झोला
काव्य साहित्य | कविता आलोक चौबे2 Jul 2014
सुबह शाम
घड़ी से पहले
कमरे के मुहाने ठुकी कील में
टँगा झोला बिना हवा
काँपता
तैयार कर देता है
नित्य निष्क्रमण के लिए।
इसकी साँस और फांस बड़ी गहरी है।
शायद मैं बिना झोले का
कभी पहचान न पा सकूँगा
मेरे बच्चे
मेरी पत्नी खोजते रहें जी भर /जीवन भर
जानते हुए क्या जान पाये?
गनीमत कि दोस्त नहीं हुए।
झोले ने इस लत से उबारा है।
बचपन का साथी
पिता की थाती
अपने नौ दशकों की टिमटिमाती आँखों से
किसी अपनों को अब नहीं देख पाते
सिवा मुझे मेरे झोले के साथ।
मेरी आवारगी /मेरी बंदगी
मेरी नफ़ासत /मेरी गंदगी
मेरी खुशहाली / मेरी कंगाली
मेरी चुगलखोरी /मेरी दलाली
मेरा बड़प्पन /मेरी हीनता
मेरी उदारता / मेरी कृपणता
मेरा विषाद /मेरा अवसाद
अंतहीन मेरा /अंतहीन मेरी
संसार का पाया /संसार का खोया
बहुत जतन से मुझे
मेरे घर को रोज़ सँभाल रखता है –
झोला
दरअसल इसका होना इसके लिए नहीं
घर की उस कील के लिए तो है ही
जो इसके बिना नंगा है।
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