एक प्याली चाय
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अर्चना गुप्ता15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
एक प्याली चाय और मुट्ठी भर ख़याल
अक़्सर साथ बैठते हैं मेरी शाम में
पूछते हैं मुझसे दिन भर का हाल
मैं भी एक धीमी चुस्की में
हल्की सी मुस्कुराहट घोल देती हूँ
पूछ लेती हूँ - बता तेरी ख़्वाहिश क्या है?
आज वो कुछ ऐसे बोली—
"कभी तो बैठा कर मेरे पास ख़ुद को समेट कर
हर सुबह महसूस किया है मैंने
तेरी जलती हुई जीभ में
और घड़ी की तरफ टिकी तेरी निगाहों में
घड़ी की रफ़्तार से भी कहीं तेज़
दौड़ते तेरे ख़्याल
मत दौड़ इतनी तेज़ कि धुँध छा जाए
हवा भी धीमी बहे तो ही आनंद देती है
वरना तो धूल भरी आँधी बन जाती है"
कुछ तो था उसकी बातों में आज
वरना उसका हास्य तीक्ष्ण व्यंग्य नहीं लगता।
सोचते ही सोचते चाय कि प्याली आधी हो गयी
मैं अपनी उधेड़बुन में फिर खो गयी
अचानक एक आवाज़,
"ज़रा चाय में शक्कर तो डाल दो"
"अरे ये क्या?" कुछ दिमाग़ पर ज़ोर डाला
फिर मैं बोली, "अभी लाती हूँ"
एक नज़र फिर देखा अपनी चाय की प्याली पर
प्याली की तली में ज़रा सी बची हुई मेरी चाय
हल्की सी हँसी दबाये मुझे घूरे जा रही थी
मानों हँसना चाह रही हो मुझ पर
दबे शब्दों में बोल रही हो जैसे
"क्यों ये बेख़याली ख़ुद के ही साथ
घोली है तूने शक्कर की तरह
सबकी ज़िन्दगी में मिठास
फिर क्यों फीकी कर ली तूने अपनी ही आस?"
शायद यही सवाल था उसका मुझसे आज
समझ चुकी थी उसका इशारा
इसलिए चुपचाप से ख़ाली प्याली को किनारे लगाया
और मैं बोली "तू ख़ुद भी तो जलती है शक्कर और पत्ती को घोलने के लिए
खिलकर लाती है रंग और मिठास तप जाने के बाद
अरी ओ! मेरी मिठास मेरे बच्चों की परवाह में
मेरे घुल जाने से है
दिन रात तपती हूँ और शक्कर घोलती हूँ उनके जीवन में
ताकि मेरे जीवन की शाम उनके साथ
एक प्याली चाय के साथ हो
एक प्याली चाय के साथ हो"
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