जनपथ पर साइकिल
काव्य साहित्य | कविता यदुवंश प्रणय5 Mar 2016
तुम कहाँ से चले आ रहे हो
इस पथ पर पैडल मारते हुए,
तुम्हारा मटमैला कपड़ा
धूसरित शरीर
टूटी हुई साइकिल की तीलियाँ
बिस्तरबंद में लगा फावड़ा
इस जनपथ के लिए नहीं है।
बरसों से लेकर
आज भी, सुबह से शाम तक
इसको चमकाया जाता है
मॉर्निंग वॉक के लिए
साहबों के ज़रूरी टॉक के लिए
और तुम
निकल जाते हो सुबह-सुबह
बिना बत्ती और सायरन के
जो इस पथ का लायसेंस है
जो कि तुम्हारे पास नहीं है
तुम्हारे पास है तो बस फावड़ा
वह भी इस जनपथ पर रोड़े बिछाने के लिए
सफ़ाई और चमकाने के लिए,
पर तुम कितने बड़े रोड़े हो
इन सफ़ाई पसंद लोगों के बीच
यह तब पता चलता है
जब तुम दस कारों के बीच में खड़े होते हो
और ये सब मिलकर
तुम्हारी टूटी हुई तीलियों के
पहिये वाली साइकिल को भी
साफ़ कर देना चाहते हैं।
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