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कर्ण–कृष्ण संवाद 

 

(महाभारत युद्ध, कुरुक्षेत्र प्रसंग) 
 
जब भीष्म-द्रोण हुए निद्रामग्न, कौरवों का दीप अकेला था
कवच बन रणभूमि में, सेनापति कर्ण अडिग खड़ा अकेला था। 
 
एक ओर अर्जुन रथ पर, और कृष्ण सारथी बन पथ दिखाए
दूसरी ओर मित्र–ऋण से बँध, कर्ण अधर्म का ध्वज उठाए। 
 
यह गाथा है समय की शाश्वत सत्य पुनः अपनी कथा कहता है
आओ रण की धूल में करें प्रवेश, जानें कौन विजयी रहता है . . . 
 
रथ धँसा है माटी में, कुछ क्षण युद्ध का तुम विश्राम करो
हो जाऊँ रथ पर सवार पुनः, हे अर्जुन! तब मुझसे संग्राम करो। 
 
धर्म–अधर्म की दुविधा में अर्जुन, गाण्डीव लिए विचलित था
“करो प्रहार, यही अवसर है” सारथी कृष्ण का वचन नियत था। 
 
खींच प्रत्यंचा लगा चलाने, अर्जुन जब प्रचण्ड बाण
धर्म की मर्यादा लगा बताने, अंगराज कर्ण का अभिमान। 
 
क्रोधित होकर माधव पे गरजा, “क्यों नहीं मिलता मुझे बराबरी का दरजा? 
धर्म रक्षा की ये कैसी दुहाई है, जब घड़ी मेरे शौर्य की आई है?” 
 
मुस्कुराए माधव, समय को रोका, फिर बोले गंभीर स्वर
“कर्ण! सुन जीवन की गाथा, ये नियति तेरे ही कर्मों का उत्तर।” 
 
अचंभित अंगराज लगा सुनाने, अपने ऊपर बीते अन्याय
“‘सूतपुत्र’ कह जग ने ठुकराया, क्या यही है समाज का न्याय? 
 
जब-जब विजय समीप आती युद्ध में, नियम तोड़े जाते क्यों
जीवन-पथ पर धर्म-शास्त्र के उसूल मुझ पर ही भारी क्यूँ? 
 
कुंडल-कवच जो मेरे शरीर के अनमोल रक्षक थे
कर दिए दान मैंने इंद्र को, जो बने अर्जुन के संरक्षक थे”
 
मधुर स्वर में बोले माधव: 
“सच है, तुझसे जाति छल हुआ, जन्म रहस्य छुपाया गया
पर तू भी धर्म भुलाकर अन्याय का साथ निभाता गया। 
 
द्यूत सभा में जब रोई द्रौपदी, अपमानित कर क्यों मौन रहा वहाँ
जब अभिमन्यु घिरा चक्रव्यूह में, तब नियमों पर ध्यान था कहाँ? 
 
दानवीर था तू, पर न्यायवीर क्यों न बन पाया रे धनुर्वीर
दुर्योधन शकुनी संग, धर्म का करता था नाश अधीर। 
 
धनुर्विद्या में श्रेष्ठता पाने के अहं ने तुझे पल-पल घेरा था
अर्जुन संग प्रतिद्वंद्विता में तूने उत्तम पथ को छोड़ा था। 
 
मित्र-ऋण के बोझ तले तुझको हुआ यह ज्ञात नहीं
राज मोह में तेरे मित्र ने दोस्ती का पहना मुखौटा था।”
 
सुनकर ज्ञान वासुदेव का, कर्ण को हुआ अहसास
हुआ स्मरण ग़लतियों का, लेने लगा गहरी श्वास। 
 
मौन मुख, गीले नयन थे, भाग्य को देता रहा दोष
माधव बोले अर्जुन से, “करो प्रहार पार्थ, अंत करो रोष।” 
 
अर्जुन के साधे बाण से माँ कुन्ती हुई शोकाकुल
सूर्यपुत्र के वध उपरांत दुर्योधन था अति व्याकुल। 
 
जाते-जाते कुन्ती-पुत्रों ने जाना, अंगराज उनका ज्येष्ठ था
नियति की लीला के आगे, धरती पर लेटा सर्वश्रेष्ठ था। 
 
कुरुक्षेत्र की भूमि पर शोक का हुआ संचार, 
सूर्य ढला, हुआ रण–नाद, थम गया हर प्रहार। 
 
सद्कर्म अमरता लाते हैं, यही नियति का संज्ञान है
दुष्कर्म का अंत निश्चित है, यही धर्म का विधान है। 
 
अच्छे कर्म बुरे कर्म को शून्य नहीं करते, 
पुण्य-पाप अपने मार्ग, फल अलग भरते। 

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