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दावा और हक़ीक़त: पूजते हैं देवी, मारते हैं बेटियाँ

यूँ तो आज हर कोई बेटा-बेटी को बराबर का दर्जा देने की बात कहता है, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। यह सब बातें तब खोखली साबित होती हैं, जब किसी के घर में बेटी का जन्म होता है। बेटी का जन्म होने पर आज भी पारिवारिक सदस्यों के चेहरे लटक जाते हैं। बेटी का जन्म होने के बाद घर के सदस्यों के चेहरे जिस तरह लटक जाते हैं, उससे साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि बेटा-बेटी को बराबर समझने के दावे केवल लोगों के बीच डींग हाँकने के लिए ही होते हैं। “बेटा-बेटी एक समान” के नारों के बावजूद लोगों की सोच अभी बदली नहीं है। आँखें खोलने से पहले ही नवजात बच्चियों को उपेक्षा सहनी पड़ती है। जैसे-जैसे बेटी बड़ी होती है, उसको यह समझाया जाता है कि यह घर तुम्हारा नहीं है, तुम्हें पराये घर में जाना है। इस तरह की बातें लड़कियों में हीन भावना पैदा करती हैं और वह उपेक्षा को अपना नसीब समझ लेती हैं। वह अपने भाई के मुक़ाबले कम मिलने वाली सुविधाएँ और मान-सम्मान को अपना नसीब समझ कर सहन करने लगती हैं। पता नहीं क्यों, हमारा समाज लड़कियों को बोझ समझता है। हर माँ-बाप का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी बेटी को किसी भी मायने में कम न समझे और उसका लालन-पालन उसी तरह करें जैसा कि वह अपने बेटे का करते हैं। 

प्राचीन काल से ही लोग बेटियों को बोझ समझते आए हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि बेटियों को गर्भ में मारने में समाज का वह तबक़ा सबसे आगे है जो अपने को शिक्षित कहता है। ग़रीब और अनपढ़ लोग भ्रूण हत्या के पाप में उतनें लिप्त नहीं रहते हैं जितने कि पढ़े-लिखे लोग। इसके अलावा कन्या भ्रूण हत्या के मामले में महिलाओं की सहमति भी दुखद है। कहते हैं कि पिता बनना एक बड़ी बात है और अधिकतर पिताओं का मन तब तक राज़ी ही नहीं होता, जब तक पुत्र प्राप्त नहीं हो जाता। पुत्रियों के पिता का मन मुर्झाया सा रहता है। ऐसा नहीं कि सारे पिता ऐसे हों, लेकिन ऐसे पिता लाखों में एकाध ही होते हैं जो अपनी पुत्रियों से भी उतने ही संतुष्ट रहते हैं जितना पुत्रों से। एक तरफ़ मर्द केवल पुत्र का पिता बनने में गर्व महसूस करते हैं और दूसरी तरफ़ महिलाएँ इस मामले में अपने पति का भरपूर साथ देती हैं। चाहे दिल से दें या फिर किसी मजबूरी में। 

श्री गुरु नानक देव जी ने पाँच सदियों पहले अपने शब्द की शक्ति से लोगों को औरत की हस्ती के बारे में जागरूक कर दिया था, लेकिन मर्द प्रधानगी का जुनून आज भी लड़कियों को कोख में दफ़न करवा रहा है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि कन्या भ्रूण हत्या से बढ़कर कोई पाप नहीं है। यह एक ग़ैर-क़ानूनी सिलसिला है जो तेज़ी से बढ़ रहा है। भारत में प्रतिवर्ष 70 लाख से ज़्यादा गर्भपात अवैध रूप से हो रहे हैं। एक करोड़ बीस लाख जन्म लेने वाली कन्याओं में से 30 लाख कन्याओं को जन्म लेने से पहले ही मौत के मुँह में धकेल दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि मादा भ्रूण हत्या के मामले में पंजाब अव्वल है। प्रदेश में लड़कियों की जन्म दर घटती जा रही है। यदि यही स्थिति रही, तो सन् 2011 तक देश में दो करोड़ 30 लाख लड़कों को विवाह के लिए लड़कियाँ नहीं मिलेंगी। 

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आज के विज्ञान के इस युग में बेशक साइंस ने काफ़ी तरक़्क़ी कर ली है, लेकिन हमारे समाज में लड़कियों के मुक़ाबले लड़कों को ही अच्छा माना जा रहा है। आज लड़कियाँ लड़कों के मुक़ाबले हर क्षेत्र में आगे जा रही हैं। लेकिन समाज की तरफ़ से लड़कियों के प्रति नज़रिया अभी ख़ास बदला नहीं है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सरकार की ओर से सख़्त हिदायतें भी जारी हैं कि लिंग निर्धारण टेस्ट न किए जाएँ और यदि कोई ऐसा करेगा तो उसे जेल की क़ैद और जुर्माना भी हो सकता है, लेकिन ऐसा सब कुछ होने के बाद भी लड़कियों के प्रति रवैये में कोई तबदीली नज़र नहीं आ रही है। आज भी हमारे परिवारों में पुत्र प्राप्ति के लिए ज़्यादा बच्चे पैदा करने की रुचि प्रबल रूप में पाई जा रही है। देखा जाए तो प्राइवेट अस्पतालों में लिंग टैस्ट के लिए सिर्फ़ बोर्ड ही लगे हैं। लिंग टैस्ट बंद नहीं हुए बल्कि उनके रेट बढ़ गए हैं। दुर्भाग्य से अभी भी बहुत से प्राइवेट अस्पतालों में भ्रूण हत्या लगातार हो रही है। इस धंधे में मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा है और इस मुनाफ़े को देखते हुए पिछले कुछ सालों में इस तरह का परीक्षण करने वाले क्लीनिकों की संख्या काफ़ी बढ़ गई है। लुकछिप कर इन क्लीनिकों द्वारा गर्भ की जाँच की जा रही है। देश का क़ानून एक अंधा औज़ार बन कर रह गया है। 

हैरत की बात है कि अभी तक हमारे परिवारों में आशीर्वाद नहीं बदले हैं। घर की बहू को यही आशीर्वाद दिया जाता है कि तुम दूधो नहाओ, पूतो फलो, भगवान तुम्हें चाँद सा बेटा दे, हमें पोते का मुँह कब दिखा रही हो। क्या कभी किसी ने यह कहते सुना है कि हमें पोती का मुँह कब दिखाओगी, भगवान तुम्हें चाँद सी पोती दे। इसका कारण यही है कि बेटियों के विषय में हमारी सामाजिक धारणाएँ नहीं बदली हैं। बेटियों को आज भी एक बोझ व पराया धन ही समझा जाता है। बेटियों के जन्म लेने से पहले ही उन्हें माँ के गर्भ में मार दिया जाता है। सन् 1984 में यह क़ानून बनाया गया था कि माँ के गर्भ में पलने वाले बच्चे के लिंग को जानना भाव यह पता करना कि वह बेटा है या बेटी ग़ैर-क़ानूनी है। लेकिन लोग सरेआम अल्ट्रासाउंड टैस्ट करवा कर बेटियों का गर्भपात करवा रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि पंजाब में मादा भ्रूणहत्या काफ़ी वर्षों से हो रही है, लेकिन आज तक कोई भी डॉक्टर गिरफ़्तार हुआ हो और उसे सज़ा हुई हो, ऐसा एक भी उदाहरण संभवतः हमारे सामने नहीं है। इसलिए, एक तो भ्रूण हत्या संबंधी क़ानूनों को सख़्त बनाने की ज़रूरत है और दूसरी ज़रूरत लोगों में सामाजिक चेतना, सामाजिक बराबरी और मानसिक विकास की है। 

बड़े शर्म की बात है कि जिस देश में देवियाँ पूजी जाती हैं, वहाँ पर लड़कियाँ जन्म के पहले ही मार दी जाती हैं। अल्ट्रासाउंड के ज़रिए यह जान लिया जाता है कि कोख में पल रहा बच्चा लड़का है या लड़की। लड़की होने पर उन्हें मार दिया जाता है। भारतीय चिकित्सा संघ (आई.एम.ए.) का कहना है कि भ्रूण हत्याओं के पीछे जहालत, दिमाग़ी दिवालियापन, ग़रीबी और बेकारी को कारण माना जा सकता है। इस वजह से लिंग अनुपात तेज़ी से गड़बड़ाता जा रहा है। वैसे तो सरकार इस अपराध को नियंत्रित करने के लिए कुकुरमुत्तों की तरह उग आए अल्ट्रासाउंड क्लिनिकों पर धड़ल्ले से छापे मारने की कार्रवाई कर रही है परन्तु फिर भी भ्रूण हत्याओं का सिलसिला लगातार जारी ही है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पुलिस और सेहत विभाग द्वारा भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ बने क़ानून के उल्लंघन के महज़ कुछ मामले ही दर्ज किए जाते हैं जबकि स्थिति तो बेहद गंभीर है। 

आए दिन अख़बारों में पढ़ने को मिलता है कि फ़लाँ जगह भ्रूण मिला, यह पढ़ कर दिल को बहुत ठेस पहुँचती है। हर लड़की बेटी, बहन, माँ और पत्नी के रूप में बेहद आदरणीय है। मैं “साहित्य कुन्ज” के माध्यम से लोगों को यह कहना चाहता हूँ कि वे लड़की को जन्म दें, क्योंकि आप ही की तरह उसे भी जीने का पूरा अधिकार है। लड़कियाँ किसी भी मायने में लड़कों से कम नहीं हैं। वे भी लड़कों की तरह बुढ़ापे में माँ-बाप का सहारा बन सकती है। 

लड़की के जन्म पर मुँह लटकाना, लड़कों की अपेक्षा उन्हें दूसरे दर्जे का मानकर उसके पालन पोषण में भेदभाव रखना, लड़की को अभिशाप समझना और लड़के को बेयरर चेक समझना कहाँ की बुद्घिमत्ता है। माना कि दहेज़ रूपी दानव इसके लिए ज़िम्मेदार है तो उसके जनक भी तो हम ही हैं। यह शाश्वत सत्य है कि जब तक दहेज़ हत्याएँ होती रहेंगी तब तक देश, समाज एवं परिवार भी सुखी नहीं रह सकेंगे। दरअसल, हम यह तो मानते हैं कि रिश्ते ऊपर वाला बनाता है, फिर स्वार्थवश ईश्वर के बनाए रिश्तों में मानवीय हस्तक्षेप क्यों किया जाता है? उल्लेखनीय है कि देश के आठ राज्य, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, दादर व नगर हवेली, दमन व दीव तथा लक्षद्वीप दहेज़ रूपी दानव के आतंक से पूर्णतया मुक्त हैं। तो क्या वहाँ इंसान नहीं रहते? समय की पुकार यही है कि अब हमें भी बदलना होगा। नारी, सृजन शक्ति व प्रकृति का प्रतीक है। नारी के बिना पुरुष का अस्तित्व अधूरा है। नारी, कितने ही रिश्तों को एक साथ त्याग, संयम, प्यार, ममता, सहनशीलता से निभाने में सक्षम है। लिहाज़ा माता-पिता को चाहिए कि वे लड़की के जन्म पर मन में उदासी न लाकर उसका भी स्वागत करें, ताकि वह स्वयं सुखी हो और समाज को सुख और संपन्नता से सँवारे। 

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