अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

देश बदल रहा है

 

एक दिन बापू, मेरे सपने मेंं आए और 
पूछा कि बेटा क्या चल रहा है? 
 
तो मैंने कहा, 
बाक़ी सब तो ठीक है बापू, 
बस थोड़ा सा देश बदल रहा है। 
 
आस्था के लिए, 
तो कहीं धर्म के लिए
सियासत के लिए, 
तो कहीं क्षेत्रियता के लिए
बस थोड़ा सा देश जल रहा है। 
 
पैसे के लिए, 
तो कहीं कुर्सी के लिए
ताक़त के लिए, 
तो कहीं भाई भतीजावाद के कारण
बस थोड़ा सा भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। 
 
लापरवाही के कारण, 
तो कही भ्रष्टाचार के कारण
रेल की पटरियों पर, 
तो कभी सड़कों पर
आसमान मेंं, तो कभी अस्पतालों मेंं
बस थोड़े से इंसानों का क़त्ल हो रहा है। 
 
देश की सीमाओं पर, तो कभी देश के अंदर
देश की रक्षा मेंं, तो कभी देशवासियों के लिए, 
सैनिक शहीद हो रहा है। 
वहीं एक देशवासी दूसरे देशवासी का
बस थोड़ा सा दुश्मन हो रहा है। 
 
बाढ़ से, तो कहीं सूखे से
भूख से, तो कहीं प्यास से
आम आदमी को 
बस थोड़ा सा लड़ना पड़ रहा है। 
 
नौकरी के लिए, तो कहीं बेहतर पैकेज की तलाश में
व्यापार के कारण, तो कही तरक़्क़ी की आश मेंं
बस थोड़ा सा परिवार बिखर गया है। 
 
संचार क्रांति के कारण, 
व सोशल मिडिया के ज़माने मेंं
दुनिया तो बहुत पास हो गई है
परन्तु अपने, 
बस थोड़ा सा अजनबी हो गये है। 
 
तरक़्क़ी तो बहुत की देश ने, 
नाम भी बहुत है देश का
परन्तु मनुष्य के अंदर का इंसान 
बस थोड़ा सा मर गया है। 
 
जीवन यापन का स्तर 
तो बहुत बढ़ गया है आदमी का
परन्तु ख़ुद आदमी का स्तर 
बस थोड़ा सा गिर गया है। 
 
बाक़ी सब तो ठीक है बापू, 
बस थोड़ा सा देश बदल रहा है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं