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जीवन्त

इस अंतरंग के संताप को, 
इस क़द्र घोला तुमने, 
अपने महासागर रूपी प्रेम मेंं, 
जैसे घुलती हो ये ज़मीं उँगलियाँ, 
इन ऊन के धागों से बुने दस्तानों मेंं, 
जो सौम्य सा सौहार्द देते हैं, 
दिसंबर की ठिठुरती ठंड मेंं। 
और यूँ बेपरवाह सी जीती हूँ मैं अब, 
ना सूरज के उगने की चिंता होती है, 
ना ही कलियों के खिलने की चाह। 
 
अब तो आभास होता है, 
एक क्रान्ति-सा परिवर्तन का, 
इस अंतर्मन मेंं, 
जिसे सदियों से जकड़ रखा था, 
कई दानवों ने, 
जो कुचलते रहे सोच को, 
छीनते रहे शान्ति, 
और
मेरे काल्पनिक उल्लास को भी। 
आज, 
आख़िरकार, 
मैं उन्मुक्त हूँ, 
निरंकुश और श्वसन, 
हाँ! 
आख़िरकार, 
मैं सही मायने मेंं जीवंत हूँ। 

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टिप्पणियाँ

Shashi 2023/04/03 02:54 PM

Beautiful depiction.

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