बंद और खुली आँखें
काव्य साहित्य | कविता तरुण भटनागर31 May 2008
जब बंद होती हैं, आँखें,
तब एक दीवार,
लाल, काली सी।
जब खुली होती है आँख,
तब एक खिड़की,
मनचाही सी।
जब बंद होती है, आँख,
मैं चाहकर,
मुँह फेर लेता हूँ।
जब खुली होती है आँख,
तब,
मेरी देह किसी और की देह पर होती है।
जब बंद होती है, आँख,
कुछ लोग मुझे मनाते हैं।
जब खुली होती है, आँख,
तब,
पागलों की तरह,
लोगों से बतियाता हूँ।
जब बंद होती है आँख,
आँसू टपककर अलग नहीं हो पाते हैं,
जबकि उनको टपकाने को ही,
मैं मूँदता हूँ आँखें।
जब खुली होती है आँख,
स्याही सोख्त सी होती है आँख।
जब बंद होती है आँख,
तब रौशनी डराती नहीं है।
जब खुली होती है आँख,
तब अँधेरा बहुत डराता है।
जब बंद होती है आँख,
मैं छूकर महसूस करता हूँ।
जब खुली होती है आँख,
देखना कमज़ोर कर देता है,
छूकर महसूस करने को।
मैं,
आँख बंद कर अंधा नहीं हो सकता।
आँखें बंद कर भी दिखते हैं,
दृश्य और गुज़रते क्षण।
मैं,
आँखें खोलकर जाग नहीं पाता।
क्योंकि जागने का,
आँखें खोलने से कोई मतलब नहीं।
मैं,
बंद आँखों से,
सपने नहीं, संसार देखता हूँ।
वह संसार,
जिसे मेरी खुली आँखों ने बनाया है,
भीतर की कालिख पर।
कितना अंतर है,
आँखें बंद कर,
और आँखें खोलकर उड़ने में।
एक सीमा लाँघ गई ख़ुशी,
तो एक मौत।
कितना अंतर है,
आँखें बंद कर,
और खोलकर प्यार करने में।
एक अकारण,
तो एक देखकर।
कितना अंतर है,
बंद और खुली आँखों के शब्दों में।
एक जिसे लिखा नहीं जा सकता,
तो एक भाषा में गढ़ा,
सुधारकर लिखा।
कितना अंतर है,
बंद और खुली आँखों से दिखते आदमी में।
एक का ख़याल नहीं,
तो एक बार-बार चेताता है।
मैं आज तक,
बंद और खुली आँखों में से,
किसी एक को चुन नहीं पाया हूँ।
मेरी पलकें,
मेरे मन पर चिपक गई थीं,
और उसने,
मेरी आँखों को बेमानी बना दिया था।
आज आँख,
देखने को,
या अंधेरों को नहीं है
वह सिर्फ़,
भीतर के स्पंद को है।
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