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कविता के नए प्रतिमान: एक पुनर्विचार

 

पुस्तक का नाम: कविता के नए प्रतिमान: एक पुनर्विचार
आलोचक/लेखक: ए. एफ़. नज़र
प्रकाशन: वेरा प्रकाशन, जयपुर
विधा: आलोचना
प्रकाशन वर्ष:2024
मूल्य: ₹249
पृष्ठ: 232

चर्चित कवि ए. एफ़. ‘नज़र’ की सद्यः प्रकाशित आलोचनात्मक पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान: एक पुनर्विचार’ इन दिनों ख़ूब चर्चा में है। सच कहूँ तो अब तक मैं इनके उम्दा ग़ज़ल-लेखन से ही परिचित था। एक आलोचक के रूप में इन्हें पढ़ना और भी ज़्यादा सुकूनदाई है। बतौर आलोचक इनका दृष्टिकोण काफ़ी सूक्ष्मदर्शी, दूरगामी और प्रभावशाली जान पड़ता है। 

आदिकाल से लेकर अब तक हिन्दी कविता ने अपने बदलते स्वरूप के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन किया है। काव्य-लेखन और काव्य-आलोचना को लेकर मेरा मानना है कि दोनों एक दूसरे की ज़रूरत हैं। कहीं-न-कहीं काव्य लेखन-परम्परा का सुदृढ़ विकास और विस्तार कविता के आलोचना-कर्म का ही प्रतिफल है। 

1968 में ख़्यातिलब्ध आलोचक नामवर सिंह ने ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक में कविता के विभिन्न तत्वों पर अपने मत प्रस्तुत किये हैं। साथ ही नई कविता के संदर्भ में नए काव्य प्रतिमानों का प्रश्न उठाते हुए उनका समुचित प्रतिपादन किया है। ए. एफ़. ‘नज़र’ की कृति नामवर सिंह के विचारों का समर्थन करती है, संशोधित करती है तथा उससे आगे की बात करती है। 

नए युग में, नए सन्दर्भों के साथ रचनाओं का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन बहुत आवश्यक है। क्योंकि हर युग की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियाँ अलग होती हैं। परिस्थिति-अनुरूप रचनाओं पर पुनर्विचार करना उक्त रचनाओं की प्रासंगिकता का निर्धारण करना भी है। 

इस पुस्तक में आलोचक ने कविता क्या है, मुक्तछन्द, अनुकूल छन्द की तलाश, आधुनिक कविता के सन्दर्भ में रस-सिद्धांत, काव्यभाषा और सृजनशीलता, काव्य-बिम्ब और सपाटबयानी, काव्य संरचना, विसंगति और विडंबना, अनुभूति की जटिलता और तनाव, ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूति, परिवेश और मूल्य, पठनीयता और श्रवणीयता, अनेकार्थता और इबहाम, औचित्य और काव्यतत्व, सोशल मीडिया के युग में वाचिक कविता की प्रासंगिकता आदि महत्त्वपूर्ण विषयों को अपने आलोचना के केन्द्र में रखा है। 

विदित हो कि आलोचना का उद्देश्य पाठक को उस लेखन से बेहतर तरीक़े से जुड़ने या उसे चुनौती देने में मदद करना है। अच्छी आलोचना साहित्य के बारे में हमारी समझ को गहरा करती है और समय के साथ साहित्य के विकास में योगदान देती है। 

बतौर आलोचक ए. एफ़. ‘नज़र’ की सबसे ख़ास बात यह है कि उन्होंने प्रसंगवश पूर्ववर्ती आचार्यों और आलोचकों के कथनों को ख़ूब उद्धृत किया है, तब कहीं अपने तर्क-युक्त मत को प्रस्तुत किया है। 

पुस्तक की भाषा सरल और सहज है जो कठिन अवधारणा को बोधगम्य बनाती है। पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों की सोच और समझ विस्तृत होगी, ऐसा मेरा मानना है। 

इस श्रमशील, उपयोगी और ईमानदार कोशिश में सफल होने के लिए ए. एफ़. ‘नज़र’ जी को अशेष बधाई और मंगलकामनाएँ। 

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