़बड़ाती ही रही। 

कुछ समय बाद सुधा का बी.एड. पूरा हो था। सुधा के कॉलेज की प्रिंसिपल साहिबा निहारिका गुप्ता जी को सुधा से बहुत स्नेह रख़ती थीं। सुधा की क़ाबिलियत की वह क़ायल थीं। सुधा के घर की माली हालत के बारे में वह अच्छी तरह से जानती थीं। दिल्ली में उनकी बहन भी एक बड़े की कॉलेज की प्रिंसिपल थीं। उसने सुधा को वहाँ लेक्चरार के पद के लिए आवेदन करवाया। सुधा ने कॉलेज में टॉप भी किया था और साथ ही प्रिंसिपल साहिबा की सिफ़ारिश भी थी। 

सुधा पहली बार अकेली इतने बड़े शहर दिल्ली जा रही थी। स्टेशन पर कॉलेज के प्रशासन की ओर से उसके लिए गाड़ी भेजी गई थी। साक्षात्कार तो औपचारिकता मात्र था। चार दिन बाद ही सुधा ज्वाइनिंग पत्र मिल गया परन्तु उसमें उसे लेक्चरारशिप के साथ गर्ल्स हॉस्टल की वार्डन का कार्यभार भी सौंपा गया। सुधा की योग्यता देख कर ही उसे यह ज़िम्मेदारी दी गई थी परन्तु वहाँ की सीनियर लेक्चरार ईर्ष्या से भड़क उठीं। वो बहुत सालों से इस पद की आस लगाए बैठीं थीं परन्तु केवल योग्यता के बल पर एक नई और युवा लेक्चरार उनके अरमानों पर पानी फेर गई। यह उम्मीद उन्हें नहीं थी। स्टाफ़ रूम का मौसम बहुत गर्म हो गया था। आशा और मीरा दो युवा लेक्चरार को छोड़ कर किसी ने सुधा का स्वागत नहीं किया। शांत स्वभाव सुधा ने मौन मुस्कुराहट को अपना अस्त्र बना कर सारा कार्य भार वहन कर लिया। कॉलेज के परिसर में ही इसे अन्य लेक्चरार के साथ बँगला दिया गया साथ ही घरेलू काम-काज करने के लिए एक नौकरानी और माली की सुविधा भी प्रदान की गई। सुधा को तो अपनी तक़दीर पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। ख़ुशी से भरी सुधा अपना सारा सामान आदि लेने घर वापिस आई तो सब की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। 

पिता जयदेव ही आह भर के बोले, “मैं अपने कर्तव्य नहीं निभा पाया तो सुधा को आज अविवाहित ही विदा कर रहा हूँ।”

सुधा ने पिता को सांत्वना देते हुए सांत्वना देते हुए कहा, “पिताजी आप दिल छोटा न करिए, आपने ही तो पढ़ाया-लिखाया था इसीलिए मैं कुछ बन सकी।”

दोपहर का सारा भोजन सुधा की पसंद का बना। भोजन के समय बातें करते-करते अचानक अम्मा कहने लगी, “सुधा तेरे जाने के बाद, एक दिन मिश्राइन तेरे बारे में पूछने आई थी। मुझे कहने लगी अपनी सुधा का रिश्ता हमारे शरद से कर दो। मुझे तो सुधा बहुत पसंद है मैं तो हैरान रह गई। मैंने तो साफ़ मना कर दिया। हम आमने-सामने के पड़ोसी हैं, लोग दस तरह की बात करेंगे। अमर और सुधा की बदनामी होगी।” अम्मा कुछ देर चुप रह कर बड़े घमंड से बोली, “आज तुम कुछ बन गई है तो रिश्ता लेकर चली आई।”

यह सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई। अम्मा ने यह क्या कर डाला? शरद, क्या सोचता होगा? कम से मेरे से राय तो ले लेंती। अम्मा, पिताजी की तो कभी चलने नहीं देती थीं। जयदेव जी भी असमर्थता का लिबास ओढ़े चुप्पी धारण कर लेते थे। सुधा खाना छोड़ बीच में ही उठ गई यह देख अम्मा ताड़ गई कि कुछ दाल में काला है। अम्मा खीज कर बोली, “सुधा यह परोसा खाना छोड़ कर उठ जाने का क्या मतलब? मिश्राइन को मना कर क्या मैंने ग़लत किया? इधर तुझे इतनी अच्छी नौकरी मिली है, बँगला, नौकर-चाकर, माली और क्या चाहिए? ईश्वर का शुक्र कर हमारे बुरे दिन बदल रहे हैं।” यह सुन सुधा का मन तड़प उठा। सोचने लगी मेरे मन के भावों का क्या? अपना दर्द किसे सुनाऊँ? शरद का बारे में सोच कर उसकी आँखें भर आईं। 

बिना कुछ जवाब दिए वह अपने अटैची में सामान रखने लगी। दोनों बहनें भी चहक रहीं थीं। दोनों दौड़-दौड़ कर सुधा का सामान इकट्ठा करने लगीं। सुधा ने दोनों को कमरे से बाहर जाने को कह दिया। बहनें भी मुँह बिचका कर चली गईं। उसे अब इस घर में एक-एक पल काटना दूभर हो रहा था। समय से पहले ही उसने ताँगा मँगवा लिया। अकेली ही सामान उठा कर ताँगे में रखने लगी। जाते समय पिता को दवाई समय पर खाने और नियम से मालिश करवाने की हिदायत दी, बहनों को भी मन लगा के पढ़ने का आदेश दिया। बस अम्मा को कुछ नहीं कहा। अम्मा एक डिब्बे में सवेरे से बना रही मठरी और गुड़पारे देने आगे बढ़ी तो सुधा ने मना करते हुए बोली, “अम्मा दिल्ली जा रही हूँ कोई बनवास पर नहीं, यहीं रख लो आप सबके काम आएगा।” अम्मा चुप खड़ी रह गई। सुधा जैसे ही ताँगे में बैठने लगी साथ वाली छत की मुँडेर पर शरद दिखाई दिया; आँखों में गहरी उदासी झलक रही थी। सुधा ने उसे देख सिर झुका लिया। ताँगा चल दिया। 

स्टेशन पर सुधा को लेने गाड़ी आई हुई थी। भारी मन से सुधा अपने बँगले में पहुँच गई। कॉलेज के हेड क्लर्क ने उसे बँगला दिखाते हुए उसका रमिया नाम की एक औरत से परिचय करवाया जो उसके घर के सारे घरेलू काम-काज करेगी। अगले 20 दिन सुधा बहुत व्यस्त रही। उसे दिए गए टीचिंग पीरियड और होस्टल में आई स्टूडेंट्स के कार्य दोनों को एक साथ करना और दोनों कामों में ताल-मेल बनाने में ही पूरा समय निकल जाता। रमिया एक माँ की तरह उसका ख़्याल रखती। आशा नाम की एक अविवाहित सखी भी उसे मिली जो किसी बड़े उद्योगपति पति की बेटी थी। उसकी सगाई हो चुकी थी उसका फिआंसी लन्दन पढ़ाई के लिए गया था। पहली नज़र में ही दोनों को एक दूसरे में अपनापन मिला। 

आशा खोसला अँग्रेज़ी नॉवेल पढ़ने की बहुत शौक़ीन थी और सुधा से उन नॉवेल्ज़ की चर्चा करती रहती, सुधा काम करते-करते सुनती रहती। सुधा को फ़ुर्सत ही कहाँ होती थी। वह दोनों अपने मन की बातें एक दूसरे को बिना झिझक कह देती थीं। छुट्टी वाले दिन बाज़ार भी चली जातीं। सीनियर में से, कुछ को छोड़ अधिकतर लेक्चरर्स उनसे जलती थीं। नए सत्र की पढ़ाई आरम्भ हो चुकी थी। 

सुधा जब पहले दिन अपना लेक्चर देने क्लास में गईं सब लड़कियों के चेहरों पर उपहास भरी मुस्कान और भाव दिखाई दे रहे थे। सुधा ने उसे अनदेखा कर बड़े प्यार से उनके नाम पूछे उन सबका परिचय लिया और अपना परिचय दिया। अगले दिन से पढ़ाना आरम्भ कर दिया। सारी छात्राए मन्त्र-मुग्ध हो लेक्चर में लीन हो गईं। प्रत्येक क्लास में सुधा को छात्राओं की ऐसी ही प्रतिक्रिया मिली। छात्राओं में सुधा मिस के रूपरंग और अध्यापन के चर्चे हो रहे थे। सुधा ने भी ख़ुशी की साँस ली। उसने कड़ी मेहनत करने का संकल्प लिया। निहारिका जी के विश्वास को और मज़बूत करना चाहती थी कि उनका सुधा का इस पद के लिये किया गया चुनाव सही था। सुधा नियम से अपने लिए ख़र्च के पैसे रख बचे हुए सारे रुपए घर भेज देती थी। अब वह इतने बड़े कॉलेज की लेक्चरार और वार्डेन थी इसलिए उसे कुछ अच्छी साड़ियाँ भी ख़रीदनी पड़ीं। उसने अपने बँगले को बहुत कलात्मकता से सजाया। उससे बाहर से आने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। बग़ीचे में मनपसन्द फूलों के पौधे और मधुमालती की बेल लगवा ली। बहनों और अम्मा के ख़त आते रहते थे। हर ख़त में बहनों की कुछ फ़रमाइशें होती और अम्मा की नसीहत कि ख़र्च से किफ़ायत करना। कभी-कभी शांत सौम्य सुधा का मन रोष से भर उठता। फ़ुर्सत के समय आशा आ जाती तो सुधा का दिल बहल जाता। 

एक दिन सुधा अपने ऑफ़िस में बैठी हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं के दिए गए कुछ पत्रों को देख रही थी। किसी को रूम मेट से शिकायत थी, तो किसी को कुछ अन्य समस्या थी। उसी समय चपरासी ने उसे सूचना दी कि मिस साहिब आपसे कोई मिलने आया है। नई जगह में उससे कौन मिलने आया होगा? उसने अंदर भेजने की आज्ञा दे दी। एक युवा ख़ूबसूरत से लड़के ने प्रवेश किया। युवक ने संकोच से कहा, “मैडम, मैं इस कॉलेज 
की वार्डेन साहिबा से मिलने आया हूँ।” 

सुधा ने पूछा, “आप कौन हैं और उनसे क्या काम है?”

जवाब में युवक ने बताया कि वह अमर है अभी 2 दिन अपने घर जो देहरादून में है वहाँ से लौटा है। वहाँ से हमारी पड़ोसिन शारदा आंटी ने इस कॉलेज की वार्डेन साहिबा के लिए मेरे हाथ कुछ सामान भिजवाया है। उनको वही देने आया हूँ। 

यह सुनते ही सुधा के मुख पर एक प्यारी सी मुस्कान आ गई। वो बोली आइये, “मैं सुधा हूँ और मैं ही इस कॉलेज की वार्डेन हूँ।” उसे शारदा बुआ की याद आई वह पापा की एक मात्र बड़ी बहन थी। बरसों पहले उनका विवाह देहरादून में एक बड़े अमीर घराने में हो गया था। वह रक्षाबंधन या भाईदूज पर कभी-कभी उनके घर आती थीं। सबसे उन्हें बहुत प्यार और स्नेह करती थीं। बचपन में सब बहनें उनकी गोद में खेल कर बड़ी हुईं थीं। अब उनका स्वस्थ ठीक नहीं रहता इसलिए कभी-कभी ही आ पाती हैं। पिछले साल जब वो कानपुर आई थीं जब पिताजी की तबीयत बहुत ख़राब हो गई थी। वह बहुत सुंदर-सुंदर साड़ियाँँ पहनती थी। हम सब उनकी साड़ियों की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। शायद साड़ी ही भेजी होगी यह सुन सुधा उत्सुक हो उठी। तभी सुधा को युवक का ध्यान आया। वह अपलक उसीको ही निहार रहा था। वह संकोच से भर उठी। उसने तुरंत बैल बजा कर बाहर खड़े चपरासी को बुलाया और कॉलेज केन्टीन से कोकाकोला और सेंडविच का ऑर्डर दिया तो युवक नम्रता से बोला, “इसकी ज़रूरत नहीं है अब मैं चलूँगा।” 

सुधा, बुआ जी के पड़ोसी को ऐसे नहीं जाने देना चाहती थी उसने आग्रह करके उसे रोक लिया। सुधा ने चुप्पी तोड़ते हुए उस युवक से पूछा, “आप का शुभनाम क्या है? यहाँ किस कॉलेज में पढ़ते हैं?”

युवक ज़ोर से हँस पड़ा और बोला, “मैं जी मैं अमर हूँ। यहाँ दिल्ली में एक विदेशी कम्पनी में नौकरी करता हूँ।”

यह सुन कर सुधा शर्म से लाल हो गई, बोली, “क्षमा कीजिये मैं आपको किसी कॉलेज का स्टुडेंट समझ बैठी थी।”

इस पर अमर ने मुस्कुराते हुए कहा, “और मैं कौन-सा आप को वार्डेन समझा था। आप तो इतनी कमउम्र हैं आपसे लड़कियाँ कैसे डरती होंगी?” कह कर अचानक चुप हो गया। सुधा अन्यथा न लेले इसलिए बात बदल कर पूछने लगा कि आपके घर में कौन-कौन हैं? सुधा ने सबके बारे में बताया तो वह कहने लगा, “मैं तो इकलौता ही हूँ इसलिए बहुत ज़िद्दी भी हो गया हूँ।” यह कह कर जाने को खड़ा हो गया पर उसकी निगाहें सुधा के चेहरे से हट ही नहीं रहीं थीं। सुधा भी नज़रें झुका कर बाहर तक छोड़ने के लिए उठ खड़ी हुई। उसके जाने के बाद न जाने क्यों सुधा मन कुछ बेचैन-सा हो उठा था। वह रात भर वह करवटें बदलती रही। अमर के बारे में सोचती, ‘अब वो यहाँ क्यों आएगा’? यह सोचते-सोचते न जाने कब नींद के आग़ोश में समा गई। 

सुधा 26 वर्ष की हो चुकी थी पर परन्तु उसके चेहरे की सात्विकता, कोमलता, सादगी से भरा अनोखा आकर्षण किसी का भी ध्यान अपनी ओर खींच लेता था। क्लासेज़ में जब वह लेक्चर देती तो वह इतना प्रभावशाली होता कि छात्राएँ मंत्र मुग्ध हो सुनतीं और समझतीं थीं। सुधा को लेक्चर देते समय कभी किसी तरह के नोट्स, किसी किताब या काग़ज़ देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। बहुत जल्दी ही सुधा छात्राओं में लोकप्रिय हो गई। अधिकतर सभी सीनियर, सुधा का नुक़्स निकाले का मौक़ा खोजती रहतीं, उसे उकसाने वाली बातें करतीं परन्तु सुधा बड़े धैर्य से मुस्कुरा कर निकल जाती। 

रविवार का अवकाश था। सुधा और उसकी सहेली आशा ने बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाया। बाज़ार में आशा ने तो एक के बाद एक बहुत सारी साड़ियाँँ ख़रीद डालीं। बेचारी सुधा संकुचित केवल साड़ियाँ देखती ही रही परन्तु आशा ने जब बहुत ज़िद की, तब अम्मा के लिए एक साड़ी ख़रीद ही डाली। ज़्यादा ख़रीदती तो सारा बजट गड़बड़ा जाता। घूमने से दोनों बहुत थक गईं थीं इसलिए एक कॉफ़ी हाउस में चली गईं। वहाँ कॉफ़ी का ऑर्डर देकर बैठ गईं। अचानक, सुधा की नज़र सामने बैठे अमर पर पड़ी शायद वह किसी मीटिंग में आया था। शायद कोई गम्भीर चर्चा चल रही होगी। अमर को ऐसे गम्भीर देख कर सुधा के चेहरे पर अनायस ही एक मुस्कान आ गई। आशा ने जब उसके मुस्कुराने का कारण पूछा तो उसने आशा को उस दिन वाली घटना बता दी जब अमर को स्टुडेंट समझने की भूल बैठी थी। अचानक अमर की निगाह भी उन पर पड़ गई। उसने अपने साथ वाले व्यक्तियों को कुछ कहा और उठकर उन दोनों के पास आ गया। सुधा ने अमर से आशा का परिचय करवाते हुए कहा कि यह मेरी एकमात्र प्रिय सखी आशा है। अमर ने मुस्कुरा कर आशा को अभिवादन किया। 

“चलिए, मेरी आज की मीटिंग सार्थक हो गई। देखिए आप दोनों से मुलाक़ात हो गई।”

सुधा ने अमर से आहिस्ता से पूछा, “यह आपकी क्या ऑफ़िशियल मीटिंग है?”

अमर बोला, “हाँ वही चल रही है।” इस पर सुधा बोली तो आप क्यों उठ आए? 

अमर हँसने लगा बोला, “अचानक बहुत दिनों बाद आपको देखा तो आपसे बात करने का लोभ खींच लाया।” 

आशा ज़ोर से हँस पड़ी परन्तु सुधा ने संकोच से सर झुका लिया। अमर ने कहा, “आप कुछ देर रुकिए मैं मीटिंग ख़त्म होते ही आप दोनों को अपनी कार में कॉलेज पहुँचा दूँगा।” परन्तु सुधा ने इंकार कर दिया। 

हॉस्टल आकर आशा, सुधा पर बरस पड़ी, बोली, “सुधा वह भला लड़का हमें कॉलेज छोड़ने के लिए स्वेच्छा से कह रहा था तुमने क्यों मना कर दिया?” सुधा हँस कर टाल गई। 

घर आई तो रमिया उसे एक पत्र भी थमा गई, बोली, “कल से आया हुआ है।” पत्र में अम्मा का था। वही पुरानी बातें दोहराई गई थीं। पिताजी के लिए कोई अच्छी दवाई भेजने की माँग थी। आख़िर की पंक्तियों में लिखा था, पड़ोस वाली मिश्राइन के बेटे शरद का भी विवाह हो गया है। बड़े अमीर घर की बहू आई है। यह पढ़ते ही सुधा के दिल में टिमटिमाता उम्मीद का एक छोटा सा दीया, दप-सा बुझ गया। उसके आमने एक बार शरद का वह गहरी उदासी में डूबा हुआ चेहरा याद आ गया जब वह दिल्ली जा रही थी और वह छत पर खड़ा था। एक गहरी साँस ले कर वह लेट गई। रमिया को खाना लगाने से मना कर दिया। रमिया, प्रौढ़ महिला थी। सुधा से पुत्रीवत स्नेह रखने लगी थी वह। एकदम अधिकार से बोली, “मिस साहिबा, आपको बिना खाए सोने नहीं दूँगी,” एक थाली परोस लाई और जबरन खिलाने लगी। सुधा की आँखें छलक आईं, दिल में छिपा दर्द आँसुओं के रूप में बह निकला। 

ज़िन्दगी यथावत चलने लगी। आशा आ जाती तो समय निकल जाता। उसका मंगेतर भी कुछ महीनों में लौटने वाला था। वह अक़्सर उसीकी बातें करती रहती। एक रविवार, वह बाल धोकर अपने लॉन में बैठी थी। उसे कभी-कभी मिलने वाले यह फ़ुर्सत के क्षण बहुत अच्छे लगते थे। अचानक गेट पर उसकी नज़र पड़ी। अमर हाथ में एक पैकेट लिए खड़ा था। उसे देख उसका दिल ज़ोरों से धड़क उठा। वह अचकचा के उठ खड़ी हुई और बोली, “आप यहाँ?”

अमर हँस पड़ा और बोला, “मुझे देख कर, आप तो ऐसे घबरा उठीं जैसे किसी भूत को देख लिया हो।”

सुधा, झेंप गई। वह बहुत शिष्टता से अमर को अंदर ले गई। रमिया को चाय बनाने को कह स्वयंअपने बिखरे बाल समेटने लगी। अमर भी बे-तकल्लुफ़ हो कर बोला, “भई हम तो लंच के इरादे से आए हैं। आप तो चाय से टालना चाह रहीं है॥”

सुधा का चेहरा गुलाबी हो गया बोली, “नहीं, आप खाना खा कर ही जाइए।”

अमर अपने हाथ में लाए पैकेट को सुधा को देते हुए बोला, “यह आपके लिए एक छोटा सा उपहार लाया था।” वह बातों ही बातों में अमर ने बताया कि बहुत दिनों से माँ बनारस जाने का आग्रह कर रहीं थी पर ऑफ़िस से छुट्टी ही नहीं मिल रही थी। अचानक बॉस मेहरबान हुआ तो माँ की इच्छा पूरी करने उनके साथ बनारस चला गया था। कल शाम को ही हम लौटे हैं। 

माँ ने अपने कुलदेवता की पूजा के बाद बनारस की सैर की। उन्होंने आते समय अपने कुछ सगे सम्बंधियों के लिए बनारसी साड़ियाँँ भी ख़रीदीं तो मेरे दिल में भी तुम्हारा ख़्याल आया। इसलिए एक साड़ी तुम्हारे लिए भी ख़रीद ली। यह रंग तुम पर ख़ूब खिलेगा। यह कहते हुए उसने साड़ी का पैकेट सुधा को थमा दिया। सुधा संकोच में डूब गई फिर बोली, “मैं तो इतनी क़ीमती साड़ी कभी पहनती भी नहीं हूँ।”

अमर बोला, “सुधा तुम मेरे दिल और दिमाग़ से निकलती ही नहीं हो। बहुत दिनों से तुम्हारे घर आने का बहाना खोज रहा था परन्तु आज बिना बहाने के ही आ गया। जिस दिन से तुम्हें कॉलेज की इतनी ख़ूबसूरत वार्डन के रूप में तुम्हें देखा था। उस दिन से मेरी तलाश पूरी हो गई। जो छवि बरसों से मेरे दिल और सपनों में समाई हुई थी उसका मूर्त रूप तुम्हीं थीं। बस, उसी क्षण तुम मेरे मन में समा गई। काश मैं भी आपके कॉलेज के होस्टल में रह पाता।”

सुधा अब गम्भीर हो कर बोली, “अमर जी अब हँसी-मज़ाक बहुत हो चुका।”

अमर भी अब गम्भीर हो गया और बोला, “सुधा जी मैं लाग-लपेट वाली बातें करने का तो अभ्यस्त नहीं हूँ जो मेरे मन में है वह कह दिया। तुम मेरे मन ने उसी दिन तुम समा गईं थीं जब मैंने पहली बार तुम्हें देखा था।” यह कहते-कहते अमर भावुक हो उठा। “सुधा सच कहूँ बचपन से ही अकेले रहा हूँ। माँ-पिता का स्नेह तो भरपूर मिला पर सच्चा दोस्त कभी भी नहीं मिला। मेरे भाई-बहन कोई नहीं थे। पिताजी यही चाहते थे कि मैं उन्हीं जैसा रुतबा प्राप्त करूँ। पढ़ाई-लिखाई और किताबें ही साथी थे। परन्तु तुम्हें देखते ही यह महसूस हुआ कि दिल को जिसकी तलाश थी वह पूरी हो गई। मैं तो तुम्हारी बुआ जी का सदा आभारी रहूँगा जिनके कारण मेरा तुम्हारे परिचय हुआ।” 

अमर अपनी ही धुन में बोलता जा रहा था। 

“सुधा तुम्हें देखते ही कुछ ऐसे अपनेपन का अहसास हुआ। जैसे तुम्हें जन्मों से जानता हूँ।”

सुधा को बेबस हो कर अमर की बातों को बीच में ही काटना पड़ा। वह बोली, “अमर तुम्हें पता भी है कि तुम क्या कह रहे हो? माना कि तुम मुझे पसन्द करते हो पर इसका मतलब यह तो नहीं कि मेरे मन में भी तुम्हारे लिए वही सारी भावनाएँ हों। मैं तो उम्र में भी तुमसे बड़ी ही हूँ। उस पर कॉलेज के गर्ल होस्टल की वार्डन हूँ। यह प्यार और लगाव, मेरे जैसे लोगों की क़िस्मत में नहीं होता।” यह कह कर सुधा ने मुँह फेर लिया। यद्यपि यह कहते हुए सुधा को बहुत मानसिक यंत्रणा हो रही थी। अमर जैसा लड़का उसके लिए तो आसमान के चाँद से कम नहीं था। उसे पाकर तो कोई भी लड़की स्वयं को धन्य मानती। अमर में क्या कमी थी? कार्तिकेय जैसा ख़ूबसूरत रूप-रंग, उच्च-शिक्षित, बड़ी कम्पनी में नौकरी और सम्भ्रान्त परिवार का इकलौता पुत्र। परन्तु क्या करे? जब वह ही अपने भाग्य में अमावस लिखवा के आई थी; कोई पूर्णिमा उसके भाग्य में नहीं आई। अमर समझ चुका था कि सुधा मन ही मन उसे पसंद करती थी परन्तु उसके जीवन में ईश्वर ने कुछ ऐसी लक्ष्मण रेखाएँ खींच दी हैं उन्हें पार करना उसके लिए असम्भव था। अमर जानता था कि सुधा के दिल में उसके लिए प्यार छिपा हुआ है। अमर के सामने वह ख़ामोश और गम्भीर चोले में रहती है, कभी-कभी यह चोला अनजाने में खिसक जाता है, तब सुधा की निगाहों से बरबस छलकते प्यार के सागर को उमड़ते वह देख चुका है। सुधा भी जानती थी कि अमर का प्रेम निवेदन छल कपट से कोसों दूर था। वह पर मजबूर थी। 

आशा उसके हर दुख-सुख की साथिन थी। उसने आशा को अपने दिल की उलझन से सुना डाली यह सुन कर आशा आवेश में आ गई बोली, “सुधा तुमने सारे परिवार की ज़िम्मेदारी ले रखी है क्या? पर तुम्हारे अपने प्रति भी तो कुछ ज़िम्मेदारी है, तुम्हारे भी कुछ अपने अरमान हैं, सपने हैं कब तक उनकी बलि चढ़ाती जाओगी?” आशा ने बड़े अधिकार से रमिया को चाय बनाने को कहा और सुधा को बहलाने का प्रयास करने लगी पर सुधा की उदासी जस तस ही रही। आशा उठ कर चली गई। 

अगले दिन कॉलेज की प्रिंसिपल के साथ सुधा एक आवश्यक मीटिंग में बैठी थी। अचानक ऑफ़िस के पियोन ने सुधा को आकर को सूचना दी मिस साहब आपका कानपुर से फोन आया है। सुधा घबरा गई, प्रिसिंपल साहिबा से क्षमा माँगते हुए कॉलेज के ऑफ़िस की ओर दौड़ी। फोन में दूसरी ओर छोटी बहन मीना थी बोली जीजी लो अम्मा से बात करो। अम्मा की आवाज़ में ख़ुशी झलक रही थी बोली, “सुधा सुन एक ख़ुशख़बरी है मीना के लिए बहुत अच्छा रिश्ता आया है। लड़का सरकारी नौकरी में है घरबार दिल्ली में ही है। लड़के की मौसी यहीं कानपुर में ही है। शादी दिल्ली तेरे बँगले से ही होगी।” अम्मा उसे बोलने का मौक़ा ही नहीं दे रहीं थी। सुधा खिन्न हो उठी बोली, “अम्मा ज़रूरी मीटिंग चल रही है। बाद में बात करती हूँ।” कॉलेज में लेक्चर देते हुए वह एकाग्र नहीं हो पा रही थी। बार-बार एक तीखी गहरी टीस मन में उठ रही थी। उसके परिवार में किसी ने एक बार भी उसके विवाह के बारे में नहीं सोचा! किसी को उसके दिल के टूटने की परवाह नहीं है? पिता जी शारीरिक रूप से निर्बल हैं परन्तु वह दुनियादारी की तो अच्छी समझ रखते हैं। अपनी बड़ी बेटी से पहले छोटी बहन का विवाह? अब उनकी बिरादरी क्या उन्हें कुछ नहीं कहेगी। दरअसल बिरादरी भी को यह जानती है कि सुधा ही परिवार का एक मात्र सहारा है इस कारण उसके अरमानों को अनदेखा कर सपनों को कुचल कर अनदेखा कर दिया गया। 

सुधा ने शाम को तटस्थ हो कर अपने अपने सारे गिले-शिकवे मन में ही दबा कर घर वालों से बात की और कह दिया जब शादी की तारीख़ निकल जाए तो अवगत करा देना। सुधा का फोन सुन कर घर में ख़ुशी की लहर-सी आ गई। इसके बाद अब अम्मा के रोज़ ही फोन आने लगे। कभी किसी समस्या को लेकर फोन करती रहती। एक दिन शाम को सुधा अकेली बैठी सोच रही थी कि अगले साल तो वह एकदम अकेली रह जायेगी। आशा की भी शादी है वह भी चली आएगी। सामने कॉलेज गेट पर कार रुकी कार उतरने वाला और कोई नहीं अमर था। उसका दिल ज़ोरों से धड़क उठा। वह उठ कर अंदर चली गई। रमिया को चाय बनाने को कह अमर का इंतज़ार करने लगी। आज उसके दिल में अमर को देख अनोखी सी हिलोर उठी। वह मन ही मन सोचने लगी कि वह अमर से दूर भाग कर उस बेचारे को किस बात की सज़ा दे रही है? क्या वह दुनिया का पहला व्यक्ति है जिसने किसी से प्यार का इज़हार किया हो? खुले शब्दों में उसे स्वीकार किया है? वास्तव में यह उसका व्यर्थ का दर्प है उसकी ज़्यादती है। वह किस बात पर गुमान कर रही है? एक ग़रीब घर की मामूली-सी लड़की होने का? जिसके पास एक अच्छी नौकरी के अतिरिक्त कोई अवलम्ब नहीं है। 

रमिया, अमर को ले कर अंदर आ गई। सुधा ने भी गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए कह बैठी, “अमर बहुत दिन बाद इधर आए हो?”

अमर विस्मित-सा हो गया। बिना कुछ कहे सुधा के पास बैठ गया रमिया चाय ले आई तो सुधा बोली, “अमर तुम्हें एक ख़ुशख़बरी देनी थी, बहुत जल्दी ही मेरी छोटी बहन मीना की शादी होने वाली है। यहीं दिल्ली में होगी। शादी की तैयारी में तुम मेरी मदद करोगे न?”

यह सुन कर अमर कुछ देर चुप रह कर वह बोला, “सुधा, तुमसे पहले तुम्हारी छोटी बहन का विवाह? क्या तुमने विवाह करने से मना कर दिया? या फिर विवाह न करने का संकल्प कर लिया है?”

यह सुन कर सुधा के दिल का दर्द उसके चेहरे पर झलक आया। घोर पीड़ा और बहुत दिनों से मन में छिपा आक्रोश ज्वालामुखी की तरह फट गया। वह बेबसी से रो पड़ी। अमर हतप्रभ सा हो कर देखने लगा उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे? सुधा को कैसे शांत करे? सुधा के पास जाने की न तो हिम्मत ही न थी। उसका मन था पर वह इस सीमा रेखा को पार नहीं करना चाहता था। अचानक, अमर हैरान रह गया जब उसने देखा कि सुधा उससे लिपट गई और टूट के रो पड़ी। उसने सुधा को अपनी बाँहों में सम्हाल लिया और उसके सिर पर हाथ फेर कर चुप कराने लगा। सुधा रोते-रोते अस्फुट शब्दों में न जाने क्या-क्या बोलती जा रही थी। “अमर, मैं बहुत अकेली हूँ मेरा साथ न छोड़ना। मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, सब स्वार्थी हैं। बस तुम्हीं एक हो जिसने मुझे दिल से चाहा।” कुछ समय बाद सुधा सामान्य हो गई। अमर ने मुस्काते हुए कहा, “सुधा आज तुम्हारे रुदन ने तुम्हारे मन के कपाट खोल डाले। तुम अपने परिवार के मोह में अपनी ख़ुशियाँ दाँव पर मत लगाओ। अपने बारे में भी कुछ सोचो। मैं यह सलाह हरगिज़ न दूँगा कि तुम अपने परिवार की उपेक्षा करो परन्तु उनकी ख़ुशियों के साथ अपनी ख़ुशियों का भी ध्यान रखो। उन्हें उनके हाथों लुटने मत दो। सुधा कोई कोई बीच का रास्ता निकालो।” सुधा एक छोटी-सी आज्ञाकारिणी बच्ची की तरह अमर की बातें सुनती रही। 

अब सुधा के मन की दुविधा से मुक्त हो गया। उसने खुले मन से अमर के प्यार को स्वीकार कर लिया। उसकी सहेली आशा भी उसमें आए हुए इस बदलाव से बहुत प्रसन्न थी। अब छुट्टी अक़्सर वाले दिन अमर और सुधा बाहर घूमने जाते, कभी लंच या डिनर का प्रोग्राम बनाते। सुधा भी किसी छुट्टी पर बहुत चाव से अमर को खाने पर बुलाती और से उसके मनपसन्द व्यंजन बना कर उसे खिलाती। सुधा और अमर दोनों का प्यार बहुत ही अनूठा था। उन दोनों के दिलों को मानो किस दैविक शक्ति ने जोड़ा था। न तो दोनों की प्यार की तारें दैहिक भावनाओं से जुड़ी थीं न आर्थिक और न किसी स्वार्थ से जुड़ी थीं। बस वह दोनों एक दूसरे की ख़ुशी पर समर्पित होने को तत्पर रहते थे। सुधा और अमर की इन ख़ुशियों की उम्र ज़्यादा लम्बी नहीं थीं। जल्दी ही उस प्यार के ऊपर मानो ग्रहण सा गया हो। 

सुधा के साथ बढ़ती हुई नज़दीकियाँ अब उसके सहकर्मियों को खटकने लगी थीं। आशा, वन्दना इन दो ख़ास सहेलियों को छोड़ कर सीनियर लेक्चरार उसके चरित्र पर उँगलियाँ उठाने लगीं। यही नहीं, छात्राओं को अपने अनुशासन की डोर से साधने वाली सुधा की पकड़ ढीली पड़ने लगीं थी। कभी शाम को जब अमर की कार कॉलेज गेट पर रुकती तो हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं में आँखों ही आँखों में इशारे करना तो सुधा बहुत बार देख चुकी थी। छोटी उम्र में ही वार्डन का पद मिलने से बहुत सी लेक्चरार तो पहले ही सुधा से ईर्ष्या करने लगी थीं। अब अविवाहित और युवा सुधा की अमर से दोस्ती सबको आलोचना का नया विषय दे दिया था अब वह सबकी नज़रों में आ गई थी। पूरे स्टाफ़ रूम में उठते-बैठते विशेष सुधा के चर्चे होते थे। अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के चरित्र की आचार संहिता और नियम कुछ ख़ास होते हैं। अक़्सर स्टाफ़रूम में इन्हीं की चर्चा होने लगी थी जैसे स्कूल या कॉलेज में काम करने वाली महिला टीचर्स  और लेक्चरार को कैसे रहना चाहिए। कैसा व्यवहार रखना चाहिए किससे मिलना चाहिए, किससे दूरी बना कर रखनी चाहिए आदि। एक दिन कुछ ऐसी मध्यावकाश में जब सभी स्टाफ़ रूम में बैठे थे ऐसी ही चर्चा चलने लगी। शांत और धैर्यशाली सुधा को क्रोध आ गया। मिसेज शर्मा के किसी कटु तंज़ पर वह आवेश में आ गई और बोली प्रत्येक इंसान का जीवन एक अभेद्य क़िला होता है उस पर आक्रमण करने का किसी को अधिकार नहीं होता। हम सब पढ़ी लिखी महिलाएँ हैं हमें ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। इस पर एक लेक्चरार बोली, “भई हम तो अपने छात्रों को मार्गदर्शन करने वाले हैं उन्हें भटकाने वाले नहीं। हमसे तो कॉलेज में यह अनाचार सहन नहीं होता।”

यह सुन कर सुधा ग़ुस्से से काँपने लगी। आशा उसे हाथ पकड़ कर स्टाफ़ रूम से बाहर ले आई, “बोली सुधा तुम भी इनकी बातों में आ गई?”

सुधा रो पड़ी, बोली, “आशा मैंने कभी किसी का अनादर नहीं किया फिर भी मेरा चरित्र इनके निशाने पर रहता है।”

उस दिन के बात सुधा ने स्टाफ़ रूम में जाना ही छोड़ दिया। अपने फ़्लैट में जाकर रमिया के हाथ का गर्म नाश्ता करने लगी। 

एक महीने बाद का ही मीना के विवाह का महूर्त निकला है। सुधा से अम्मा ने में बिना कोई सलाह-मशवरा किए दिल्ली आने की टिकट बुक करवा डाली और बड़े गर्व से अपनी दूरदर्शिता दिखाते हुए कहने लगीं, “जब शादी दिल्ली होनी है तो यहाँ समय क्यों नष्ट किया जाए? सारी ख़रीददारी भी वहीं दिल्ली से हो जाएगी और सुधा के बँगले से शादी भी होनी ही है।” अम्मा ने सुधा को सूचना मात्र दी। सुधा हैरान हो गई। अब अमर को क्या कहेगी? सप्ताह के अंत में एक बार तो वह उसके घर आता ही है। वह असमंजस में पड़ गई। परिवार वालों से अमर का परिचय क्या कह कर देगी? वह बहुत बड़े धर्मसंकट में पड़ गई। लेक्चर देते समय भी घबरा जाती कभी-कभी लेक्चर के दौरान कुछ भूलने लगती। उसके मन उथल-पुथल मची रहती। उसकी घबराहट देख कर युवा छात्राओं के चेहरों पर भी मुस्कान आ जाती थी क्योंकि पहले सुधा जब लेक्चर देती तो उसे किसी पुस्तक या पेपर साथ ले जाने की आवश्यकता नहीं होती थी। वह एक धाराप्रवाह में इतने प्रभावशाली तरीक़े से पढ़ाती और छात्राएँ मन्त्रमुग्ध हो कर सुनती थीं। सारा विषय उन्हें स्पष्ट हो जाता अब उसके पढ़ाने में वो बात नहीं रह गई थी। उसने आशा को सारी समस्या बताई। यदि अमर को आने से मना करती है तो उसके स्वाभिमान को ठेस लगती है। दूसरी ओर परिवार को तो आने से रोक नहीं सकती थी। सुधा बहुत दुविधा में थी। आख़िर आशा ने ही उसे सुझाया कि अमर को किसी मित्र का सम्बधी बता कर परिचय करवा देना। समय बीतता जा रहा था। एक ओर कुआँ दूसरी ओर खाई थी। आख़िर अम्मा सबको लेकर दिल्ली आ पहुँची आशा के पास गाड़ी थी और वह कुशल चालक भी थी। सुधा उसे साथ लेकर कर स्टेशन से सबको ले आई। 

अम्मा ने आते ही जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। पिता के चेहरे पर भी सुधा के बँगले को देख गर्व मिश्रित ख़ुशी आ गई। सुधा ने रमिया को सबके लिए रहने सोने का प्रबंध करने का आदेश दिया और स्वयं कॉलेज जाने के लिए तैयारी करने लगी। अम्मा बोली, “यह क्या सुधा? आज तो छुट्टी ले लेती। तूने तो आज तक कुछ पूछा तक नहीं कि कैसा लड़का है? किस नौकरी में है? क्या तैयारी करनी है?” 

अब सुधा के मन में जो ज्वालामुखी धधक रहा था वह फट गया। उसने भी अपने स्वभाव के विपरीत जा कर ताना कसते हुए कहा, “अम्मा जब आप सबने मेरी सलाह के बिना सब कुछ तय कर ही लिया तो अब पूछने और बताने को अब क्या रह गया है?” जयदेव जी भी वहीं बैठे थे। माँ बेटी का वाकयुद्ध सुन रहे थे बोले, “सुधा की अम्मा, सुधा सही कह रही है। क़ायदे से विवाह तो पहले सुधा का होना चाहिए था। हमने सुधा से पूछे बिना पहले मीना का रिश्ता तय कर दिया। कम से कम सुधा की विवाह करने की इच्छा तो पूछनी थी।” 

अम्मा भड़क गई, “आप तो शुरू से घर की समस्याओं से दूर भागते रहे हो, मैं ही हूँ जो किसी तरह घर चलाती रही। सुधा का ब्याह कर देते तो घर का गुज़ारा कैसे चलता यह कभी सोचा आपने?”

यह सुन जयदेव अनमने से होकर उठ कर अंदर चले गए। मन में सोचने लगे वास्तव में मैंने बेटियों के कुछ प्रयास किया ही कहाँ वह तो सुधा समझदार और मेधावी थी उसने ही परिवार को सँभाल लिया। सुधा के लिए मन दर्द से भर उठा। मीना और गीता परम उत्साह से पूरे बँगले का मुआयना कर रहीं थीं। रमिया जल्दी-जल्दी से नाश्ता बनाने लगी परन्तु सुधा ऐसे ही निकल गई। रमिया को अम्मा पर ग़ुस्सा आने लगा। रमिया सुधा पर जान छिड़कती थी। उसे अपनी मालकिन पर बड़ा गर्व था। 

कॉलेज में दो दिन का अवकाश था। गीता को जयदेव जी के पास छोड़ सुधा अम्मा और मीना को लेकर विवाह की शॉपिंग के लिए निकल गई। सोना आसमान छू रहा था। अम्मा ने अपने गहनों से कुछ गहने मीना के लिए निकाल दिए बस होने वाले दामाद के लिए अँगूठी ली गई। सुधा ने अपने प्रोविडेंट फण्ड से पैसे निकलवा लिए थे। ऐसे अवसर पर आशा अपनी दोस्ती ख़ूब निबाही। सुधा को बताए बिना कुछ महँगी चीज़ें उपहार में देने के लिए ख़रीद कर रख लीं। उसे पता था कि स्वाभिमानी सुधा कभी इतने महँगे उपहार में नहीं स्वीकार करेगी। पूरे स्टाफ़ की ओर से भी उपहार दिए जाने की योजना थी। पूरे कॉलेज में एक ही बात की चर्चा थी कि सुधा के अविवाहित होते हुए छोटी बहन का विवाह हो रहा है। कुछ लोग इसे सुधा का त्याग और बड़प्पन मान रहे थे तो कुछ अमर को इसका कारण बता रहे थे। यह सब इतनी जल्दी घटित हो रहीं थीं कि सुधा को कुछ सोचने समझने का समय नहीं मिल पा रहा था। अभी तो कॉलेज के सारे क्लर्क और पियोन सुधा की बहन के विवाह में बहुत सहयोग कर रहे थे। सुधा ने अमर को फोन भी किया पर परन्तु उसने उठाया ही नहीं। 

एक दिन वही हुआ जिसका डर था। रविवार का दिन था। अचानक अमर आ गया। सुधा के परिवार को देख कर हैरान-सा गया। सुधा घबराते हुए अम्मा और पिताजी को अमर का परिचय देते हुए बोली यह अमर हैं मेरी सहेली के भाई। दिल्ली में ही रहते हैं। मेरी सहेली के घर आते हैं तब कभी-कभी इधर भी आ जाते हैं। यह सुन कर अमर का दिल बुझ-सा गया। सुधा चाय नाश्ते के लिए रमिया को समझाने गई। वापिस आई तो अम्मा, अमर की सारी जन्म कुंडली खुलवा कर बैठी थीं। कहाँ नौकरी करते हो? कितनी तनख़्वाह है? घर में कौन कौन है? आदि आदि यह सुन कर सुधा को बहुत क्रोध आ रहा था पर ग़ुस्सा दबा कर बात को बदल दिया और बोली, “लीजिये चाय पीजिए।” अमर ने बिना सुधा की ओर देखे चुपचाप पी और और उठ खड़ा हुआ।

सुधा के पिता ने पूछा, “आप विवाह में तो आ रहे हैं न? हमारे लिए तो दिल्ली शहर अनजाना ही है।”

अमर बोला, “देखिए दिल्ली में रहा तो अवश्य आऊँगा।” इतना कह कर अमर बिना सुधा से कुछ कहे चला गया। सुधा कुछ कह ही न पाई। अगले कुछ दिन सुधा के लिए बहुत भाग-दौड़ के रहे। आशा ने हर काम में साथ दिया। शादी से दो दिन पहले सगाई की रस्म थी। सुधा सवेरे से ही भाग-दौड़ कर रही थी। फल, मिठाई मेवे, देने के कपड़े सब क़रीने से लगा दिए। अम्मा पिता जी को तैयार होने को कह स्वयं कुछ लोगों के साथ बँगले की साफ़-सफ़ाई और सजावट का काम को देखने लगी। आशा ने अपनी गाड़ी भी मेहमानों की सुविधा के लिए वहीं खड़ी कर दी। तय समय पर लड़के वाले आ गए। सुधा जल्दी से अंदर आकर अम्मा पिता जी स्वागत के लिये बाहर लिवाने आई तो देखा मीना ने न जाने कब उसकी अलमारी से अमर की दी हुई बनारसी साड़ी निकाल के पहन ली। यह देख सुधा आग बबूला हो गई। वह आवेश में समय और स्थान भूल कर मीना पर ज़ोर से चिल्लाने लगी कि किससे पूछ कर तुमने इस साड़ी को पहनने का साहस किया। मीना सहम गई। गीता और मीना ने पहली बार अपनी सहनशील दीदी का यह भयंकर क्रोधित रूप देखा था। अम्मा भी हैरान होकर कहने लगी सुधा ऐसी क्या अनोखी बात हो गई तुम लोग तो अक़्सर एक दूसरे के कपड़े पहनते रहते हो? इतने में ही लड़के वाले आ गये। सुधा बाहर चली गई। सगाई की रस्म सम्पन्न होने के बाद आगे के कार्यक्रमों की चर्चा और लंच आरम्भ हुआ। मीना की होने वाली सास ने मीना के कामकाज का तरीक़ा परखने के लिए उसके लिए खाना परोस कर लाने को कहा। वैसे तो मीना कार्यकुशल थी परन्तु उस समय कुछ घबरा उठी, खाना परोसते समय हड़बड़ाहट में सब्ज़ी का बाउल उसके हाथ से छूट गया कुछ सब्ज़ी साड़ी पर गिरी तो कुछ ज़मीन पर बिखर गई। मीना घबरा कर रो पड़ी, गीता उसे अंदर ले गई। थोड़ा देर तो वहाँ पर सन्नाटा बना रहा फिर सुधा की अम्मा ने ही बात को सँभालने की कोशिश करते हुए बोली, “हमारी मीना वैसे तो बहुत सुघड़ है पर पता नहीं क्यों घबरा गई?” 

लड़के की माँ ने बीच में ही बात काट कर बोली, “लड़कियों में केवल सुंदरता ही नहीं स्मार्टनेस भी होनी चाहिए। सुघड़ता तो हम देख ही रहे हैं,” कह कर हँस पड़ी। बात बिगड़ते देख लड़के के पिता ने बात पलटते हुए कहा, “जयदेव जी बारात में जो लोग अपनी कारों में आएँगे उनकी कारों की पार्किंग का स्थान अवश्य करवा दीजिये।” 

मेहमानों के चले जाने के बाद अम्मा और सुधा का जम कर झगड़ा हुआ। अम्मा बोली, “सुधा तुमने साड़ी को लेकर ऐसा बवाल मचाया की मीना बुरी तरह घबरा गई। न जाने उस साड़ी में क्या ख़ासियत थी कि तुम ऐसे पागलपन करने लगी।” सुधा ने भी ख़ूब सुनाई बोली, “तुम सबने कौन-से मेरे सपने पूरे किए। अपनी मेहनत से यहाँ तक पहुँची परन्तु वह भी सहन नहीं होता।”

जयदेव जी ने सुधा को बड़ी कठिनाई से शान्त कराते हुए विवाह के बारे में विचार-विमर्श शुरू कर दिया। सुधा और सुधा के कुछ सहकर्मियों की मदद से मीना का विवाह ठीक तरह से सम्पन्न हो गया। विवाह की दौड़-धूप के कारण जयदेव जी को बहुत थकावट हो गई थी। सुधा को उन्हें छोड़ने जाना पड़ा। बहुत समय से कानपुर जाने की न फ़ुर्सत मिली न कोई कारण ही बना। कानपुर जब अपने घर पहुँची तो पुरानी यादें ताज़ा हो गई। उसका घर वही पुराना बहुत सालों से रंगाई-पुताई भी नहीं हुई। सुधा की नज़र साथ वाले शरद की मकान पर पड़ी एक दम चमकता-दमकता। गीता ने बताया दीदी पता है शरद भैया के बेटा हुआ है। सुधा मौन हो कर सोचती रही तक़दीर में तो ख़ुशियाँ आने का रास्ता ही भूल गईं हैं सुधा बहुत दिनों के बाद कानपुर आई थी इसलिए बहुत आसपास के पड़ोसी उससे मिलने आ गए। शरद की बहन भी मिलने आई। वो बोली, “सुधा दीदी आप अच्छे मौक़े पर आई हो। भैया के बेटे का नाम करण भी है। आपको ज़रूर आना है।” सुधा सोच में पड़ गई क्या करे? इतने नज़दीकी और अच्छे पड़ोसी है, फिर शरद भी कभी उसके दिल के कितने नज़दीक था। जाना तो बनता है। वह सुनार की दुकान से बच्चे के लिए छोटी चाँदी की एक कटोरी, चम्मच और एक झुनझुना पैक करा कर ले आई। 

अम्मा को जब पता चला तो बड़बड़ाने लगी, बोली, “सुधा मैंने देख रही हूँ कि तुम आजकल बहुत फ़ुज़ूल खर्ची बहुत करने लगी हो।” सुधा को क्रोध तो बहुत आया पर वह घर का माहौल ख़राब करना नहीं चाहती थी इसलिए चुप्पी साध गई। अगले दिन वह मीना को लेकर शरद के बच्चे के नामकरण संस्कार में चली गई। सुधा से शुक्लाइन बड़े प्यार से मिली और उन्हें पोते और बहू से मिलवाने ले गई। शरद की पत्नी बहुत सुंदर और सौम्य थी। सुधा ने बच्चे को उपहार और आशीर्वाद दिया। शरद भी सुधा से मिलने कमरे में आ गया। दोनों एक दूसरे से नज़रें चुराते हुए औपचारिक बातचीत करते रहे। घर आकर सुधा अनमनी सी हो गई। पिता जी की तबीयत भी सँभल चुकी थी। छुट्टी ख़त्म होने का बहाना बना, वह दिल्ली लौट आई। कॉलेज से आकर अधूरे पड़े कामों को पूरा करने में लग लगी। उसी समय आशा आ गई बोली, “बहुत दिन से बाहर नहीं गए चलो, घूमने चलते हैं। डिनर भी बाहर ही करेंगे।” सुधा, आशा की बात को टाल न सकी। जब दोनों वापिस आईं तो रमिया ने बताया कि मिस साहिब अमर बाबू आए थे। यह सुन कर सुधा उदास हो गई। आशा बोली, “सुधा मैं तो चलूँ अब मेरी ख़ैर नहीं है,” कह मुस्कुराते हुए चली गई। 

सुधा ने रमिया से पूछा, “साहब ने कुछ कहा था?”

रमिया के इंकार से सुधा के दिल में जलते हुए चिराग़ की लौ दप से बुझ गई। कुछ दिन बाद ही कॉलेज में ग्रीष्म अवकाश हो गए। होस्टल भी लगभग ख़ाली हो गया। केवल चार-पाँच लड़कियाँ होस्टल में बाक़ी थीं जो किसी कारणवश जा नहीं रहीं थीं। इस कारण सुधा को भी उनके साथ रुकना पड़ा था। 

अचानक एक शाम सुधा बाहर लॉन में टहल रहीं थी कुछ लड़कियाँ ही ग्रुप बना कर बातें कर रहीं थीं। अमर की कार कॉलेज के गेट पर रुकी। गेट पर खड़े चौकीदार से कुछ पूछा और गाड़ी को लेकर अंदर ही आ गया। सुधा का दिल ज़ोरों से धड़क उठा। वह अन्दर जाने को मुड़ी तो उसकी नज़र ग्रुप में बैठी लड़कियों पर पड़ी सभी उन सब की आँखों में व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट थी। सुधा का दिल बहुत आहत हुआ। अंदर जा कर साड़ी ठीक करने लगी। रमिया कुछ सामान लेने बाज़ार गई हुई थी। अमर के आते ही सुधा भावुक हो उठी और एकाएक अमर के सीने से लग कर रोने लगी और बोली, “अमर तुम मुझे छोड़ कर मत जाया करो। मैं बिल्कुल अकेली पड़ जाती हूँ।”

अमर हैरान सा हो कर सुधा को सहलाने लगा। सुधा न जाने क्या क्या बड़बड़ाती हुई रोती रही। थोड़ी देर में सुधा सामान्य हुई तो बहुत लज्जित-सी हो गई परन्तु अमर, सुधा उसके दिल में छिपे अपने प्रति प्रेम के सागर को लहराते देख चुका था। 

इस घटना के बाद अमर और सुधा के बीच संकोच की दीवार ढह गई। अब सुधा खुल कर अमर से दिल की बातें किया करती, अपने दुख-सुख बाँटती। अमर भी अपने मम्मी और पापा की और ऑफ़िस की बातें बताया करता। छुट्टियों के बात एक बार जब कॉलेज खुला तो सुधा फिर व्यस्त हो गई। सुधा जल्दी से कॉलेज का काम ख़त्म करने की कोशिश करती उसे बड़ी बेचैनी से रविवार की इंतज़ार रहता। अब कॉलेज में खुले आम सुधा और अमर की नजदीकियों के ही चर्चे थे। दरअसल सुधा एक युवा लड़कियों के कॉलेज की वार्डन थी। इसलिए सबकी नज़र उसके चरित्र, मेल-जोल वालों, उसके क्रिया-कलापों पर रहती थी। वह सबकी पैनी नज़रों की गिरफ़्त में रहती थी। दूसरी ओर कॉलेज की अधिकांश सीनियर लेक्चरार वार्डन की कुर्सी लेने की उम्मीद में बैठे थे परन्तु जब अचानक एक युवा नई लेक्चरार को उसकी क़ाबिलियत के बल पर यह पद मिल गया तो वह सब बौखला गईं थीं। अब अमर से दोस्ती के कारण वह छात्राओं और लेक्चरार सबके निशाने पर पूरी तरह से आ चुकी थी। 

कॉलेज में अब आए दिन जाने अनजाने ऐसी ख़बरें मिलती रहतीं जो सीधे-सीधे सुधा चरित्र पर वार करती थीं। कभी-कभी उसे इतना दुख होता जिन छात्राओं की समस्याओं को बड़ी बहन बन कर सुलझाया आज वही लुक छिप कर उसकी गतिविधियों पर नज़र रखती हैं। 

एक बार रविवार का दिन था। अमर भी आया हुआ था। सुधा नीचे कालीन पर बैठी थी। अमर सोफ़े पर उसके नज़दीक ही बैठा था। सुधा ने भावुक होकर अपने सिर को अमर के घुटनों पर रख दिया। अचानक अमर की निगाह कमरे के रोशनदान पर गई तो एक चेहरा अंदर झाँकते हुए भी दिखाई दिया। बाहर कुछ लड़कियों के हँसने की आवाज़ें भी आई। सुधा स्तब्ध रह गई। इन लड़कियों की इतनी हिम्मत बढ़ गई। अमर भी ख़ुद को अपमानित सा अनुभव कर रहा था। वह बिना कुछ कहे उठ कर चला गया अगले दिन पूरे कॉलेज में इसी घटना के ही चर्चे थे। सुधा का मन कॉलेज जाने से कतरा रहा था। कल वाली घटना ने उसे हिला कर रख दिया था फिर उसने सोचा न जाने से व्यर्थ ही शक के घेरे में आ जाऊँगी इसलिए बेमन से तैयार हो कर कॉलेज चली गई। स्टाफ़रूम में न जाकर सीधा क्लास में चली गई। आज उसकी न तो लेक्चर देने में रुचि थी और न छात्राओं के साथ मित्रवत व्यवहार करने की इच्छा थी। अपने लेक्चर पूरे कर होस्टल के ऑफ़िस में पड़ा काम पूरा करने लगी। अचानक उसे प्रिंसिपल साहिबा ने बुला भेजा। सुधा का मन खट्टा हो गया क्या मुँह लेकर उनके सामने जाऊँ? जिन्होंने कभी मेरी क़ाबिलियत के प्रशस्ति पत्र पढ़े थे वो आज वो न जाने किन शब्दों में मुझे लांछित करेगीं? सुधा के पैर मानो जड़ से हो गए थे। जैसे-तैसे सुधा ने को ठेल कर प्रिंसिपल महोदया के ऑफ़िस में प्रवेश किया। वह उन्हें अभिवादन करके खड़ी हो गई। उन्होंने बैठने का संकेत किया और गम्भीर स्वर में बोली, “सुधा, मैं आज तुमसे एक व्यक्तिगत सवाल पूछने जा है रहीं हूँ। उम्मीद करती हूँ अन्यथा नहीं लोगी। तुम्हारे घर जो अमर नाम के युवक आते हैं, क्या वह तुम्हारे कोई रिश्तेदार है जैसे भाई-भतीजे आदि हैं?”

सुधा ने इंकार से सिर हिला दिया तब वह बोली, “तो क्या वो तुम्हारे मंगेतर हैं? तुम्हारा विवाह उनके साथ होने वाला है?”

अब सुधा ने अपनी चुप्पी तोड़ी बोली, “मैडम, वह न मेरे रिश्तेदार हैं और न ही मंगेतर हैं। बस मेरी एक मित्र हैं इसी नाते से मेरे घर आते-जाते हैं।”

प्रिंसिंपल साहिबा बोलीं, “देखो सुधा, मैं तो ख़ुद खुले विचारों की महिला हूँ, पुरुषों और महिलाओं के स्वस्थ और समाज के हित के लिए बने रिश्तों की हिमायती हूँ परन्तु यहाँ बात युवा लड़कियों के कॉलेज की है। वो यहाँ केवल उच्च शिक्षा के लिए ही नहीं आती वरन्‌ उच्च संस्कारों की सीख लेने भी आती हैं जिससे भविष्य में वो एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक बनें। इसके लिए हम सब लेक्चरार का यह कर्तव्य बनता है कि अपने चरित्र को उनके सामने एक आदर्श की तरह रखें। हमें अपने क्रियाकलापों और गतिविधियों को ऐसा बनाना पड़ेगा जो श्रेष्ठतम हो। इसके लिए हमें कभी-कभी अपने व्यक्तिगत इच्छाओं की भी बलि चढ़ानी पड़ सकती है। यही जीवन है। मैंने तुम्हारी बहुत तारीफ़ सुनी थी और उधर कानपुर के कॉलेज से विशेष तौर से तुम्हारा नाम भी भेजा गया था। परन्तु अब तुम्हारे बारे में बहुत-सी बातें और शिकायतें मुझें सुनने को मिल रहीं हैं जो मुझें अच्छी नहीं लग रहीं हैं। सुधा तुम स्वयं मुझे सोच-समझ कर बताओ कि मैं क्या निर्णय लूँ? मैं तुम्हारे बारे में यह सब सुन स्तब्ध रह गई।”

सुधा कुछ समय सर झुका कर वहीं बैठी रही फिर उठ कर बोली, “मैडम, मैं आपसे वायदा करती हूँ आपको मेरे बारे में भविष्य में ऐसी शिकायतों नहीं मिलेगी,” यह कह कर सुधा उठ खड़ी हुई। अपने बँगले में आकर सुधा फूट-फूट कर रो पड़ी। रमिया भी हैरान रह गई। सुधा के साथ रहते-रहते उसे भी सुधा से ममता-सी हो गई थी। अनपढ़ ज़रूर थी पर मन के भावों की अच्छी पहचान थी। सुधा से पहले, उसकी छोटी बहन की शादी कर देना। सुधा का विवाह का इंतज़ाम करना इससे वह अनजान नहीं थी। अमर और सुधा का परस्पर लगाव भी उससे छिपा नहीं था। वह भी सुधा को ख़ुश देखना चाहती थी परन्तु सुधा को सांत्वना देने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे। बस सुधा के क़दमों में सिर झुका कर बैठी रही। 

आशा को भी जब सुधा ने यह सारी बातें बताई तो वह भी क्रोध से आग बबूला हो गई। वह बोली, “वाह, यह ख़ूब रही। गर्ल्स हॉस्टल की वार्डेन होने का मतलब उससे प्रेम करने का मौलिक अधिकार ही छीन लिया जाए उसकी निजी ख़ुशी छीन ली जाए? मैं यह नहीं मानती। यह तो सरासर किसी पर अत्याचार है।” सुधा जानती थी कि आशा उसकी एकमात्र हितेषी है इससे पहले भी स्टाफ़ रूम में जब सुधा पर सीनियर ने जूनियर होकर वार्डेन का पद पा लेने के आरोप लगाए गए थे तब भी वो स्वेच्छा से, कटघरे में खड़ी सुधा की पैरवी करने के लिए वकील बन कर खड़ी हो गई थी। वह, सुधा के बारे में कुछ भी सुनना पसन्द करती थी। सुधा को भय था कि कहीं आशा क्रोध में आज भी प्रिंसिपल के कक्ष में न चली जाए इसलिए उसने ठंडे स्वर में आशा को शांत किया। सुधा बोली, “आशा, सच कहूँ, प्रिंसिपल साहिबा बिल्कुल सही कह रहीं हैं। मैं ही ग़लत हूँ मुझे कुछ सोचना चाहिये था।” अभी दोनों सहेलियों की बातचीत चल ही थी कि कानपुर से सुधा के पिताजी का फोन आ गया। सुधा की कुशलता जान कर दबे स्वर में बोले, “सुधा तेरी बुआ का फोन आया था कि सुधा अमर नाम का लड़का जो उनकी पड़ोसियों का बेटा है, उसे शादी नहीं करने दे रही है। यह क्या मामला है? वो ऐसे क्यों कह रहीं है?” 

सुधा यह सुन लज्जा से ज़मीन पर गड़ गई बोली, “नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है। जान-पहचान वाले हैं कभी-कभी आते रहते हैं।”

यह सुन कर वो बोले, “ठीक है,” फिर वो कुछ झिझक कर बोले बेटी, “फिर तो तू अमर से पूछ अगर वह गीता लिए विवाह करने के लिए तैयार हो जाए तो बहुत अच्छा हो जाए। हमारे सिर का बोझ भी कम हो जाएगा और उन लोगों के मन का शक भी निकल जाएगा।” यह सुन कर सुधा अवाक्‌ रह गई उससे बात करते नहीं बन रही थी। आँखों से झरझर आँसू बहने लगे। फोन बिना कुछ कहे रख दिया। 

आशा वहीं बैठी सब सुन रही थी उसे भी बहुत ग़ुस्सा आ गया बोली, “सुधा यह तुम्हारे परिवार के लोग भी बहुत स्वार्थी हैं। यह तो बड़ी अद्भुत बात है, क्या तुम्हारे प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?”

यह सुन कर सुधा बोली, “क्या कहूँ आशा। शायद वो भी मजबूर हैं पर ऐसे मजबूर भी नहीं कि मेरी ख़ुशी पर ही डाका डाल दें। अमर मेरे जीवन में ख़ुशियाँ ले कर आया था परन्तु लगता है वह ख़ुशी भी मुझसे छिनने वाली है। अब मैं अमर के बिना कैसे जी पाऊँगी?”

अचानक सुधा को याद आया कि प्रिंसिपल साहिबा को जो विश्वास दिला कर आई है उसके चलते अमर को कॉलेज आने से रोकना होगा। उसने फोन करके अमर को एक कॉफ़ी हाउस में बुलाया। जब उसने अमर को सारी बातें कह दी। अमर बोला, “सुधा, सुनो मैं अपने मम्मी-पापा को तो मना ही लूँगा। रही कॉलेज आने की बात, सो भविष्य में मैं तुम्हें मिलने कॉलेज ही नहीं आऊँगा। हम बाहर ही कहीं मिल लेंगे। तुम्हारी प्रिसिपल साहिबा और सारे स्टाफ़ को भी कुछ कहने का कोई अवसर ही नहीं मिलेगा।”

अमर की बातें सुन कर सुधा कुछ सोच में पड़ गई। उसने अमर से कहा कि यह सब बातें तो हमारे आपसी मिलने-जुलने को छिपाने के प्रयास मात्र हैं, यह तो सतही बातें हैं। उन्हें तो हम दोनों के दिलों में धड़कने वाले आपसी प्यार से, लगाव से एतराज़ है। वह तो मुझे तुमसे और तुम्हारे प्यार से दूर जाने के लिए कह रहे हैं। तुम गहराई से समझो। मुझे लड़कियों के कॉलेज मैं लेक्चरार और वार्डेन के पद पर होने का यह जुर्माना अदा करना पड़ेगा। उधर घर वाले चाहते हैं कि सारी उम्र उनकी आज्ञाकारी बेटी बन कर जीवन गुज़ार दूँ जैसे मैं हाड़ मांस की न बनी हूँ, बस एक निर्जीव खिलौना मात्र हूँ। जब चाहे चाबी घुमा कर अपने अनुसार चला लें। मैं यह जानती हूँ कि माता-पिता की साथ देना बड़ी बेटी होने के कारण मेरा कर्तव्य था। परन्तु मेरे अपने जीवन का क्या? मेरे जीवन के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। यह कहते हुए सुधा की आँखें छलक आईं। यह सुन कर अमर क्रोधित हो कर बोला, “सुधा क्या तुमने सोचा है कि मेरा और तुम्हारा सम्बध कच्ची डोरी से बँधा है जो ऐसे झटकों से टूट जाएगा? तुम्हारा और मेरा साथ ज़िन्दगी भर का है। अब यह जो तुम्हारी समस्याएँ हैं वो मेरी भी हैं।”

सुधा और अमर की यह बातचीत लंबी होती चली गई। आख़िर में सुधा ने कहा कि अमर हो सकता है मेरी तक़दीर में विवाह की रेखा ही न हो। मुझे भूल जाओ व्यर्थ ही क़िस्मत से तकरार मत करो और अपने परिवार की ख़ुशियों के लिये विवाह कर लो। यह सुन कर अमर खड़ा हो गया और बोला, “सुधा, ठीक है जो तुम्हें उचित लगता वही करो। जो मुझे सही लगेगा मैं वह कर लूँगा।”

उस दिन के बाद और अमर ने कभी सुधा से कोई संपर्क नहीं किया। यद्यपि उसके मन में अमर के प्यार की चिंगारियाँ हर समय धड़कती रहतीं पर दिल का दर्द दिल में छिपाए अपने काम में लगी रहती। चेहरे पर एक शिकन न आने देती। कुछ समय बाद कॉलेज में, स्टाफ़ में सुधा के चर्चे होने बन्द हो गए। प्रिंसिपल साहिबा की शिकायतें भी दूर हो चुकी थीं। छात्राएँ भी बड़े मनोयोग से सुधा के लेक्चर को सुनती थीं। अम्मा और पिता जी के मन में एक गहरी सन्तुष्टि थी। 

कॉलेज के वार्षिक उत्सव पर सभी किसी न किसी ज़िम्मेदारी को वहन कर रहे थे। सुधा के पास हॉस्टल का अतिरिक्त कार्य भार भी था। उसने अपने दिल की पीड़ा को व्यस्तता के गहरे सागर में डूबा दिया। उसने दिन रात एक करके होस्टल की लड़कियों एक शानदार कार्यक्रम तैयार करवाया। होस्टल की सारी रिपोर्ट भी उसी को पढ़नी थी। अचानक फोन की घण्टी घनघना उठी। सुधा ने फोन उठाया तो दूसरी ओर बुआ ग़ुस्से में बौखलाई हुई बोली, “सुधा, अमर और तुम्हारी क्या बात हुई मुझे नहीं पता अब उसने घर-बार छोड़ कर विदेश जाने का फ़ैसला कर लिया है। उसके मम्मी पापा बहुत परेशान हैं। उन्होंने मुझ से तो स्पष्ट कह दिया कि मेरे कारण ही उन्हें अपने इकलौते पुत्र से विछोह सहन करना पड़ेगा क्योंकि मैंने ही अमर को पहले पहल तुम्हारे पास साड़ियाँ पहुँचाने तेरे पास भेजा था। अब तो केवल तुम ही उसे कल एयरपोर्ट जाकर अमर को लौटने को बाध्य कर सकती हो। वह कल शाम की फ़्लाइट से हमेशा के लिए लन्दन जा रहा है।”

सुधा दुविधा में पड़ गई क्या करे क्या न करे? दो दिन पहले ही छोटी बहन गीता ने फोन किया था कि दिल्ली आकर डाक्टरी की पढ़ाई करना चाहती है। उसने गीता को आश्वस्त भी कर दिया था। सुधा ने अभी कुछ समय पहले ही तो अपने अरमानों की चिता जला कर कॉलेज में सबको सन्तुष्ट किया था। आज वह फिर उसी दोराहे पर आकर खड़ी हो गई। अब फिर एक नई परीक्षा? उसने इस बारे में, आशा से सलाह माँगी। आशा, अपने नाम को चरितार्थ करते हुए बोली, “सुधा, ईश्वर की मर्ज़ी कुछ और संकेत दे रही है कल तू एयरपोर्ट पर जाकर अमर को मना कर लौटा ला। मामला तो अब ठंडा हो चुका है। कुछ समय बाद तुम भी अपना घर बसा लेना।” 
एकाएक सुधा की दबी-कुचली प्यार की भावनाओं में मानो फिर से जान पड़ गई। अमर के ज़िद्दी स्वभाव को याद करके उसे उसके प्रति अनोखा सा लाड़ आ गया। उसने सोच लिया वह अमर को विदेश जाने से रोक लेगी। उसे एयरपोर्ट से ही लौटा लाएगी। उसने आशा को कह कर एयरपोर्ट जाने के एक टैक्सी भी बुक करवा ली थी। सुधा ने उस दिन वही बनारसी साड़ी पहनी जो अमर बनारस से उसके लिए लाया था। अगले दिन विद्यालय का वार्षिक उत्सव था। सभी अपने अपने काम में व्यस्त थे। सुधा भी कार्यक्रम को सफल बनाने में जी तोड़ मेहनत कर रही थी। यही नहीं वह अन्य लेक्चरार के कामों में भी हाथ बँटा रहीं थी जो कभी उसके चरित्र पर कीचड़ उछालती थीं। आज वही सुधा की प्रशंसा करते नहीं थक रहीं थीं। कार्यक्रम शानदार रहा। मुख्यअतिथि कॉलेज के सभी कार्यक्रमों को सराहा विशेष तौर पर सुधा द्वारा करवाये गए कार्यक्रम की प्रशंसा की। अतिथि के साथ सब का जलपान का कार्यक्रम हुआ। प्रिंसिपल साहिबा ने मुख्य अतिथि को सुधा का परिचय करवाते हुए कहा कि यह मेरे कॉलेज की होनहार, युवा लेक्चरार है और हॉस्टल की वॉर्डन भी है। वयोवृद्ध मुख्यातिथि ने जब सुधा की पीठ थपथपा के आशीर्वाद देकर आगे बढ़े तो सुधा के पैरों में मानों बेड़ियाँ पहना गए हों। उसी समय आशा ने कान में आकर कहा, “सुधा जल्दी करो एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी कब से आई हुई है।”

सुधा दौड़ती हुई अपने फ़्लैट में आई, पीछे-पीछे आशा भी आ गई। आशा ने देखा सुधा दोनों हाथों से अपना सिर दबाये पलँग पर बैठी है। आशा ने कहा सुधा, “उठो देर हो रही है।”

सुधा मानो नींद से जागी हो, बोली, “आशा टैक्सी वापिस कर दो मैं एयरपोर्ट नहीं जा रही हूँ। मेरे आसपास ज़िम्मेदारियों का चक्रव्यूह रच दिया गया है जिसे भेदना कठिन है।” यह कह वह चुप हो गई। 

आशा अवाक्‌ उसे देखती रह गई। 

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टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2022/12/01 08:32 AM

कहानी बढ़िया है परन्तु शरद शुक्ला की माता ,शुक् लाइन से मिश्राइन कैसे हो गई ? ह...ह.. ह. ।

श्याम कुमार सोनी 2022/11/17 01:16 PM

बहुत संवेदनशील कहानी परन्तु अंत रुठिवादी विचारों के साथ केवल जवाबदारी निभाओ अपना निर्णय भी जरूरी

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