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एक उदास दिन . . . 

अभी-अभी बीता है, 
एक बहुत पुराना दिन 
जब 
तीन सूरज उगे 
तीन अलग दिशाओं में 
छोटी इमारतों के पीछे 
 
जब 
दोपहर में ही 
गूँजने लगे थे गीत ‘चित्रहार’ के 
और 
विक्को टर्मरिक की ‘मृणाल’, 
मुस्कुरा नहीं पाई थी 
बस, 
देर तक बरसाती रही थी 
ख़ामोशी की रेत 
पलकों से 
 
जब 
शाम के धुँधलके में 
एक सितारे ने 
चाँद के कोने से 
लगा दी थी छलाँग 
ये कहते हुए—
“घना अँधेरा सहा नहीं जाता!”
और रात 
स्याह होने से ठीक पहले 
सुर्ख़ होते-होते 
भीगने लगी थी 
शायद रो रही थी
 
जब 
तुम नकार रहीं थी 
मेरा वुजूद 
तब 
ठीक उसी क्षण, 
मैंने खेली, 
एक और बाज़ी, 
और हार गया 
अपने हिस्से का आसमान . . .
 

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टिप्पणियाँ

डॉ. आरती स्मित 2022/09/24 07:33 PM

भावपूर्ण कविता! बधाई!

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