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बड़ी दीदी

सेठ दीवान चंद की हवेली में आज गहरा मातम छाया था। सेठ जी की बड़ी बेटी आज अपनी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुकी थी। जनाज़े के साथ उन के पुत्र के अतिरिक्त उस शहर की आबादी का एक बड़ा भाग उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल था। मैं, उनकी छोटी बहन, आज बिल्कुल अकेली रह गई। हवेली के एक अँधेरे से कमरे में मैं बैठी आँसू बहा रही थी। मेरे अंदर इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि मैं दीदी की अंतिम यात्रा में शामिल हो पाती। वैसे तो मैं उनकी छोटी बहन थी परन्तु मेरे संवेदनशील मन में, बड़ी दीदी के बचपन से लेकर अब तक दिल और दिमाग़ में दीदी को ऐसे आत्मसात कर लिया था मैं दीदी के दिल के बेहद क़रीब थी। बड़ी दीदी के जीवन में घटी सभी बातें मुझे कंठस्थ सी हो गई थी। किसी फ़िल्म की तरह आज वो मेरे दिल के पर्दे पर दिखाई देने लगीं। मैं उन यादों में डूब गई। 

दीदी और मुझसे 3 साल का अंतर था पर समझदारी में वो मुझसे कई गुना ज़्यादा थीं। दीदी, दीदी जितनी धीर और गम्भीर थी मैं उतनी ही चंचल और और अधीर थी। माँ, के मुँह से सुना था कि दीदी के जन्म के समय दादी, पिता सभी को पुत्र जन्म की उम्मीद थी परन्तु इसके विपरीत बेटी के जन्म लेने पर उनकी आशाओं पर पानी फिर गया। पुत्र के जन्म पर जो धूम-धड़ाका होने वाला था, जो दावतें होने वाली थीं वह सब किसी न किसी बहाने से स्थगित कर दी गईं। माँ को भी, पुत्रवती होने पर जो सम्मान मिलने वाला था उससे उन्हें भी वंचित कर दिया गया। बस, कुछ रीति-रिवाज़ के नाम पर कुछ औपचारिकता निभा दी गई। जीवन ने अपनी सामान्य गति पकड़ ली। अचानक समय ने अपना रंग बदला, दीदी के जन्म के कुछ ही दिनों बाद हमारे पिता जी को उनके कारोबार में अचानक आशातीत मुनाफ़ा हुआ था। बड़े बुज़ुर्ग कहने लगे कि बच्ची के भाग्य से यह सब हुआ है। हवेली एकाएक ख़ुशियों से भर उठी थी। पिता जी से ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। उसी समये पिताजी ने एक बड़ा फ़ार्म हाउस भी ख़रीद लिया और जिसका नाम बड़ी दीदी के नाम पर रखा गया। अब दीदी का लाड़-दुलार भी होने लगा था। 

दीदी के जन्म के तीन साल मेरा जन्म हुआ इस बार तो घर का माहौल बहुत उदास और निराशा से भर गया। माँ को बहुत उलाहने दिए गए। सुखी-सम्पन्न होने के बावजूद भी माँ के खान-पान और देख-रेख का ध्यान नहीं रखा गया था। फलस्वरूप माँ का स्वास्थ्य तेज़ी से गिरने लगा। मैं बचपन से ही लाड़ प्यार से वंचित ही रही। बस, माँ ही हम दोनों बहनों को लाड़-प्यार करती रहती थीं। घर में किसी तरह का कोई अभाव नहीं था परन्तु फिर भी एक तनाव और निराशा का माहौल बना रहता था। ऐसे माहौल में जहाँ दीदी बहुत सहमी हुई और ख़ामोश रहती थी वहाँ मैं नादान और वाचाल थी। 

कुछ साल बाद ही हमारे परिवार में हमारे बहुप्रतीक्षित भाई का जन्म हुआ। अब घर का सारा माहौल ही बदल गया। भाई के आगमन से सब उल्लसित थे। बड़ी दीदी के पैर तो ज़मीन पर ही नहीं पड़ते थे। अब माँ के चेहरे पर भी कमज़ोरी होते हुए भी धीमी सी ख़ुशी झलकने लगी थी। शायद वह जानती थी इस बार उसे घर-परिवार के तानों से मुक्ति मिल जाएगी। माँ की अवस्था देखते हुए दादी जी ने घर का कार्य भार सम्भाल लिया। उनके साथ बड़ी दीदी को छोटी-सी उम्र में ही दादी जी के साथ घर के कार्य में हाथ बँटाने का आदेश दिया गया। हम दोनों जब स्कूल से लौटते, मैं तो बैग पटक कर खेल-कूद और मौज-मस्ती में लग जाती उधर दीदी, दादी जी के साथ घर के काम-काज में व्यस्त हो जाती थी। 

दीदी को पढ़ाई के लिए बहुत कम समय मिलता था। मजबूरी में वो अपनी कॉपी किताबें, किचन में ही ले जाती और किचन की अलमारी में ही रख लेती। जब उन्हें थोड़ा सा समय मिलता, वह वहीं एक चटाई पर पर बैठ बड़े मनोयोग से पढ़ती रहती थी। मैं सारा दिन खेल-कूद या शरारत करने में बिताती थी। शाम को मैं पढ़ाई और होमवर्क करने बहाना कर जल्दी से अपने कमरे में दुबक जाती थी। दीदी के बड़ी और सीधी होने के कारण धीर-धीरे घर की बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ उन्हें सौंप दी गईं। यदि कभी कोई काम मुझे दिया भी जाता तो मैं अपनी लापरवाही से उसे बिगाड़ कर रख देती उसका जिसका उस बिगड़े काम का ख़म्याज़ा भी दीदी को ही भुगतना पड़ता था। 

परीक्षा के नतीजे आने पर बड़ी दीदी हमेशा ही सर्वाधिक अंक प्राप्त करती थी और मैं बस किसी तरह पास भर हो जाया करती थी। दीदी कभी भी अधिक अंक मिलने पर गर्व नहीं करती थी। हमेशा मुझे प्यार से शिक्षा का महत्त्व समझाया करती थी परन्तु मैं उनकी बातों को हमेशा समझे-सोचे बिना अनसुना कर भाग खड़ी होती थी। आज सोचती हूँ कि दीदी छोटी उम्र में ही इतनी परिपक्व और समझदार कैसे थी? शायद घर की बड़ी पहली सन्तान और बेटी होने के कारण वो ऐसी बन गई थी। 

दीदी, के जीवन में अब यौवन के बसन्त का आगमन हो चुका था। उनके भी जीवन में कोमल भावनाओं के नए रंग खिलने लगे थे। उनकी बड़ी सी आँखों में अनोखा सा मद छलकने रहता था। वह हर समय मुस्कुराती और गुनगुनाती रहती थी। मैं भी उम्र में उनसे थोड़ी सी ही कम थी पर इन बातों का मतलब मैं बख़ूबी समझने लगी थी। मैंने महसूस किया कि वो बहुत खोई-खोई सी रहती थी। उनके मन में दिल में कोई समा गया था। जिसकी धुन में वो मग्न रहती थीं। वो कौन था? इसका पता नहीं था। अब मैं दीदी की इस मुस्कान का रहस्य जानने के लिए बेक़रार हो उठी। मैं, परम मूर्खा थी, मैंने बहुत चालाकी से अपनी भोली दीदी की जासूसी करनी शुरू कर दी। एक दिन इस रहस्य से भी पर्दा उठ ही गया। जब मैंने महसूस किया कि हमारे पड़ोस में रहने वाली दीदी की सहेली जो अक़्सर हमारे घर आया–जाया करती थीं उसके आने पर दीदी के चेहरे पर ख़ुशी और चमक आ जाती थी और वो दोनों छत पर या कमरे में धीरे-धीरे बातें करती थीं। बात कुछ समझ में आने लगी दीदी की सहेली गीता के बड़े भाई सुदर्शन ने, दीदी के भोले-भाले दिल को चुरा लिया था। 

यह उस ज़माने की बातें हैं जब किसी लड़के और लड़की का आपस में प्यार करना एक अक्षम्य अपराध माना जाता था, हीर-राँझा, सोनी-महिवाल के क़िस्से, युवक और युवतियाँ छिप-छिप के पढ़ते थे। युवा लड़के–लड़कियाँ का प्रेम पत्र लिखना बहुत बड़ा दुःसाहस माना जाता था। उन दिनों प्यार की परिभाषा ही कुछ अलग हुआ करती थी। आजकल जैसे उन्मुक्त, दैहिक प्यार से कोसों दूर, निर्मल सात्विक, दबा-छिपा प्यार हुआ करता था। जीवन में एक बार जो किसी से प्यार हो जाता तो चाहे उस प्यार को मंज़िल मिले न मिले पर वो प्यार दिल के किसी एक कोने में हमेशा आबाद रहता था। आजकल तो प्यार की परिभाषा ही बदल गई है, प्यार तो बस एक खिलौना मात्र बन कर रह गया है। 

बड़ी दीदी का प्यार बहुत उदात्त पवित्र और सागर की तरह गहरा प्यार था। गीता का भाई सुदर्शन अक़्सर अपनी बहन के हाथों दीदी को सन्देश भेजता और मँगवाता था। दीदी सुदर्शन के प्रेम और मोहजाल में आकंठ डूब चुकी थी। कभी-कभी वो भी गीता के घर जाया करती थी। इस रिश्ते की सबसे ख़ास बात जो यह थी कि सुदर्शन का पूरा परिवार भी बड़ी दीदी को बहुत पसन्द करता था। वह दीदी को अपने घर की बहू बनाने के लिए उत्सुक थे। हमारी बोर्ड की परीक्षाएँ आरम्भ होने वाली थीं दीदी बारहवीं में थी। वह रात को देर तक पढ़ती रहती थी। मेरी भी दसवीं की परीक्षा थी। मैं, बेफ़िक्र हो कर 11 बजे ही, किताब खुली छोड़ नींद के आग़ोश में समा जाया करती थी। कभी-कभी जब मैं गहरी नींद होती थी तो बड़ी दीदी घबरा कर, बहुत ही चिंतित सी मुझे जगाने की असफल कोशिश करती रहती पर मैं टस से मस नहीं होती थी। जब परीक्षा के नतीजे निकले तो वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। दीदी ने पूरे ज़िले में टॉप किया था और मैं बड़ी मुश्किल से दूसरी श्रेणी में पास भर हुई था। घर, गली, पड़ोस में बड़ी दीदी की बहुत वाह-वाही हुई थी। 

शायद बड़ी दीदी के जीवन की यह आख़िरी ख़ुशी थी। उन्होंने बड़े चाव से कॉलेज जाने के सपने भी देखने शुरू कर दिए। अपनी सहेलियों की मदद से कॉलेजों की लिस्ट भी ले आईं थी परन्तु उनका भाग्य उनसे, घर की बड़ी बेटी होने का जुर्माना माँग रहा था। पिता जी बहुत पुराने विचारों के व्यक्ति और अपनी हठ के पक्के भी थे। उन्होंने एक ज़ोरदार गर्जना के साथ दीदी के कॉलेज जाने और आगे पढ़ने पर रोक लगा दी। दीदी की बुद्धिमत्ता, पूरे ज़िले में प्रथम आना किसी भी काम नहीं आया। दीदी, जो बेहद नम्र और शालीन स्वभाव की थीं वो पिता जी की आज्ञा की अवमानना करने का दुःसाहस ही नहीं कर पाई। ज़िद करना उनके स्वभाव में नहीं था। बस घुटनों में मुँह छिपा कर सिसक-सिसक कर रोती रहीं। माँ ने भी पिता जी से बड़ी दीदी की पढ़ाई जारी रखने के लिए बहुत मिन्नत की थी परन्तु पिता जी का एक ही उत्तर था कि बस बहुत पढ़ाई हो चुकी अब, घर गृहस्थी के सारे काम सीखो। पराये घर जाना है। बिना विवाद किए दीदी गहरी चुप्पी साध गईं। उस समय मैं बहुत नासमझ और चंचल सी थी; कभी भी दीदी के दिल के दर्द को न समझा और न साझा करने की कोशिश ही की। बेचारी, दीदी टूटती रहीं बिखरती रहीं और मैं, इस सबसे अनजान रह कर अपने जीवन में आए नए-नए बसन्त का स्वागत करने मस्त रही। 

दीदी को परिवार की बड़ी और पहली सन्तान होने के जुर्म में जुर्माना भरने की दूसरी किस्त भरने का समय भी जल्दी ही का गया। पिता जी को अब उनके हाथ पीले करने की चिंता सताने लगी। शादी के लिए वर खोजने के प्रयास होने लगे थे। इस बार दीदी चुप न रह सकी उन्होंने अम्मा से स्पष्ट कह दिया कि उन्हें शादी नहीं करनी इस लिए वर की तलाश न करें। दीदी की इस घोषणा से घर भर में अच्छा ख़ासा तूफ़ान खड़ा हो गया। अम्मा, दादी और पिताजी सभी सकते में आ गए कि बड़ी दीदी यह कहने की हिमाक़त और हिम्मत कैसे कर सकती थीं? उस बेचारी पर तो घर की बड़ी बेटी होने का ठप्पा लगा हुआ था। वह तो जीवन के प्रत्येक फ़ैसले में अपने परिवार की मर्यादा से बँधी थी। उनकी कोई भी मनमानी उनके छोटे भाई और बहन के ऊपर ग़लत असर डाल सकती है। दीदी ने बड़ी हिम्मत करके किसी तरह चोरी-छिपी से सुदर्शन की बहन को सारी बात बता दी और इस समस्या से अवगत भी करवा दिया। 

उन दिनों, यह रिवाज़ हुआ करता था कि लड़की वालों को ही लड़के का रिश्ता माँगने की पहल करनी पड़ती थी। लेकिन इसके बावजूद भी सुदर्शन ने किसी भी तरह प्रयास कर के अपने माता-पिता को, दीदी का रिश्ता माँगने के लिए राज़ी करवा लिया परन्तु यहाँ पर भी जाति-बिरादरी की एक ऊँची दीवार खड़ी कर दी गई। हमारे परिवार के सभी बड़े बुज़ुर्गों ने सुदर्शन की जाति को, अपनी जाति से हीन बताते हुए उनके द्वारा भेजे गए शादी के रिश्ते के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस तरह अपमानित हो कर सुदर्शन के परिवार ने भी अब हमारे परिवार और दीदी से ख़फ़ा हो कर मुँह फेर लिया। दीदी रोती और बिलखती रहीं परन्तु किसी को भी दया न आई इसके विपरीत इस बात को ले कर उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया कि उन्होंने प्यार मोहब्बत करने का दुःसाहस किया तो किया कैसे? वो तो घर की बड़ी बेटी और परिवार की पहली संतान थी। उन्हें बहुत खरी-खोटी भी सुनाई गई। परिवार और बिरादरी की एक दलील थी कि यदि परिवार की बड़ी बेटी का विवाह अपने से कमतर जाति में हो गया तो उनके छोटे भाई–बहन को भी अच्छे रिश्ते नहीं मिल पाएँगे। इसलिए दीदी बलि का बकरा बन गई। 

पुराने, बासे, सड़े-गले इन रिवाज़ों के चलते एक खिलती कली, खिलने से पहले ही मुरझा गई। बाग़बान को इसकी ख़बर तक नहीं हुई। अब, बड़ी खोज-बीन कर दीदी के लिए अपने परिवार और जाति के मुक़ाबले का वर खोज कर, उनका बड़ी शान-शौकत से विवाह कर दिया गया। विवाह की धूमधाम से सारा परिवार बहुत ख़ुश था; सिवाए दीदी के। बेबस दीदी टूटे मन से अपने प्यार की चिता जला कर, एक, अनजान के साथ रोती और बिलखती ससुराल चली गई। यह बात आज भी मुझे यह सोचने पर मजबूर करती है कि पिता–माता अपनी लाड़ली बेटियों को अपने हृदय का टुकड़ा बना कर पालते हैं परन्तु उन्हीं बेटियों को, खोखले, जर्जर रीति-रिवाज़ों के चलते सूली पर क्यों चढ़ा देते हैं? कहाँ जाती है वो ममता, वो प्यार? 

दीदी के ससुराल में एक बड़ी पुश्तैनी हवेली, तीन देवर, ससुर, क्रूरा सास के अलावा कुछ भी नहीं था। वो कर्ज़े में दबे थे। उनके पति एक छोटा सा व्यवसाय करते थे जिसमें लाभ कम और घाटा अधिक हो रहा था। यही नहीं पति, उग्र स्वभाव के बेहद शक्की क़िस्म के व्यक्ति थे। उन्होंने बाहर की झूठी शान-शौकत बनाई हुई थी परन्तु भीतर अभाव ही अभाव थे। वो दीदी के साथ आए दिन दुर्व्यवहार करते थे और मार-पीट पर उतर आते थे। कभी-कभी दीदी जब मायके आती तो अक़्सर उनकी आँखें रोने से सूजी हुई होतीं, शरीर पर चोट के निशान भी दिखते जिन्हें छिपाने के लिए वो मेकअप से असफल कोशिश करती नज़र आती थीं। माता-पिता जी ने अपनी इस हठधर्मिता के कारण अपनी लाड़ली बड़ी दीदी, को जाति-बिरादरी, रस्मों रिवाज़ों के जाल में फँस कर, कसाइयों के हाथों में सौंप दिया था। दीदी, जब भी कभी मायके आती तब पिता जी, उन्हें बहुत सारा सामान और एक मोटी रक़म देकर विदा करते थे। वो सोचते थे कि रुपये पाकर उनके समधी ख़ुश हो जाएँगे और दीदी को ससुराल में मिलने वाली यातनाओं से मुक्ति मिल जाएगी। पिता जी के यह उपाय भी निष्फल ही रहे। दीदी अपने आत्म स्वाभिमान को चूर-चूर करती हुई, एक याचक की तरह वो सामान और रुपए लेकर, नीची निगाहें किए, आँखें छलकाती भारी मन से विदा हो जाया करती थी। उनके ससुराल वाले उसे अपना मौलिक अधिकार समझ कर दीदी से सब ले लेते परन्तु व्यवहार में नरमी लाना भूल जाते। उनका व्यवहार यथावत ही रहता। दीदी का जीवन इसी तरह यातनाओं के साये में बीतता जा रहा था। दीदी अब एक बेटे की माँ भी बन चुकी थीं। उन्हें, अपने साथ अपने बच्चे के ख़र्चे के लिए भी मायके वालों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। आए दिन के झगड़ों और कलह का असर अब बच्चे पर भी पड़ने लगा था इसलिए दीदी एक दिन ससुराल छोड़ कर मायके की दहलीज़ पर आ खड़ी हुई। अब अपमान को और अधिक सहन करना उनके बस से बाहर हो गया था। मजबूर हो कर ही उन्होंने यह क़दम उठाया। उस समय वह उन सभी ऐसी लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती दिख रहीं थीं जिनके माता-पिता, जाति-बिरादरी के दबाव में आकर उनके निर्मल, सात्विक प्रेम को, परिवार पर लगने वाला एक कलंक मान कर समाज, जाति-बिरादरी में अपना रुतबा बनाए रखने के लिए जैसे-तैसे, उनके विवाह कुपात्रों से करवा कर अपनी इज़्ज़त तो बचा लेते हैं परन्तु अपने बच्चों की ख़ुशियों पर ग्रहण लगा देते हैं। वो अपनी बेटियों की योग्यता और प्रतिभा के पंखों को कतर कर समाज में अपनी विजय पताका, सम्मान, जाति और बिरादरी वालों की वाह-वाही तो लूट कर अपनी बेटियों के जीवन में ज़हर घोल देते हैं। पहली बार दीदी ने अपने जीवन में स्वयं के लिए एक फ़ैसला लिया था। दीदी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अपने और अपने बेटे के गुज़र-बसर के लिए किसी पर बोझ नहीं बनेंगी। छोटी-मोटी ट्यूशन, सिलाई-कढ़ाई का काम कर लेंगी परन्तु ससुराल वापिस नहीं जाएँगी। उनकी दुःखद मनोस्थिति देख कर उस समय तो घर के सभी लोगों ने चुप्पी साध ली पर कुछ दिनीं बाद ही सबने उन्हें अपने ससुराल वापिस लौटने के लिए दबाव बनाना आंरभ कर दिया। पहले वही पुराने हथकण्डे अपनाए जाने लगे कि औरत की जहाँ डोली जाती है वहीं से अर्थी भी उठती है वरना आत्मा को शान्ति नहीं मिलती। परन्तु बड़ी दीदी ने यह बातें सिरे से ख़ारिज कर दीं और वापिस न जाने की ज़िद पकड़ ली। तब उनके सामने दूसरे जाल फैलाए गए कि उनका यह फ़ैसला छोटे बहन-भाई के भविष्य को बर्बाद कर देगा। उन्हें अच्छे रिश्ते नहीं मिलेंगे। तुम उनकी शादियों की राह में काँटे बिछा रही हो। मुझे वो दिन आज भी याद आते हैं कि दीदी के मायके लौट आने की वजह से हम दोनों भाई-बहन की शादियों में रुकावट आने की आशंका से हमने भी उनसे दूरियाँ बना लीं थीं। दीदी के दर्द को हम दोनों भी समझ न पाए। आज लगता है हम कितने स्वार्थी थे। घर में सबने दीदी के विरुद्ध असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया था। उन्हें सारे परिवार में होने वाली अशान्ति का ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा था। अब कोई चारा न देख बेबस और लाचार दीदी फिर अपने बेटे को लेकर चली गईं। 

आज जब मुझे उन दिनों की याद आती है तब दिल में एक गहरी टीस सी उठती है क्यों माता-पिता, विवाह के बाद अपनी जाई उन बेटियों को इतना बेगाना सा कर देते हैं कि मायके पर उनका कोई अधिकार ही नहीं रहता। उनके साथ, मेहमानों सा व्यवहार किया जाता है। विवाह के बाद उन्हें अपनी कोई पुरानी पसंदीदा चीज़ अपने साथ ले जाने के लिए भी मायके से अनुमति लेनी पड़ती है।

समय का पहिया अनवरत घूमता रहा। पिताजी ने भाई को पढ़ाई के लिए विदेश भेजने का निर्णय लिया। उन दिनों बड़े अमीर और रसूख़दार लोगों के बच्चों का उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने का प्रचलन सा चल रहा था। भाई को भी पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजा गया। अब पूरी बिरादरी में इस बात की चर्चा हो रही थी कि हमारे ख़ानदान का लड़का सात समंदर पार उच्च शिक्षा के लिए जा रहा है। हम सब फूले न समा रहे थे। विदेश में पढ़ाई करवाने के लिए पिताजी की कमाई की आधी से अधिक रक़म भाई की महँगी पढ़ाई और वहाँ के ख़र्च में व्यय होने लगी। भाई 3 साल के लिए विदेश गया था परन्तु सालों बीत गये भाई की पढ़ाई ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसके वापस आने का कोई अता-पता ही नहीं चल रहा था। पिता जी का फ़ार्म हाउस भी भाई की पढ़ाई के नाम पर भेंट चढ़ गया। हमारी बुज़ुर्ग दादी भी पोते की राह देखते-देखते ईश्वर को प्यारी हो गईं। 

घर के हालात बिगड़ते देख पिताजी ने जल्दी ही मुझे विवाह के बंधन में बाँधने का निर्णय लिया। अब की बार उन्होंने न जाति का राग अलापा और ना ही बिरादरी का रोना रोया। बस लड़के की योग्यता देख कर मेरा विवाह तय कर दिया। भाग्य से मेरे पति बहुत विद्वान और सुलझे हुए व्यक्ति निकले। उन दिनों, मेरे पति आसाम के एक दूरस्थ शहर में कार्यरत थे। मैं, सब कुछ भूल-भाल कर अपने ससुराल में रच-बस गई। 

एक दिन, अचानक मुझे पिता जी का आँसुओं में डूबा एक ख़त मिला। जिसे पढ़ कर मैं भी विचलित हो उठी। ख़त को पढ़ कर यह मालूम चला कि जिस पुत्र के लिए उन्होंने अपने जीवन की सारी आशाएँ जोड़ रखी थीं, अपनी सारी पूँजी उसकी शिक्षा पर लगा दी थी; वही पुत्र आज निर्मोही बन कर उन्हें भूल चुका था। उसने अमरीका, में ही नौकरी कर किसी विदेशी लड़की से विवाह कर लिया था। अब उसका भारत में लौटने का कोई इरादा नहीं था। उसने पिता जी को साफ़ शब्दों में अपना फ़ैसला लिख दिया कि अभी उसका भारत आना सम्भव नहीं है और उसने पिता जी को आश्वस्त किया कि कुछ समय बाद वो उन सबको भी अमेरिका बुला लेगा। समय तो अपनी गति से चलता रहा पर भाई ने किसी को बुलाना तो दूर परिवार वालों को वहाँ घूमने का न्यौता तक नहीं भेजा। अब वह पूरी तरह विदेशी रंग में रँग कर अपने परिवार को भूल चुका था। 

पिता जी का ख़त पढ़ कर मैं बहुत गहरे अपराधबोध में डूब गई। भाई को तो विदेश की चमक-दमक ने अपने मोहजाल में बाँध लिया परन्तु मैं तो भारत में रहते हुए भी उनकी पीड़ा और दर्द से अब तक अछूती ही रही। अब मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और पति को सारे हालात बता कर अकेली ही मायके जा पहुँची। वहाँ पहुँच, उनकी मजबूरियाँ देख मेरा मन हाहाकार कर उठा। माता पिता के दुर्दिनों के बारे में जान कर बड़ी दीदी, पहले से ही वहाँ आई हुई थीं। घर के हालात देख, हम दोनों बहनें स्तब्ध रह गईं और व्यथित हो उठीं। मैं समर्थ होते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही थी; वहीं उधर दीदी, बेबस होते हुए भी माँ और पिता पर आए संकटों के सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं। उनके अंदर ग़ज़ब की हिम्मत थी। मेरा मन उन दिनों को याद कर के एक गहरे पश्चताप में डूब जाता है। जब कभी दीदी ससुराल की यातनाओं और प्रताड़नाओं से दुखी हो कर मायके में शरण लेने आती थीं तब पूरा परिवार नाख़ुश हो कर उन्हें जबरन ससुराल वापिस जाने को बाध्य किया जाता था। हमारे समाज का यह निराला दस्तूर है कि बेटियाँ, परिवारों में पलती हैं पराया धन बन कर और विवाह के बाद ससुराल में जा कर रहती है पराये घर से आईं बन कर। समाज उन्हें स्प्ष्ट करे कि उनका अपना घर कौन सा होता है? आज वही दीदी, अपने माता-पिता को संकट में घिरा देख उनके दुखों में सहभागिता करने, उनका साथ देने सबसे पहले आ खड़ी हुईं थीं। वह, स्वयं अपने जीवन में दुख और तकलीफ़ों से जूझते अनवरत तनावों से घिरी सूख कर काँटा हो चुकी थीं परन्तु उन्होंने अपने माता-पिता को संकट की घिरा देख अपने दुख अपने सीने में ही दबा लिए और उनकें साथ कंधे से कंधा मिला, घर पर आई परेशानियों से लड़ने की हर सम्भव कोशिश कर रहीं थी।

देखते-देखते पिता जी की बाज़ार में बनी हुई साख धूमिल पड़ने लगी थी। भाई के विदेश में ही बस जाने की ख़बर आग की तरह शहर में फैल गई। व्यवसाय को बहुत बड़ा झटका लगा। व्यवसाय मन्दा पड़ने लगा था। बढ़ती उम्र के कारण पिताजी के शरीर में न अब ताक़त ही नहीं बची थी और न ही मन में हौसला बचा था। एक समय, वह व्यवसाय जगत के बड़े महारथी माने जाते थे परन्तु अब भाग्य और उम्र से हार कर अपने ही व्यवसाय को, नौकरों, मुंशी और मुनीमों के हाथों लुटते देख लाचार से खड़े थे। नाती भी अभी किशोर अवस्था में था। उससे भी कोई उम्मीद रखना व्यर्थ था। धीरे-धीरे माँ के ज़ेवर भी एक-एक करके बिकने लगे थे। मैं अपनी व्यक्तिगत ख़र्च से बचा कर थोड़ी सी धनराशि लाई थी। उससे मैं उनकी मदद करना चाहती थी पर मैं जानती थी कि इस बात का पिता जी को पता चलेगा तो उनके स्वाभिमान को गहरी ठेस लगेगी। यह बात उन्हें बहुत नागवार गुज़रेगी कि ससुराल से आई उनकी बेटी, जिसका वह कन्यादान कर चुके थे वो उनके घर ख़र्च को चलाने में मदद कर रही है। यह बात मालूम होने पर वह जीते-जी ही मर जाते। माँ और पिता जी के इलाज के लिए दीदी दिन रात डॉक्टरों के चक्कर काटती रहती थी। पिता के दिल को बहलाने के हम दोनों बहुत प्रयास करतीं परन्तु सब प्रयास व्यर्थ हो जाते। भाई ने उनके दिल को ऐसा ज़ख़्म दिया था जो अब नासूर बन गया था। मैं अक़्सर सोचती रहती कि हमारे समाज में सालों से प्रथा चलती आ रही है कि किसी परिवार में यदि पुत्र जन्म होता है तो पूरे घर में ख़ुशियों की बहार सी छा जाती है मानो पुत्र उनके लिए स्वर्ग की सीढ़ी बना कर या ख़ुशियों के दस्तावेज लेकर आया हो। वहीं दूसरी ओर बेटी के जन्म लेने पर ख़ुशियों पर ग्रहण सा लग जाता है दिखावे की ख़ुशी के मुखौटे के नीचे से छिपी हुई निराशा स्पष्ट दिख ही जाती है दीदी या दीदी सरीखी बेटियों के मन में कोई झाँक कर तो देखे कि उनके दिल में अपने जन्मदाताओं के लिए कितना प्यार और हमदर्दी के सागर छिपे रहते हैं जो कोई महसूस नहीं कर पाता, जान नहीं पाता। बेटियाँ चाहे जीवन भर माता-पिता के लिए चिंतित रहें परन्तु वसीयतों में पुत्रों को ही मेवा मिलता है। 

घर की सारी ज़िम्मेदारी अब बड़ी दीदी के कमज़ोर कंधों पर आ पड़ी थी। दीदी, कसीदाकारी और बुनाई में बहुत निपुण थी। उन्होंने अपने उसी कौशल के चैक को भुनाने का निश्चय किया। उनका उत्साह और लगन देख मेरा मन उद्वेलित हो उठा मेरी बारहवीं पास दीदी अपने माता-पिता के लिए कितनी चिंतित थी और दूसरी और मैं उच्च शिक्षित, खुले विचारों वाला पति सम्भ्रान्त परिवार से होते हुए भी मूक दर्शक बनी अपने माता पिता की बर्दादी का तमाशा देख रही थी। मैंने अपनी व्यक्तिगत धनराशि से दीदी को एक सिलाई मशीन और एक स्वेटर बुनने की मशीन ख़रीद कर दे दी। यह देख दीदी की योजनाओं और आशाओं को जैसे पंख मिल गए। घर में पड़े कुछ कपड़े और ऊन से उन्होंने कुछ विभिन्न प्रकार के सैम्पल बना डाले। मैंने उन सैम्पल्स को कुछ थोक विक्रेताओं को दिखाया। सभी ने उन्हें बहुत पसंद किया। अब दीदी को बहुत से ऑर्डर मिलने शुरू हो गए। दीदी फूली न समा रहीं थी। वह दुगुनी मेहनत से इस काम को आगे बढ़ाने लगीं। धीरे-धीरे काम चल निकला। अब दीदी ने पड़ोस में रहने वाली कुछ ज़रूरतमन्द महिलाओं को भी अपने साथ शामिल कर लिया। अच्छी आमदनी होने लगी। 

मैंने भी अपने ससुराल जाकर पति से मन्त्रणा कर एक कॉलेज में नौकरी कर ली। मेरे पति मुझे पूरा सहयोग देते थे। साल में दो या तीन बार मायके ज़रूर जाया करती। बड़ी दीदी का उत्साह देख कर मेरा मन भावविभोर हो उठता। दीदी से प्रेरणा पाकर मैं भी माँ पिताजी की दवाइयाँ लेकर रख जाती, उनके स्वास्थ्य सम्बधी सारे चैक अप करवा कर जाती। एक बार पिता जी की अल्मारी ठीक करते हुए मुझे बहुत पहले के कुछ पत्र हाथ लग गए। मैं हैरान थी कि उन पत्रों के लिफ़ाफ़े खोले तक नहीं गए थे। मैंने दीदी को भी वो पत्र दिखाए; दीदी ठंडे स्वर में बोली मैं जानती हूँ। एक बार मैंने पिताजी को पत्र खोल कर पढ़ने का आग्रह भी किया था परन्तु उन्होंने मुझे वह पत्र खोलने या पढ़ने से कड़ाई से मना कर दिया था। मैं विवश थी पिता जी के दिल को और दुखाना नहीं चाहती थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि जिस पुत्र ने, हमें जीते जी मृत समझ लिया था उसके यह पत्र हमारे लिए रद्दी काग़ज़ों के टुकड़ों से अधिक अहमियत नहीं रखते हैं। 

समय बीतता गया। अच्छे खान-पान और देख-भाल से हमारे माता-पिता स्वस्थ और ख़ुशगवार जीवन गुज़ार के इस दुनिया से विदा हो गए। हम दोनों बहनें अपने माता-पिता को सूर्य जैसी तेज़ और रोशनी तो नहीं दे पाए परन्तु उनके जीवन को हम चन्द्रमा सी शीतलता और चाँदनी से ज़रूर प्रकाशित कर पाए। इसका पूरा श्रेय मैं अपनी बड़ी दीदी को देती हूँ। वो समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं जो बेटियों को परिवार का एक बोझ समझता है और बेटों को ईश्वर का दिया एक सम्मान या उपहार। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2022/01/07 11:07 AM

नीलू जी आपने इस कहानी के माध्यम से अभिभावक पुत्र पुत्री सभी के लिए अत्यंत विचार हैं विंदू दिया है हालांकि यह समस्या सनातन है परंतु संभव है विचार वाहन होने से यह समस्या सुलझ जाए और सभी को मैं कर्तव्य परायणता का.बैध हो।

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