काल की ये विवेचना
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शिवांगी श्रीवास्तव15 Jul 2021 (अंक: 185, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
है ये कैसा सघन अँधेरा
लीलने को आतुर बहुत
आदमी की जान जैसे
हो गई, बेज़ान अब
हर जगह चित्कार
हाहाकार केवल मच रहा,
हर दिशा में हर तरफ़
खूंखार मंज़र दिख रहा,
क्या करें कैसे बचाएँ
अपने परिजनों को
हर व्यक्ति आज बस
चिंता में बहुत है घुल रहा।
हर तरफ़ बस मौत है
और ख़ौफ़ का मंज़र बना
ना दुआ ना दौलत ही
कुछ काम आती दिख रही
इक इक बारी बारी से
इंसानों को लील रही
जाने कब आएगा वो दिन
चैन फिर से लौटेगा
मास्क और सैनीटायज़र से
हाय नाता टूटेगा
हाल ये है श्मशान में भी
आज लंबी क़तार है
यमराज जाने कितनों को
साथ ले जाने अब तैयार हैं
बढ़ रहा है स्याह साया
मौत भी चीत्कारती
कब रुकेगी कब थकेगी
काल की ये विवेचना।
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