गंगा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आराधना श्रीवास्तवा8 Jan 2019
गंगा की श्वेत
धवल, शुभ्र, ज्योतिर्मयी
स्नेहासिक्त, उठती-गिरती
तरंगावलियाँ मानों कह रहीं,
मत जकड़ो मुझे, बाँधों की बेड़ियों में।
मेरे प्रवाह मेरी निरन्तरता को खण्डित
मत करो।
मुझे बहनें दो उन्मुक्त, अविरल, अथक,
अनन्त काल तक।
मुझे तारने दो अपने श्रान्त, क्लान्त, थके-हारे
लाडलों को,
उन्हें विश्राम करने दो मेरी गोद में
मैं अभी बूढ़ी नहीं थकी नहीं
मुझे तुम्हारे खोखले वादों के
लाठियों के सहारों की ज़रूरत नही
मैं अभी समर्थ हूँ अपनी
पवित्रता, निर्मलता और
पुनीतता की रक्षा करने में।
तुम्हारे गन्दे मैले
पापों को धोने में,
बन्द करो मेरे नाम पर
करोड़ो अनुदानों के घोटालों को
वोट बैंकों की
राजनीति को
मेरे लिए कुछ करना है तो
मेरे भूखे नंगे बच्चों को
रोटी और वस्त्र दो
मेरे जल को अपने कारखानों के
गन्दे कूड़े कचरों से मुक्त रखो।
मैं भागीरथी, मैं जननी तुम पुत्र हो।
मुझे मेरे कर्मों से विरत मत करो
गंगा की उठती-गिरती लहरें
कभी मन्द कभी तीव्र स्वरों
मानों हमें आगाह कर रहीं हों
भविष्य की आशंकाओं से॥
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