अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं, एक खिलौना नहीं

मैं एक छोटा-सा सफ़ेद ख़रगोश हूँ—नरम रेशमी बालों वाला, मासूम आँखों से दुनिया को देखने वाला। मेरा नाम कभी किसी ने नहीं रखा, और शायद रखा भी होता तो कोई पुकारता नहीं। मेरी दुनिया एक टोकरी में सिमटी हुई है, जो अक्सर एक औरत के हाथ में होती है। 

ये कहानी है मनाली की, उस बर्फ़ीले पहाड़ की जहाँ हर चीज़ पर एक सफ़ेदी की चादर सी बिछी होती है। लोग आते हैं वहाँ सैर-सपाटे को, तस्वीरें खिंचवाते हैं, हँसते हैं, और फिर चले जाते हैं। और मैं . . . मैं वहीं का वहीं रह जाता हूँ— उस औरत की हथेली में, जिसने मुझे एक तमाशा बना दिया है। 

सुबह से शाम तक वो औरत मुझे अपनी गोद में लेकर खड़ी रहती है और कहती है, “आ जाओ जी, सिर्फ़ 20 रुपए में फोटो खिंचवाओ प्यारे ख़रगोश के साथ!”

लोग हँसते हैं, बच्चे चिल्लाते हैं, “मम्मी ख़रगोश! मम्मी देखो, कितना क्यूट है!” 

कोई मेरी नाक को छूता है, कोई मेरे कान खींचता है। 

पर किसी ने कभी मेरी आँखों में झाँककर नहीं देखा . . . जहाँ ठंडी हवा से छलकते आँसू होते हैं। 

हर कोई स्वेटर, जैकेट, दस्ताने और टोपी में लिपटा होता है। और मैं? बस एक नंगी जान हूँ, जिसे कोई महसूस ही नहीं करता। मेरे पाँव बर्फ़ पर ठिठुरते हैं, मेरा दिल हर छूअन से काँपता है, पर मैं चुप हूँ . . . क्योंकि मैं एक “खिलौना” हूँ ना! 

शाम ढलती है, सूरज हिमालय की चोटियों में छिप जाता है। मैं सोचता हूँ—अब शायद घर जाकर चैन मिलेगा, गरमी मिलेगी। पर उस औरत ने मुझे न प्यार से उठाया, न कोई कंबल दिया। बस उसी पुराने लोहे के पिंजरे में डाल दिया जहाँ मैं रातें काटता हूँ। 

मैं कोने में दुबक जाता हूँ। बाहर का शोर बंद हो जाता है, पर मेरे दिल में एक सन्नाटा गूँजता है। 

कभी सोचा है, जब खिलौना भी साँस लेता हो तो कैसा लगता है उसे खिलौना कहे जाना? 

काश . . . कोई मुझे सिर्फ़ 20 रुपए का न समझता। 

काश . . . कोई मेरी ठंडी साँसें सुन पाता। 

काश . . . मैं सिर्फ़ एक तस्वीर का हिस्सा नहीं, किसी के प्यार का हक़दार होता। 

मैं भी जीना चाहता हूँ . . . खुले मैदानों में दौड़ना, हरी घास में लोटना, किसी की गोद में चैन से सोना— बिना कैमरे, बिना पैसों के . . . बस दिल से। 

मैं एक खिलौना नहीं हूँ। मैं भी महसूस करता हूँ क्योंकि

मैं भी एक ज़िंदा दिल हूँ। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

बाल साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

लघुकथा

किशोर साहित्य लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं