दंगल
काव्य साहित्य | कविता मधुश्री15 Feb 2021 (अंक: 175, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
है फ़क़त ख़ून तेरे जिस्म में क्यूँ
दंगल में उतरना है तो
बेईमानी का कुछ ज़हर मिला
छिपे बैठे हैं मगरमच्छ
निगलने के लिए
है समुंदर बहुत गहरा
मीठा ज़हर भरा
आज तू मान ले
ज़हर को ज़हर मारेगा
एक दिन या तो तू
लड़ता हुआ मर जाएगा
या फिर तू इस ज़हर
को ही पी जाएगा
आइना गंदा है बेशक
मगर भयभीत न हो
साफ़ कर आईना
देख फिर तस्वीर अपनी
अपनी हस्ती को तू पहचान
उतर दंगल में
कितनी मज़लूम कुचली हुई
घायल रूहें
खड़ी इंसाफ़ की चौखट
पर हैं सिसकती हुई
तू है मृत्युंजय
धर्मयुद्ध में उतरना होगा
प्रश्न जो दफ़न पड़े
वक्त के शमशानों में
किसी को तो
उनका जवाब देना है
कितने मसले हुए
फूलों का हिसाब लेना है।
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