भूख
काव्य साहित्य | कविता वर्षा भारतीया1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
भूख से तिलमिलाते,
फटी पुरानी झोली फैलाते,
भूख से बौखलाया इंसान,
क़िस्मत को देता है दोष।
बच्चे, नन्ही-नन्ही मुट्ठियाँ खोलकर
हाथों को फैलाते हैं,
नन्हे नन्हे पाँवो से दौड़ते,
गिरते और सँभलते हैं।
रोटी के चंद टुकड़ों के ख़ातिर,
कुछ भी अपराध करवा देती है भूख,
भूख की आग बुझाने को कचड़े में पड़े,
जूठन भी उठवा देती है भूख।
माँ होती जो बच्चों के ख़ातिर
सब कुछ सहकर भी ज़िन्दा रह जाती,
फिर भी, स्त्री के आँखों में शर्म
कहाँ तक टिक पाती है . . .?
कभी-कभी आत्मा और
शरीर को जलाती हैं भूख,
आख़िर, फिर भी कहाँ तक
बुझ पाती है भूख . . .?
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