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हमारे शहर में

(एक)
हमारे शहर में
बहुत सारे लोग 
अल्पाहारी हैं साथ ही
शुद्ध शाकाहारी हैं। 
वे लहसुन-प्याज़ नहीं खाते हैं
मगर रिश्वत खाने से
बाज़ नहीं आते हैं। 
तल्ख़! 
क्या तुमको पता है? 
रिश्वत सरकारी है 
रिश्वत सहकारी है
रिश्वत तरकारी है 
रिश्वत खाने वाला ही एकमात्र
विशुद्ध शाकाहारी है . . .
 
(दो)
हमारे शहर में
हर रोज़ 
देख सकते हैं आप 
डरे-सहमे लोगों को, 
घर में, घर के बाहर 
मंदिर में, मस्जिद में
चर्च में, गुरुद्वारे में
श्मशान में, क़ब्रिस्तान में
रास्ते में, मंज़िल पर 
दिन में, रात में 
दोपहर को, शाम में
डर से काँपते हुए लोग
भूत से, प्रेत से 
जिन्न से, जिन्नात से 
चुड़ैल से, डायन से
आत्मा से परमात्मा से 
शनि के प्रकोप से, 
पाचक में मौत से, 
विधवा को देखने से, 
किसी के छींकने से
व्रत को छोड़ने से, 
उपवास को तोड़ने से
कथा नहीं सुनने से, 
दान नहीं देने से
नमाज़ नहीं पढ़ने से, 
अज़ान पर न उठने से, 
प्रेयर नहीं करने से, 
कनफेसन नहीं करने से, 
पंडे-पुजारी से 
पादरी से, 
मुल्ला से 
डर-डर के जीते 
तिल-तिल कर मरते 
मज़हब के पिंजरे में क़ैद 
रहते हैं लोग
आप के भी शहर में
और हमारे भी शहर में . . . 
 
(तीन)
बुझा दो रोशनी
हमारे शहर की
अगली सहर तक। 
पीने दो इसे
अंधकार का विष 
रात के अंतिम पहर तक। 
हलाहल पी कर भी 
कुछ नहीं कहेगा, 
न दर्द से चीखेगा 
न विष वमन ही करेगा
धीरे-धीरे 
अँधेरे का आदी हो जायेगा, 
कि अगर रोशनी को देखा 
तो मूर्छित हो जायेगा
लूला है, लँगड़ा है, 
गूँगा है, बहरा है, 
हमारे शहर पे, 
मज़हब और सियासत का, 
मुस्तैद पहरा है . . .
 
(चार)
हमारे शहर में, 
लोग पहले रोग बढ़ाते हैं। 
फिर 
इलाज की तरफ़
रुख़ फ़रमाते हैं। 
मसलन, 
पहले समाज को, 
वर्ण और जातियों में, 
जातियों-उपजातियों में, 
बाँटते-बँटवाते हैं। 
ऊँच-नीच, भेद-भाव
जायज़ ठहराते हैं। 
फिर धर्म को 
ख़तरे में बताते हैं। 
एक हो जाएँ सब
ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाते हैं 
हमारे शहर में . . .
 
(पाँच)
हमारे शहर में
‘बेनी राम’ की 
इमरती है, 
‘झगड़ू साव’ 
की रस-मलाई है 
‘फिरतू राम’ की 
पपड़ी है 
‘तृप्ति’ का 
लाल-पेड़ा है 
‘आधुनिक’ का 
रसगुल्ला है
यहाँ ‘जौनपुर मिष्ठान भंडार है‘
‘मिठास’ की मिठास 
का दावा दमदार है। 
लेकिन 
यहाँ लोगों में
आपस में रंजिश है, 
मिलने-मिलाने पर
बंदिश ही बंदिश है। 
उबन है, उकताहट है 
आपसी रिश्तों में 
करेले से भी ज़्यादा कड़वाहट है . . .
 
(छह)
हमारे शहर में 
हर पिता, 
अपने पुत्र को बताता है, 
उदाहरण देकर 
समझाता है
प्रेम, प्यार, 
मुहब्बत, वफ़ा
सब फ़ालतू की चीज़ें हैं, 
आदमी के दिल-दिमाग़ को
मौत के जबड़ों में भींचे हैं
मुहब्बत! 
ज़िंदगी बेकार कर देती है, 
जीते जी आदमी को 
मार के दम लेती है
देखो पुत्र! 
तुम ऐसी भूल मत करना, 
पैसा है दुनियाँ, 
बस इतना समझना
पैसे की महिमा
बहुत है निराली, 
मुहब्बत कहाँ, 
है अगर ज़ेब ख़ाली
लायक़ पुत्रों ने
पिता की बात मान ली है, 
प्यार नहीं करना है, 
यह सबने ठान ली है
लोग मनोयोग से 
राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण 
राधे-राधे जपते हैं, 
जपते हैं, जपते हैं
बस केवल जपते हैं
भूल से भी नहीं, 
ये किसी से प्यार करते हैं . . . 
 
(सात)
हमारे शहर में, 
लोग 
वैज्ञानिक सोच रखते हैं, 
आडंबर, पाखण्ड, अंध-भक्ति से, 
बहुत दूर रहते हैं। 
अल्फ़्रेड नोबल, एडिशन, 
आइंस्टीन को पढ़ते हैं, 
लेकिन डार्विन और न्यूटन में, 
ज़्यादा आस्था और विश्वास रखते हैं
यहाँ की सामाजिक व्यवस्था
पूर्णतया वैज्ञानिक है, 
न्यूटन के गति के, 
प्रथम नियम पर आधारित है
कि जो वस्तु स्थिर है 
स्थिर ही रहेगी, 
जो गतिमान है 
गति में ही रहेगी
जैसे 
जाति और वर्ण व्यवस्था में
ब्राह्मण आजन्म 
ब्राह्मण रहेगा 
गति में है और गतिमान रहेगा, 
शूद्र आजन्म 
शूद्र ही रहेगा 
स्थिर है तो हमेशा स्थिर रहेगा
जो भी बदलाव के लिए 
बाह्य बल लगायेगा, 
निश्चित ही विधर्मी कहलायेगा, 
अपनी करनी का 
भरपूर फल पाएगा 
हमारे शहर में . . .

(आठ)
हमारे शहर में
अक़्सर माँ की 
चौकी सजती है, 
चारों ओर
नौबत बजती है। 
‘माता शीतला’ का 
परमानतपुर में क़याम है 
तो ‘चौकियाँ माता’ का
चौकियाँ में सजा-धजा धाम है
हमारे शहर में
हज़ारों की संख्या में
‘गाय हमारी माता’ भी हैं, 
उनको रोटी खिलाने वाले
अन्नदाता भी हैं। 
इन अन्नदाताओं को
जन्म देने वाली मातायें भी हैं, 
जो पति और पुत्र के लिए, 
विमाता भी हैं और कुमाता भी हैं
पत्थर की माता 
हलवा पूरी गटकती हैं, 
हमारी गाय माता
शान से मटकती हैं, 
अपनी सगी माता
 विधवा-पेंशन या वृद्धा-पेंशन
 से पलती है 
 हमारे शहर में . . .
 
(नौ)
हमारे शहर में
अधिकांश विद्यार्थी
बहुत मेधावी हैं, बहुत मेहनती हैं, 
उनके अभिभावक, 
बहुत ज़िम्मेदार और बहुत अनुभवी हैं। 
हमारे शहर में, 
खुली नक़ल के केंद्र का
पता लगाते हैं
अभिभावक अपने बच्चे का 
फार्म तदनुसार भरवाते हैं। 
किसी और से 
अपने बच्चे की परीक्षा दिलवाते हैं
पर्ची लिखवाते हैं
अंदर भिजवाते हैं
नक़ल कराते हैं, 
प्रायोगिक परीक्षा में, 
शत-प्रतिशत 
अंक की जुगाड़ बैठाते हैं
परीक्षा परिणाम पर 
बाप-पूत दोनों
इतराते हैं, 
बेरोज़गारी के लिए
व्यवस्था को ज़िम्मेदार ठहराते हैं
हमारे शहर में . . .
 
(दस)
हमारे शहर में 
लोग करने लगे हैं 
‘मन की बात’ 
अब बे-मन से
अपने मन की बात 
या अपने मन वाली 
करवाना चाहते हैं जन-जन से
आप के 
‘मन की बात’ 
से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है, 
जन-तंत्र में, 
जन-जन के मन की बात
जब मन अशान्त हो, 
तन भयाक्रांत हो, 
जब मर चुके हों सपने, 
पराये हो गये हों अपने
रोजी रोज़गार के
पड़ गए हों लाले, 
भाले की नोक पर 
रखे हों निवाले
एक मन 
दूसरे मन की बात 
कैसे सुनेगा 
आप के या
हमारे शहर में . . .
 
(ग्यारह)
अभी-अभी 
हमारे देश की संसद में 
महिला आरक्षण विधेयक के 
पारित होने की ख़बर आई है, 
चारों तरफ़
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ छाई हैं। 
नारी नर्क का द्वार, 
नारी पाप योनि, 
ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी . . .
के पक्षधरों को 
सादर अवगत कराना है, 
अब ढपोरशंख 
का लद गया ज़माना है
हे भारत की नारियों! 
जो अधिकार तुम्हें, 
न दे सके ऋषि, महर्षि, भगवान 
न देवी, न देवता, न धर्म, 
न मनु का विधान
कल भी दिया था, 
आज भी दिया है 
सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत का संविधान। 
अपनी आज़ादी का
 भले जश्न मनाओ, 
 लेकिन 
 हे भारत की भाग्य विधाता! 
 संविधान पढ़ो और सबको पढ़ाओ। 
 आओ! आओ!! 
 सदियों से परतंत्र 
 ‘आधी आबादी को‘
 मुक्ति का मार्ग दिखाओ 
 हमारे भी शहर में . . .
 
(बारह)
हमारे शहर में
टूटना तो तय था
टूटना तो तय है
रीति-रिवाज़ों
परम्पराओं 
रवायतों और
वर्जनाओं का
झूठ और ढपोरशंख
कब तक टिक पाते
या टिक पायेंगे
रेत के टीले पर 
सत्य-शोधक नदी के 
तेज़ बहाव के आगे
प्रतिबंध और अनुबंध 
की बेड़ियों को तोड़ता हुआ
बदलाव का पक्षधर
शोषितों का जन समूह 
अपने स्वयं के प्रकाश से आलोकित
परिवर्तन की राह पर
निकल पड़ा है, 
हमारे शहर में . . .
 
(तेरह)
हमारे शहर में
जब भी लोग 
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’
नारा लगाते हैं, 
सुनकर हम
किसी अनिष्ट की शंका से 
घबरा जाते हैं
लगता है 
बेटियाँ बचाने का अभियान
कोई नया गुल खिलाएगा 
हाथरस की घटना
फिर से दुहराएगा . . .
 
(चौदह)
कहीं से भी, 
न उन्नीस थे
न उन्नीस हैं आज भी
इस देश के दलित-पिछड़े 
अल्पसंख्यक या आदिवासी, 
उनसे, 
जिनको कुछ लोग बीस मानते हैं। 
क्षेत्र कोई भी हो, 
यहाँ तक की वीरता में भी। 
पाये गये हैं ‘वो लोग’ उन्नीस, अठारह, 
पंद्रह या फिर चार से भी नीचे
मूलनिवासी, द्रविण, आदिवासियों से। 
यह हमीं नहीं
‘वे’ ख़ुद भी जानते हैं 
और ‘वो’ भी जानते हैं, 
जो छुपे इतिहास के पन्ने खंगालते हैं। 
जानते थे अलबरूनी, ह्वेनसांग
जानता था फाह्यान, 
जानते थे शक, हूण, 
जानता था मुहम्मद बिन क़ासिम, 
जानते थे मुहम्मद गोरी, ग़ज़नवी, 
जानता था अच्छी तरह से बाबर 
और जानते थे अंग्रेज़ भी इस सचाई को। 
धीरे-धीरे 
अब जान रहे हैं
देश भर के
दलित, शोषित और मज़लूम, 
कि बिना उनके
नहीं सबल हो पायेगा हमारा देश, 
नहीं हो पाएगा 
आत्म निर्भर, 
फिर से सोने की चिड़िया
जैसे था चंद्रगुप्त मौर्य के समय 
जैसे था सम्राट अशोक महान के समय। 
बिना लिए 
अपने हाथों में सत्ता की चाभी
नहीं हो सकेगी उन्नति 
नहीं आ सकेगी समानता 
नहीं मिट सकेगी ग़रीबी 
और लूटते रहेंगे कुछ लोग 
लाखों करोड़ों अरबों में
देश की सम्पत्ति, 
लूटकर भागते रहेंगे विदेश। 
लूटते रहेंगे लुटेरे
कमेरों की कड़ी मेहनत की कमाई, 
और भरते रहेंगे अपनी तिजोरी। 
धीरे-धीरे ही सही 
समझ रहे हैं 
एक दूजे को समझा रहे हैं 
आपस में रहन-सहन 
खान-पान 
रोटी-बेटी 
के संबंधों से 
भाई-चारा बना रहे हैं 
एक नये युग की 
शुरूआत कर रहे हैं 
दलित, पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक
हमारे शहर में . . . 

(पन्द्रह)
हमारे शहर में
अधिकांश विद्यार्थी
बहुत मेधावी हैं, बहुत मेहनती हैं, 
उनके अभिभावक, 
बहुत ज़िम्मेदार और बहुत अनुभवी हैं। 
हमारे शहर में, 
खुली नक़ल के केंद्र का
पता लगाते हैं
अभिभावक अपने बच्चे का
फ़ॉर्म तदनुसार भरवाते हैं। 
किसी और से
अपने बच्चे की परीक्षा दिलवाते हैं
पर्ची लिखवाते हैं
अंदर भिजवाते हैं
नक़ल कराते हैं, 
प्रायोगिक परीक्षा में, 
शत-प्रतिशत
अंक की जुगाड़ बैठाते हैं
परीक्षा परिणाम पर
बाप-पूत दोनों
इतराते हैं, 
बेरोज़गारी के लिए
व्यवस्था को ज़िम्मेदार ठहराते हैं
हमारे शहर में . . .
 
(सोलह)
हमारे शहर में
लोग करने लगे हैं
‘मन की बात’
अब बे-मन से
अपने मन की बात
या अपने मन वाली
करवाना चाहते हैं जन-जन से
आप के
‘मन की बात’
से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है, 
जन-तंत्र में, 
जन-जन के मन की बात
जब मन अशान्त हो, 
तन भयाक्रांत हो, 
जब मर चुके हों सपने, 
पराये हो गये हों अपने
रोज़ी रोज़गार के
पड़ गए हों लाले, 
भाले की नोक पर
रखे हों निवाले
एक मन
दूसरे मन की बात
कैसे सुनेगा
आप के या
हमारे शहर में . . .
 
(सत्रह)
अभी-अभी
हमारे देश की संसद में
महिला आरक्षण विधेयक के
पारित होने की ख़बर आई है, 
चारों तरफ़
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ छाईं हैं। 
नारी नर्क का द्वार, 
नारी पाप योनि, 
ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी . . . 
के पक्षधरों को
सादर अवगत कराना है, 
अब ढपोरशंख
का लद गया ज़माना है
हे भारत की नारियो! 
जो अधिकार तुम्हें, 
न दे सके ऋषि, महर्षि, भगवान
न देवी, न देवता, न धर्म, 
न मनु का विधान
कल भी दिया था, 
आज भी दिया है
सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत का संविधान। 
अपनी आज़ादी का
भले जश्न मनाओ, 
लेकिन
हे भारत की भाग्य विधाता! 
संविधान पढ़ो और सबको पढ़ाओ। 
आओ! आओ!! 
सदियों से परतंत्र
‘आधी आबादी को’
मुक्ति का मार्ग दिखाओ
हमारे भी शहर में . . .
 
(अठारह) 
हमारे शहर में
टूटना तो तय था
टूटना तो तय है
रीति-रिवाज़ों
परम्पराओं
रवायतों और
वर्जनाओं का
झूठ और ढपोरशंख
कब तक टिक पाते
या टिक पायेंगे
रेत के टीले पर
सत्य-शोधक नदी के
तेज़ बहाव के आगे
प्रतिबंध और अनुबंध
की बेड़ियों को तोड़ता हुआ
बदलाव का पक्षधर
शोषितों का जन समूह
अपने स्वयं के प्रकाश से आलोकित
परिवर्तन की राह पर
निकल पड़ा है, 
हमारे शहर में . . .
 
(उन्नीस)
हमारे शहर में
जब भी लोग
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’
नारा लगाते हैं, 
सुनकर हम
किसी अनिष्ट की शंका से
घबरा जाते हैं
लगता है
बेटियाँ बचाने का अभियान
कोई नया गुल खिलाएगा
हाथरस की घटना
फिर से दुहराएगा . . .

   
(बीस)
कहीं से भी, 
न उन्नीस थे
न उन्नीस हैं आज भी
इस देश के दलित-पिछड़े 
अल्पसंख्यक या आदिवासी, 
उनसे, 
जिनको कुछ लोग बीस मानते हैं। 
क्षेत्र कोई भी हो, 
यहाँ तक की वीरता में भी। 
पाये गये हैं ‘वो लोग’ उन्नीस, अठारह, 
पंद्रह या फिर चार से भी नीचे
मूलनिवासी, द्रविण, आदिवासियों से। 
यह हमीं नहीं
‘वे’ ख़ुद भी जानते हैं 
और ‘वो’ भी जानते हैं, 
जो छुपे इतिहास के पन्ने खंगालते हैं। 
जानते थे अलबरूनी, ह्वेनसांग
जानता था फाह्यान, 
जानते थे शक, हूण, 
जानता था मुहम्मद बिन क़ासिम, 
जानते थे मुहम्मद गोरी, ग़ज़नवी, 
जानता था अच्छी तरह से बाबर 
और जानते थे अंग्रेज़ भी इस सचाई को। 
धीरे-धीरे 
अब जान रहे हैं
देश भर के
दलित, शोषित और मज़लूम, 
कि बिना उनके
नहीं सबल हो पायेगा हमारा देश,  
नहीं हो पाएगा 
आत्म-निर्भर, 
फिर से सोने की चिड़िया
जैसे था चंद्रगुप्त मौर्य के समय 
जैसे था सम्राट अशोक महान के समय। 
बिना लिए 
अपने हाथों में सत्ता की चाभी
नहीं हो सकेगी उन्नति 
नहीं आ सकेगी समानता 
नहीं मिट सकेगी ग़रीबी 
और लूटते रहेंगे कुछ लोग 
लाखों करोड़ों अरबों में
देश की सम्पत्ति, 
लूटकर भागते रहेंगे विदेश। 
लूटते रहेंगे लुटेरे
कमेरों की कड़ी मेहनत की कमाई, 
और भरते रहेंगे अपनी तिजोरी। 
धीरे-धीरे ही सही 
समझ रहे हैं 
एक दूजे को समझा रहे हैं 
आपस में रहन-सहन 
खान-पान 
रोटी-बेटी 
के संबंधों से 
भाई-चारा बना रहे हैं 
एक नये युग की 
शुरूआत कर रहे हैं 
दलित, पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक
हमारे शहर में . . . 
 
(इक्कीस)
ओ मेरे बचपन के मित्र! 
कभी आओ न! 
हमारे शहर में। 
भले ही पाहुन बन कर आओ, 
लेकिन आओ। 
कुछ मेरी सुनो
कुछ अपनी सुनाओ
गाँव-गिराँव, टोला-मुहल्ला की, 
बातें बताओ, 
पुरानी यादों को
ताज़ा कर जाओ। 
बताओ! बताओ!! 
मेरे बच्चों को
जो नहीं देखे हैं
मिट्टी और खपरैल के घर, 
लकड़ी के चूल्हे पर
बनता हुआ खाना
गोबर से लीपे हुए
बैठका, मुहारा, छप्पर, खलिहान। 
नहीं देखा है इन्होंने
बरसात में टप-टप टपकती हुई
सरपत-पतलों की झोपड़ी, 
सरकाते हुए बसहटा को
रात भर इधर से उधर
बचने के लिए बारिश से। 
नहीं देखा है जाता
जिससे पीसती थी माँ आटा
गा-गा कर गीत अल्लसुबह। 
नहीं खाई है इन्होंने
कड़वा तेल पोत कर
नमक से रोटी। 
नहीं खेले हैं कभी
दादा-दादी
नाना-नानी
चाचा-चाची
ताऊ-ताई
की गोद में ये। 
लुका-छिपी, ओल्हवा की पाती
गुल्ली-डंडा, गेंदा भाड़-भाड़
चल कबड्डी आरा और कंचा, 
खेलना तो दूर
नहीं सुने हैं नाम भी ये लोग। 
नहीं पकड़ी हैं
इन लोगों ने कभी
धान के खेत में
गरई, सिंधरी, टंगरा या
पहिना मछली। 
न तो तैराई है कभी
काग़ज़ की नाव बरसाती पानी में। 
एक आना में पकौड़ी
दो आना में चोटहिया जलेबी
सुदेसरी माई, पल्हना माई का मेला
कुछ भी नहीं पता है इन्हें। 
कहाँ मेरी और तुम्हारी तरह
लालमुनिया के साथ
बीने हैं ये लोग
महुआ, टिकोरा, निबकौड़ी। 
सुने नहीं हैं
दहिजरा के नाती
मुँह फुकौनू, तोहार डाढ़ फूंकू
नानी-दादी की प्यार भरी गाली। 
नहीं हुई है इनकी
दादी-नानी या सुरसतिया चाची
के हाथों मालिश, 
नहीं लगा है
इनकी आँखों में काजल
माथे पर काला टीका
जो बचाती बुरी नज़रों से
जादू-टोना से। 
याद करो! 
लिखा था तुमने पुष्पा को
चौबीस पेज का प्रेम पत्र, 
और लतिआए गए थे तुम
पकड़े जाने पर
महामाई दाई के मंदिर पर
प्रेम-मिलन के बेला में। 
ओह! ओह!! 
मेरे दोस्त! 
बह गया सब कुछ
वक़्त के सैलाब में, 
छूट गया पीछे
बहुत पीछे
हमारा तुम्हारा स्वर्णिम अतीत। 
अब तो
बचपन में खेलने की जगह
बचपन से खेलते हैं लोग, 
नहीं लिखता है
कोई चौबीस पृष्ठ का प्रेम-पत्र
नहीं करता है कोई
किसी का भी इंतज़ार अब, 
नहीं भींगती हैं पलकें
किसी की भी जुदाई में। 
नहीं करती हैं ज़िक्र
अब बिरह की रात की
प्रेमिकाएँ
डर कर के गले लगने की बजाय
बंद कर देती हैं
खिड़कियाँ, दरवाज़े
तूफ़ान में बिजली कड़कने पर
उर्वशी, मेनका, रम्भा, हीर और लैला। 
बंजर हो गई है उर्वरा ज़मीन
प्रेम, वात्सल्य, ममता और करुणा की, 
पथरा गईं हैं आँखें
भीड़ हो गए हैं
घर-परिवार के लोग
भीड़ में एक-एक आदमी तन्हा
और तन्हा आदमियों की भीड़
घुट-घुट कर जी रही है
मरने से पहले मर रही है
हमारे शहर में। 
 
(बाइस)
हमारे शहर में
अभी-अभी बीते हैं
दो-दो त्योहार
तीसरा और चौथा भी
आने‌ को‌ हैं तैयार
सामाजिक सौहार्द, सद्भावना
भाई-चारा बढ़ाने के निमित्त। 
होंगे स्कूल-काॅलेज बन्द
बन्द होंगे सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थान
सजाए जायेंगे बाज़ार, 
बढ़ा दिये जायेंगे
आवश्यक वस्तुओं के दाम
मिलावट का बढ़ जाएगा कारोबार। 
पूँजी, पाखण्ड, कर्मकाण्ड
दोनों बाँहें फैलाए
बाज़ार के आतिथ्य का
देंगे आमंत्रण
दलित, पिछड़े, ग़रीब किसान, मज़दूर को। 
जगह-जगह लीलाएँ
सजती झाँकियाँ
क्या गाँव, क्या शहर
बजते घंटा-घड़ियाल
लाउडस्पीकर का शोर-शराबा
हथियारों के साथ जुलूस
जुलूस के लिए आयोजित
जगह-जगह खान-पान, भंडारा
यंत्र-तंत्र-मंत्र का उदारीकरण
सर्व-जन हिताय, सर्व-जन सुखाय
विश्व-बन्धुत्व, विश्व कल्याण के लिए
लगा कर पर्यावरण को दाँव पर। 
मित्र! 
आदमी भले हो अछूत
पैसा नहीं होता है अछूत
पूँजी, पाखण्ड, पुरोहित के लिए
हमारे शहर में। 
 
(तेइस)
सुनो! सुनो!! सुनो!!! 
धर्म-धर्म चिल्लाने वालो
धर्म के प्रवर्तक
धर्म प्रचारक
धर्म के पैरोकार
धर्मों के ठेकेदार। 
जब नहीं थे तुम
नहीं था तुम्हारा धर्म
नहीं थे तुम्हारे ईश्वर
तब भी था आदमी
तब भी थीं औरतें
तब भी थी मानव-सभ्यता
इस धरती पर। 
तब भी लोग
सुबह जागते थे
खाते-पीते थे
उद्यम करते थे
जीविका के लिए
रचाते थे शादी-ब्याह
पैदा करते थे बच्चे
करते थे दवा-दारू
बीमार होने पर। 
करते थे वे भी
नित नये आविष्कार
मानव सभ्यता के विकास हेतु
बिना तुम्हारे तंत्र-मंत्र-घंट के ही। 
उस युग में थी
मुहब्बत, दया, करुणा, सहकारिता, 
परस्पर आकर्षण
प्रेम-रति, रति-क्रीड़ा
साथ ही कठिन जीवन-संघर्ष। 
हाँ! नहीं था, तो नहीं था तब
तुम्हारा उत्कृष्ट उत्पाद
ढपोरशंख
ऊँच–नीच, भेद-भाव, छुआछूत, 
डर, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य
श्रम का अवमूल्यन, श्रम का दोहन
तुम्हारी चालाकी, मिथ्या श्रेष्ठता, 
भक्त और काल्पनिक भगवान के बीच
सेतु बनाने का अनुबंध
देश-विदेश की अर्वाचीन करेंसी में
चढ़ावे का उत्कोच। 
तुम और तुम्हारा चमत्कार
सब के सब बेजा और बेकार
चाँद-सितारों, ग्रह-नक्षत्रों से
क़िस्मत का बनना-बिगड़ना
राहु-केतु, शनि का प्रकोप
दिशा-शूल
तुम्हारे धन-दौलत कमाने के
परंपरागत तरीक़े
नहीं थे ये तब
और नहीं था तब
कोई भी ख़तरे में इस ज़मीं पर। 
कल जब नहीं रहोगे तुम
नहीं रहेगा तुम्हारा धर्म
नहीं रहेंगे तुम्हारे अन्नदाता
तुम्हारे पालनहार
जिनके नाम पर डरा-डरा कर
करते हो वसूली
नहीं रहेगा तुम्हारा धर्म ख़तरे में। 
तब! हाँ तब! हाँ तब ही!! 
रह‌ पायेगा मानव
तुम्हारे चंगुल से छूटकर
मानवतावादी, 
यथार्थवादी, 
विज्ञानवादी
इस ज़मीं पर, 
हर गाँव में
हर शहर में
और हमारे शहर में। 
 
(चौबीस)
मैं जानता हूँ
बहुत अच्छी तरह जानता हूँ मैं, 
कि जानने की भी ज़रूरत है
किसी फ़लसफ़े को
या किसी भी बात को
मानने से पहले। 
लेकिन
चाहते हो तुम
लोग खूँटी पर टाँग दें
अपनी अक़्ल
बाँध के रखें ख़ुद को
तुम्हारे खूँटे से
पालतू जानवर की तरह
होकर संज्ञा शून्य। 
जो दिखाओ तुम
सब वही देखें
जो तुम सुनाओ
वही सुनें
जो तुम पढ़ाओ
वही पढ़ें सब के सब
लोग वही करें
जो तुम कहो। 
मेरे फ़ाज़िल ‌दोस्त! 
मत खेलो आग से
मत करो
रोशनी को क़ैद और अँधेरों को
आज़ाद करने की कोशिश
तुम्हारे वारिस भी
रहते हैं हमारे शहर में। 
 
(पच्चीस)
हे इस धरती के 
सबसे बुद्धिमान प्राणी! 
सबसे ताक़तवर, सबसे ज्ञानी
करते रहते हो रोज़ ही
नये-नये आविष्कार
दिखाते हो हर पल
नये चमत्कार
ज्ञान के विज्ञान के, 
ताकि सनद रहे
तुम्हारी उपयोगिता की
तुम्हारी श्रेष्ठता की। 
पहुँच चुके हो तारों पर
उतर चुके हो चाँद पर, 
सम्भव है कल तुम
रख दो अपने पाँव सूरज पर भी। 
लेकिन
नहीं नाप सकोगे
प्रेम, करुणा, वात्सल्य, 
ममता, शील, समाधि की
गहराई और विस्तार
जिस पर टिका है
ब्रह्माण्ड का अस्तित्व। 
ना ही बना पाओगे
कोई पैमाना
जिससे माप सको
माँ की ममता
प्रियतमा के
प्रेम और विरह की वेदना
हमारे शहर में। 
 
(छब्बीस)
वर्षों पहले
वे आये थे
हमारे शहर में। 
मिले थे हमें
नदी के उस पार। 
कई दिन के भूखे थे वे
नहीं थे किसी के पास
ढंग के कपड़े
भूख-प्यास से तड़प रहे थे
उनके छोटे-छोटे बच्चे
मदद की गुहार में
चीख रही थी उनकी कातर आँखें। 
फटे‌-पुराने कपड़े की पोटली
सीने से लगाये निश्चल पड़े थे
जैसे हार गये हों वे
अपनी ‌ज़िन्दगी से। 
माँ ने कहा
हमें करनी ही होगी
इनकी मदद‌
इनकी ख़िदमत
मानवता के नाम पर
इन्हें ले चलो घर
दे दो घर का एक कोना
पड़े रहेंगे ये और कुछ कर लेंगे
जीवन-यापन के लिए। 
मैंने कहा, माँ जी! 
छोड़ दीजिए इन्हें इनके हाल पर
समय-ज़माना ख़राब है
लेने के देने पड़ जायेंगे
ये आर्य हैं
अपनी फ़ितरत से
बाज़ नहीं आयेंगे
एक दिन हमको ही
बेघर कर जायेंगे। 
आज नहीं हैं
मेरी बात न मानने वाली
मेरी दयालु माँ
नहीं रही
इनके सुख दुःख की भागीदार
घर की मालकिन मेरी पत्नी। 
संघर्षरत हैं जैसे
हक़ हुक़ूक़ के लिए
अपने ही मुल्क में
दलित, आदिवासी मूलनिवासी। 
वैसे ही अब
घर के एक कोने में सिमटे
हम मकान मालिक
लड़ रहे हैं
किरायेदार से मुक़द्दमा
हमारे ही शहर में। 
 
(सत्ताईस) 
हमारे शहर में भी
इक नदी है,
नदी है तो नदी के पाट हैं दो, 
पाट दो ही हैं लेकिन
नदी पर पुल बहुत हैं, 
इन्हीं पुल से
नदी के पाट दोनों
मिल रहे हैं, 
जुदाई की व्यथा इक दूसरे से
कह रहे हैं, सुन रहें हैं। 
बहुत आवागमन पुल पर इधर से
नहीं कम है
चहलक़दमी उधर से, 
नदी के तट पे
मंदिर कम नहीं हैं
कहाँ मस्जिद में भी
दम-ख़म नहीं है। 
शहर में चर्च, गुरुद्वारे भी तो हैं, 
और तो और बुद्ध-विहार भी हैं, 
कहीं बाबा की कुटिया, 
कहीं मठ साधुओं का, 
तप-स्थली है ऋषि की, 
पूछना क्या मज़ार ओ मक़बरे का। 
उधर बस्ती में ओझा रह रहे हैं, 
इधर सोखा जी हिचकी ले रहे हैं, 
यही हैं पक्षधर इंसानियत के, 
हैं पैरोकार ये अम्नो-अमा के। 
इन्हीं से है यहाँ ख़ुशियों का डेरा, 
इन्हीं से ख़त्म होगा जग का फेरा, 
बिना इनके नहीं सम्भव है जीना, 
इन्हीं से पूछ कर है साँस लेना। 
समय से मस्जिदों में
होती हैं अज़ानें, 
अदा होती है पाँचों वक़्त की जब, 
सब नमाज़ें, 
मंदिरों में भी पूजा अर्चना है, 
नदी के जल से होता आचमन है। 
आरती शाम को होती नदी की, 
तो भंडारा है शोभा हर गली की, 
लोग इतवार को हैं चर्च जाते
प्रभु यीशु के आगे सर झुकाते। 
हज़ारों लोग लंगर खा रहे हैं, 
बराबर हैं सभी जतला रहे हैं, 
समता, बंधुता, करुणा के रस्ते
बुद्ध की शरण में आ, जा रहे हैं। 
इबादत है
अक़ीदत है
तो क्यों इतनी फ़जीहत है, 
बता मौला
बता भगवन्
ज़िन्दगी क्यों अजीयत है। 
नदी का जल प्रदूषित
है मगर क्यों? 
घुला है ज़हर फ़िज़ाओं में
इधर क्यों? 
ज़हन में है तअस्सुब
आदमी के, 
हैं प्यासे
खूं के आदमी-आदमी के। 
लहू सस्ता है
महँगी रोटियाँ हैं, 
यहाँ घुट-घुट के
जीतीं बेटियाँ हैं। 
नदी से बैर रखती
मछलियाँ हैं
मुहब्बत पर ये
कसती फब्तियाँ हैं। 
हरेक घर में है
इक बाज़ार देखो, 
बढ़ा नफ़रत का
कारोबार देखो। 
नहीं आँखों में
अब बिल्कुल नमी है, 
दिलों में तो
मुहब्बत की कमी है। 
कोई कहता है
यह उसकी रज़ा है
कोई कहता है
भगवन् की सज़ा है। 
सज़ा की
क्या कोई ‌माफ़ी नहीं है, 
इबादत ‘आप को’
भाती नहीं है। 
तो आख़िर किसलिए है
ये चढ़ावा, 
है किसके लिए
फूलों की माला। 
तुम्हारे नाम पे
दौलत कमाने को आमादा, 
बना फिरता है कौन
भगवान आधा। 
वुजूद सचमुच अगर
होता ‘तुम्हारा’, 
तो पुख़्ता
दावा भी होता हमारा। 
न‌ हार जाती मुहब्बत, 
न नफ़रत जीत जाती, 
तरन्नुम और बहर में, 
ग़ज़ल सबकी हो जाती। 
है विनती ‘तल्ख़’ की यूँ, 
भक्त-भगवान सबसे
हमारे शहर से अब
मज़हब के पहरे हटा दें। 
हमें रहने दें
दिलवालों के घर में, 
एक जंगल
पनपने दें शहर में। 
 
(अट्ठाईस)
हमारे शहर की
कुछ बात ही निराली है, 
हर इक दिन ईद है
होली है, दीवाली है। 
खुली हैं खिड़कियाँ
हर एक घर की, 
नहीं है खौफ़
दुश्मन के नज़र की। 
खुले रखते हैं
दरवाज़े भी अक़्सर, 
जो दिल से काम लेते हैं
दिमाग़ वालों से बेहतर। 
ज़रूरत है उन्हें
ताज़ा हवा की, 
ख़ुलूस, अख़्लाक़
उम्मीद-ए-वफ़ा की। 
बशर हो आम
या हो‌ ख़ास साहिब, 
सभी को इश्क़
की है आस साहिब। 
मना करता है
पीने‌ को जो वा'इज, 
शराबे इश्क़ को
कहता है जाइज़। 
कोई दिल है नहीं
दुनियाँ में ऐसा, 
जो न हो हीर या
रांझा के जैसा। 
दिखावा पारसाई
का करे‌ जो, 
सामना आइने का
ना करें वो। 
इश्क़ से बच नहीं सकता है
जहाँ में कोई, 
इश्क़ पहले ज़मीं पे आया
फिर आया कोई। 
जावेदाँ इश्क़ जहाँ में है
हक़ीक़त है यही, 
नहीं है इश्क़ तो
दुनियाँ में कहीं कुछ भी नहीं। 
 
(उनतीस)
हमारे शहर में माँ
निर्जला उपवास रखती हैं, 
पुत्र की आयु लम्बी हो
'जिउतिया' को पूजती हैं। 
एक नहीं तीन दिन का
यह कठिन त्योहार है भाई, 
हैं जिनके पुत्र, व्रत पर
उनका ही अधिकार है भाई। 
हैं जिनकी पुत्रियाँ
रखना नहीं है व्रत कभी उनको, 
पुत्रियाँ कम जिएँ या ज़्यादा
है परवाह यहाँ किसको। 
भले ही माँ न हो बेटी की
बेटी माँ की‌ है हर दम, 
दुलारा बेटा, माँ का ही, 
उसे भेजे है वृद्धाश्रम। 
न जाने कितनी सदियों से
ये माँएँ करती हैं दो आँख, 
लुटाती हैं ममता जिस पर
वही देता उसको संताप। 
नहीं सम्पत्ति में है जिसका हिस्सा
वही बेटी है माँ-बाप की जां, 
लिखकर बेटे को जायदाद
घर से बेघर हुई है माँ। 
घटित होती हैं घटनाएँ
दिन के आठों-पहर में, 
कुछ तुम्हारे शहर में
तो कुछ हमारे शहर में। 
 
(तीस)

हमारे शहर में
युगद्रष्टा बहुत हैं, 
भविष्यद्रष्टा, 
भविष्यवक्ता बहुत हैं। 
अलौकिक ताक़तें
उनमें बहुत हैं, 
सदाचारी हैं
मोह-माया रहित हैं। 
बता सकते हैं
पिछला जन्म क्या था, 
कहाँ किस युग में थे
और कर्म क्या था। 
उसे ब्रह्मांड
पूरा दिख रहा है, 
कहाँ है क्षीरसागर
लिख रहा है। 
बात होती है
सीधी ‘उनसे’ इनकी, 
उन्हीं का खेल है, 
महिमा है उनकी। 
धर्म कोई हो
मुबल्लिग़ के मज़े हैं, 
स्वर्ण-रत्नों से देखो
महल उनके सजे हैं। 
महिमा कावड़ यात्रा की
सुनाते हैं ये हमको, 
विदेशों में पढ़ाते हैं
ख़ुद अपने लाड़लों को। 
है मज़हब जान से प्यारा
ग़रीबों को बताते, 
बदलवा करके मज़हब
ये अमीरों को मिलाते। 
मोह-माया से ऐ! भक्तो
रहना है दूर ही तुमको, 
बताने के लिए यह बात, 
चाहिए फ़ीस ख़ूब हमको। 
है भक्तों! मोह-माया से
तुम्हें हम मुक्त कर देंगे, 
तुम्हारे पाप की गठरी, 
हम अपने सर पे ले लेंगे। 
ज़मीं का खाना पितरों को तो वे
मन्त्रों से खिलाते हैं, 
उन्हें ख़ुद खाना हो तो
हाथ भोजन को लगाते हैं। 
क़फ़स है, ताना-बाना है
रिया-कारी की दुनियाँ में, 
सियाहकारी पनपती है
चरित्रवानों की कुटिया में। 
जब तलक ‘तल्ख़‌’ है अन्धा
नहीं धंधा है यह मंदा, 
जब तलक मुर्दा है बंदा
जहाँ में गिद्ध हैं ज़िन्दा। 
 
(इकतीस)
कथा वाचक पधारे
हमारे शहर में, 
वो आये घर हमारे
उसी दिन दोपहर में। 
उन्होंने अपना
उच्चासन लगाया, 
दरी पर हम सबको
नीचे बिठाया। 
कथा सुननी है जिनको
भूखे रहना है उनको, 
सुब्ह घर से चला हूँ
कुछ तो खाना है मुझको। 
किसी के घर मैं
कच्चा खाना तो खाता नहीं हूँ, 
मिठाई से, फलों से
पेट भर ‌पाता नहीं हूँ। 
सुनो यजमान! आलू गोभी
की सब्ज़ी बना लेना, 
ज़रा सी खीर, देशी घी में
कुछ पूरी बना देना। 
कुँवारी कन्या हो घर में, 
तो खाना उससे बनवाना। 
मसालेदार सब्ज़ी में
घी भी भरपूर डलवाना। 
थोड़ा आराम कर के
मैं कथा प्रारम्भ कर दूँगा, 
किराया, मेहनताना, 
आप सबसे दक्षिणा लूँगा। 
हमें जो देंगे उससे ज़्यादा
भगवन् तुमको दे ‌देंगे, 
हमारे मंत्र सारे कष्ट तेरे
पल में हर लेंगे। 
हमारी पत्नी ने उनसे कहा
सुनिए ज़रा गुरुवर
हम भी उपवास रक्खे हैं
तो रखिए आप भी प्रियवर। 
बस इतना सुनना था कि
विप्रवर चीखे और चिल्लाये, 
धरा‌-आकाश को गुस्से में
अपने सर उठा लाये। 
कुलक्षिणी! भस्म कर दूँगा
जो ऐसी बात फिर बोली, 
मैं हूँ भू-देवता जो
भरता है ख़ाली तेरी झोली। 
हमारी ही बदौलत है
तेरे घर लक्ष्मी जी का वास, 
हमारे आशीर्वादों ने
बना डाला है तुझको ख़ास। 
असर ‘पुष्पा’ पे पंडित जी की
बातों का पड़ा इतना, 
कहा कि छोड़िए गुरुवर
कथा वाचूँगी मैं अदना। 
है डिजिटल मीडिया का युग
कहाँ कुछ है असम्भव अब, 
अभी यू-ट्यूब से यह काम
करवाऊँगी सम्भव अब। 
कहाँ फ़ुरसत है हमको
आप के नखरें उठायें हम, 
बुलायें आप को घर
पाँव छूकर सर झुकायें हम। 
नहीं कोई जाति से ऊँचा
न कोई जाति से छोटा, 
करे जो काम खोटा
वो ही तो इंसान है खोटा। 
मैं समझा लूँगी ईश्वर को
वो सीधे हमसे पूजा लें, 
हमारी अर्चना का फल भी
सीधे हमको ही अब दें। 
हैं पालनहार वो सब के
ज़रूरत क्या चढ़ावा की, 
बनाना धर्म को धंधा और
धंधे के बढ़ावा की। 
 
(बत्तीस)
हमारे शहर में आयें
फ़र्ज़ अपना निभायें, 
सभी एक साथ मिल-जुल कर
यहाँ रावण जलायें। 
जला रावण को दें अब
बुराई को मिटा दें, 
बुराई पे भलाई की
विजय निश्चित करा दें। 
प्रतीक्षा की घड़ी बीती
दशहरा आ गया है, 
फ़िज़ाओं में उमंगों का
नशा-सा छा गया है। 
ठहरिये एक पल को
ज़रा कारण तो जानें, 
बिगाड़ा क्या है रावण ने
जो उसको शत्रु मानें। 
हज़ारों साल से पुतला
जलाये जा रहे हैं, 
जला कर गर्व से
सीना फुलाये आ रहे हैं। 
ये कैसा पापी है जो अब तक
दहन होकर भी ज़िन्दा है, 
जलाना पड़ता है हर साल
अदू सबका चुनिंदा है। 
चन्द्रमा, इन्द्र, पाराशर, भीष्म
के पाप हैं अच्छे, 
बलात्कारी पाण्डु, ब्रह्मा
कृष्ण भगवान हैं सच्चे। 
अगर पुतला जलाने से
बुराई दूर हो जाती, 
तो जल कर राख ही केवल
तुम्हारे हाथ अब आती। 
महज़ गंगा नहाने से
नहीं धुलते हैं जैसे पाप, 
वैसे ही स्वाँग भरने से
नहीं कम होंगे ये संताप। 
पुरानी ग़ैर-वाज़िब रुढ़ियों को
तोड़ना होगा, 
घृणा और द्वेष के तूफ़ान का
रुख़ मोड़ना होगा। 
प्रतीकों को नहीं सचमुच
बुराई को जलाना है, 
दया, करुणा, समाधि, शील से
जग, जगमगाना है। 
 
(तैंतीस)
हमारे शहर में
श्री देश राज रहते थे, 
नये पुल के क़रीब
पकौड़े तला करते थे। 
हमारे शहर में
नरायन‌ प्रसाद रहते थे, 
शहर में घूम-घूम 
चने बेचा करते थे। 
हमारे शहर में 
सलामत मियाँ का क्या कहना
बनाना बीड़ियाँ, पीना, 
पिलाना, शाइरी करना 
हुआ कुछ यूँ कि तीनों ने 
नया रोज़गार अपनाया, 
सभी ने अपने घर को
इबादतगाह बनवाया। 
पड़ोसी को बताया कि 
इन्हें दर्शन दिये हैं प्रभु, 
चमत्कारी शक्तियों से 
इनकी झोली भरे हैं प्रभु। 
हमारे शहर में यह बात
फैली आग की माफिक, 
लगी जुटने वहाँ पर भीड़
इनके मन-मुताबिक़। 
समोसा खा लो, बीड़ी पी लो
रेवड़ी बाँट कर खाओ, 
प्रभु को सौंप कर सब कुछ
भक्ति में लीन हो जाओ। 
चमत्कारी समोसा है
करामाती हैं गोलगप्पे, 
है जादू श्याम बीड़ी में, 
अलौकिक उर्द के अप्पे। 
हज़ारों में, फिर लाखों में
लगा आने चढ़ावा जब, 
कोई बाबा, कोई साँई
कोई ऋषि कहलवाया तब। 
अजब जादूगरी है 
इन तीनों की बात में यारो, 
खिंचा आता चला आलम है 
दिन में, रात में यारो। 
ख़बर अख़बार की थी 
कि बाबा बलात्कारी है, 
मगर यह बात भक्तों ने 
कहाँ मानी, स्वीकारी है। 
तपेदिक, कैंसर, कोविड
मरज़ चाहे भी हो जैसा, 
भभूत इनका करे वश में
जिन्न-जिन्नात हो कैसा। 
फ़क़त इन‌ पाँच‌ सालों में
करोड़ों ‌ ये ‌कमा डाले, 
बना कर‌ ट्रस्ट, ऐन.जी.ओ. 
कई कॉलेज बना डाले। 
यहाँ मूर्ख को‌ भी जनता
महर्षि मान लेती है, 
दलित विद्वान दिख जाये
तो ‌भृकुटी तान लेती है। 
उर्वरा है ज़मीं पाखण्ड की
इस देश में जितनी, 
नहीं कोई यक़ीन मानो
किसी भी देश में इतनी। 

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