एक नालायक़ अकेला
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विनय ‘विश्वास’21 Nov 2017
तुम जानते ही हो- इतना बेवकूफ़ था वो
कि कभी किसी को बेवकूफ़ नहीं बना सका
अपने जंगलीपन में भी
रेप नहीं कर सका जो
वो अत्याचारियों के भला किस काम आता
किसी के तलुओं का स्वाद
जानती ही नहीं थी उसकी जीभ
नहीं जानती थी
तीन की बातचीत में
चौथे को कोसना
उसने कोशिश की
पर एक छोटी-सी साज़िश को भी
ठीक-से अंजाम नहीं दे सका
उसे होना ही था दुश्मनों के बीच अजनबी
और दोस्तों के बीच फ़ालतू
उसका कहना भी चुप रहने जैसा था
चुपचाप रहता रहा वो
चुपचाप आता-जाता
चला गया चुपचाप
अब उसकी चुप्पियाँ जाने क्या-क्या कहा करती हैं मुझसे
और तुमसे?
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