जब माँ बनी बेटी
कथा साहित्य | कहानी विकास बिश्नोई15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
अजय को याद है, वो शाम कितनी अजीब सी थी। जैसे कुछ गड़बड़ था, लेकिन वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या। वह अपने ऑफ़िस में था, घर से क़रीब 300 किलोमीटर दूर। सुबह से ही उसे कुछ अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। ऐसा लगता जैसे कुछ ठीक नहीं है। उसने कई बार माँ और पिताजी को फोन किया, लेकिन दोनों का जवाब एक ही था—“सब ठीक है।”
फिर भी उसका मन नहीं मान रहा था। उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। जैसे कोई घड़ी का काँटा बार-बार उसके दिल पर दस्तक दे रहा हो। आख़िरकार शाम के क़रीब सात बजे, उसने तय किया कि वो गाड़ी निकालकर घर की ओर निकल पड़े। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि कुछ बड़ा होने वाला है। और जब वो रास्ते में था, तभी पिताजी का फोन आया, “माँ का एक्सीडेंट हो गया।” यह सुनते ही उसकी हालत ख़राब हो गई। बिना देर किए, उसने गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा दी। रास्ते भर, माँ के चेहरे की चिंता और दर्द उसकी आँखों के सामने घूमते रहे। एक तस्वीर जैसे बार-बार उसकी आँखों में उभर रही थी—माँ का दर्द से भरा चेहरा, उसकी कराहें। वह सोचता रहा, ‘माँ इस वक़्त क्या महसूस कर रही होगी?’ गाड़ी की रफ़्तार तेज हो गई थी, लेकिन हर मिनट लंबा महसूस हो रहा था। उसकी बस एक ही दुआ थी—जल्दी से जल्दी माँ के पास पहुँच जाए। रात के क़रीब 12 बजे, वह अस्पताल पहुँचा। माँ को देखकर उसे थोड़ा सुकून मिला, लेकिन उनके शरीर पर बुरी तरह से चोटें लगीं थीं। माँ कराह रही थीं, और उनकी आवाज़ में दर्द साफ़ सुनाई दे रहा था। “अजय, बहुत दर्द हो रहा है।” यह सुनते ही उसकी आँखें भर आईं। वह बस उनके पास बैठकर उनका हाथ थामे कह सका, “माँ, मैं आ गया हूँ। अब सब ठीक हो जाएगा।”
इस दृश्य को देखकर वह यह महसूस कर रहा था कि माँ, जो हमेशा उसे सँभालती आईं थीं, अब उन्हें उसकी देखभाल की ज़रूरत थी। जैसे ही माँ दर्द से तड़पतीं, वह ख़ुद को भी क़ाबू नहीं कर पा रहा था। अब वह माँ के दर्द को अपने दिल से महसूस करने लगा था।
एक रात क़रीब 2 बजे, माँ की कराहने की आवाज़ से उसकी नींद खुली। माँ दर्द से तड़प रही थीं। वह तुरंत उनके पास गया। माँ ने कहा, “बहुत दर्द हो रहा है बेटा, सहा नहीं जा रहा।” उसका दिल जैसे किसी ने चीर दिया हो। वह बिना एक पल गँवाए माँ के पास बैठा गया और कहा, “माँ, सब ठीक हो जाएगा। मैं तुम्हारे लिए कुछ करता हूँ। अभी तुम्हारा दर्द कम होगा।” उसने माँ को सहारा दिया और कहा, “चलो, बैठते हैं, हम कुछ बातें करते हैं। मैं चाय बना लाता हूँ।” दोनों ने रात के 2 बजे चाय पीते हुए बातचीत की। इस बातचीत से माँ का ध्यान दर्द से हट गया। थोड़ी देर के लिए वह आराम महसूस करने लगीं। माँ के चेहरे पर मुस्कान देखकर अजय को भी सुकून मिला। उसने माँ को अपनी गोद में लेटाकर सुलाया और ख़ुद भी कुछ देर बाद सो गया। सुबह होते ही दोनों एक नई ऊर्जा से भरपूर थे।
इन दिनों, अजय ने माँ का ख़्याल वैसे रखा, जैसे एक पिता अपनी बेटी का रखता है। वह अब उनके पास बैठकर हर पल उनके दर्द को समझने की कोशिश करता। उसे अब महसूस होने लगा कि जिस तरह माँ ने उसे बचपन में स्नेह दिया था, अब वही स्नेह वह अपनी माँ को दे रहा था।
कभी माँ उसे संजीवनी की तरह सँभालती थी, और आज वह माँ को उसी तरह सँभालने का प्रयास कर रहा था। हर रात, जब उनका दर्द बढ़ता, वह माँ के पास बैठकर उनका सिर सहलाता और कहता, “सब ठीक हो जाएगा, माँ। मैं हूँ ना।”
एक दिन जब माँ बहुत देर तक बैठी बातें कर रही थीं, उसने मज़ाक़ में कहा, “अब आप मेरी बेटी बन गई हो।” माँ ने उसकी ओर देखा, उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उन आँसुओं में दर्द नहीं था—वह आँसू प्यार और गहरे रिश्ते के थे। अजय को यह समझ में आने लगा कि यह जीवन का अद्भुत चक्र है। एक समय था जब माँ उसे पालती थीं, आज वह अपनी माँ की देखभाल कर रहा था। जिन छोटी-छोटी तकलीफ़ों को माँ बचपन में महसूस करती थीं, आज वही तकलीफ़ें अजय महसूस कर रहा था। उनका दर्द अब उसका दर्द बन चुका था और उनकी ख़ुशी अब उसकी ख़ुशी बन गई थी। जब अजय ने माँ को अपनी बेटी की तरह स्वीकार किया, वह पल उसके जीवन का सबसे गहरा अनुभव बन गया। एक बेटे से ज़्यादा, वह अब एक पिता की भूमिका निभा रहा था, और यही असली प्यार और रिश्तों की गहराई है।
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