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हाथों का सहारा

 

सर्दियों की वह ठिठुरती सुबह थी, जब सूरज अपनी सुनहरी किरणों से धरती को हल्के से छू रहा था। उसी पल दीवांकर नाथ और शर्मिला देवी के आँगन में एक नवजात की किलकारी गूँजी। पूरा घर जैसे जीवन और उल्लास से भर उठा। दीवांकर का हृदय ख़ुशी से झूम उठा। वे दौड़ते हुए कमरे में पहुँचे और काँपते हाथों से अपने बेटे को पहली बार उठाया। 

वह नन्हा-सा चेहरा, मासूम मुस्कान, और मुट्ठी में भरे सपनों-से हाथ—सब कुछ दीवांकर की आँखों को नम कर गया। उन्हें लगा जैसे कोई सपना उनकी बाँहों में आकार ले चुका हो। 

उस दिन उन्होंने मोहल्ले-भर में मिठाइयाँ बाँटी और उत्साहपूर्वक सबको बताया, “आज मैं दुनिया का सबसे सुखी इंसान हूँ। भगवान ने मुझे ऐसा उपहार दिया है, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।”

समय पंख लगा कर उड़ने लगा। नन्हा धीरज अब घुटनों के बल चलने लगा था। उसकी हर हरकत, हर तुतलाहट—मानो जीवन की सबसे क़ीमती पूँजी बन चुकी थी। एक दिन दीवांकर खिड़की के पास खड़े बाहर का दृश्य देख रहे थे, तभी धीरज ने अपने नन्हे हाथों से उनके पैर थामने की कोशिश की। 

वह अस्थिर पैरों से खड़ा हुआ और तुतलाकर बोला, “पा . . . पापा, हाथ मत छोड़ना।” इन शब्दों ने दीवांकर के हृदय में गूँज -सी भर दी। उनके चेहरे पर मुस्कान और आँखों में गर्व उतर आया। उस पल उन्हें लगा कि ईश्वर ने उन्हें सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास कराया है। 

धीरज बड़ा होता गया। स्कूल जाने लगा। हर सुबह दीवांकर और शर्मिला उसका बैग तैयार करते, टिफ़िन सजाते और उसे हाथ पकड़कर स्कूल छोड़ने जाते। उस छोटे से हाथ का दीवांकर की उँगली से चिपका रहना, वह मासूम चेहरा—इन सबने उन्हें जीने का मक़सद दे दिया था। समय आगे बढ़ा। धीरज कॉलेज पहुँचा, और फिर एक दिन उसे उसकी पहली नौकरी मिली। वह दौड़ते हुए आया और बोला, “बाबूजी, यह सब आपकी मेहनत और विश्वास का नतीजा है। आप मेरे साथ ऑफ़िस चलेंगे।” 

अगले दिन वह अपने पिता को ऑफ़िस ले गया और ख़ुद उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठाया। पूरे स्‍टाफ के सामने उसने कहा, “अगर बाबूजी ने मेरा हाथ न थामा होता, तो मैं यहाँ तक कभी नहीं पहुँच पाता।” 

दीवांकर की आँखों से बहते आँसू उनके जीवन की तपस्या की सफलता के प्रमाण बन गए। 

धीरे-धीरे समय ने एक और मोड़ लिया। धीरज की शादी हुई। दीवांकर ने फिर से उसका हाथ थामा, लेकिन इस बार उसे एक नए जीवन की ओर ले जाने के लिए। आँखों में संतोष था—कि एक पिता ने अपना कर्त्तव्य निभा दिया। 

परन्तु, समय स्थिर नहीं रहता। कुछ ही महीनों में परिस्थितियाँ बदल गईं। एक सुबह धीरज ने उनका हाथ फिर थामा—पर इस बार उन्हें वृद्धाश्रम ले जाने के लिए। गाड़ी में बैठते समय शर्मिला कुछ कहना चाहती थीं, पर शब्द उनके होंठों पर ही ठिठक गए। दीवांकर ने उनका हाथ मज़बूती से थाम लिया। 

वृद्धाश्रम के द्वार पर जब धीरज ने उनका हाथ छोड़ा, तो दीवांकर की आँखें भीग गईं। उन्होंने ख़ुद को सँभाला और अंदर जाते हुए अपने हाथों को देखा—वही हाथ जो कभी धीरज को चलना सिखाते थे, उसके आँसू पोंछते थे, उसकी राह दिखाते थे। 

आज वही हाथ ख़ाली थे। चलते-चलते उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “धीरज, याद है . . . तुमने कहा था—‘हाथ मत छोड़ना।’ काश, तुमने अपना वादा निभाया होता।” 

धीरज ने कुछ नहीं कहा। गाड़ी में बैठा और लौट गया। 

दरवाज़ा बंद हो गया। भीतर की नीरवता अब उनके जीवन की स्थायी संगिनी बन गई थी। दीवांकर और शर्मिला ने एक-दूसरे का हाथ थामा। दीवांकर ने धीमे से कहा, “शायद अब हमारे हाथों की ज़रूरत किसी और को होगी . . . हमारा काम तो ख़त्म हो गया।” 

उनकी आँखों में आँसू थे, पर उनमें दर्द से अधिक एक अनकहा प्रश्न था—क्या हाथों का सहारा भी समय के साथ अपना महत्त्व खो देता है? 

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