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चहचाहटें 

मैदान में फुदकते बच्चे, 
रोती, चीखती, लड़ती और हँसती आवाज़ें, 
पेड़ों के पत्तों के साथ उनके नन्हे पैरों की चहल पहल, 
चहचहाती, शरारती बातों की उथल पुथल, 
बिटिया बैठी है दूध के गिलास के साथ, 
परीक्षा है इसलिए नहीं जाना है उन आवाज़ों के पास, 
दूध की मूँछे, चेहरे पर बेबसी और ग़ुस्से की तिलमिलाहट, 
एक टक घूरती आँखें और हाथ में पेंसिल, 
कभी रबर गिरता तो कभी पेंसिल, 
जो नहीं गिरते वो हैं कुछ शब्द कॉपी पर, 
एक ही पन्ना जाने कब से खुला है, 
नज़दीक रखी किताब के शब्द हैं ज़ेहन से कोसों दूर, 
वो दूर से आती खिलखिलाती आवाज़ें हैं बिलकुल क़रीब, 
पर ये क्या फ़ोन की घंटी बजते ही
मम्मी हो गयीं कुछ व्यस्त सी, 
फट से वो निकल भागी उस चहलक़दमी के बीच, 
कॉपी सरक गयी मेज़ के दुसरे छोर, 
पेंसिल और रबर उछल जा पहुँचे —
फ्रिज के पीछे छिपे जालों की ओर, 
सरपट हवा में तैरते हुए लिए बिखरे बाल, 
फ़्रॉक की बेल्ट खुली हुई, 
और चहरे पे एक गुपचुप और आज़ाद मुस्कान, 
पैरों में उलटी चप्पल और धमकते क़दम, 
हो गयी शामिल उन चहचाहटों में उसकी भी चहक। 
-अनुपमा प्रकाश श्रीवास्तव

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