सन्नाटे में शोर बहुत है
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा अविनाश भारती1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पुस्तक: सन्नाटे में शोर बहुत है (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार: अंजू केशव
प्रकाशन: लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
मूल्य: ₹210 (पेपर बैक)
पृष्ठ: 128
सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘सन्नाटे में शोर बहुत है’ समर्थ ग़ज़लकार अंजू केशव का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसे लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। पहली नज़र में पुस्तक का आवरण और शीर्षक दोनों अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वंदना पवार द्वारा बनाया गया कवर चित्र, स्त्री मनोभाव को शब्द देता हुआ प्रतीत होता है जबकि पुस्तक का शीर्षक ‘सन्नाटे में शोर बहुत है’ मानव-मन के आंतरिक कोलाहल और द्वंद्व को प्रदर्शित करता है।
पुस्तक की भूमिका ख्यातिलब्ध ग़ज़लगो व आलोचक रामचरण ‘राग’ ने लिखी है जो ग़ज़लकार अंजू केशव के कृतित्व को समझने को नई समझ देती है।
संग्रह से गुज़रते हुए हैं अहसास होता है कि अंजू केशव की ग़ज़लें परंपरागत ग़ज़लों से काफ़ी भिन्न हैं अर्थात् इनकी ग़ज़लों में वर्तमान का खुरदुरा यथार्थ है। इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक समस्याओं को रेखांकित करने का भरसक प्रयास करती हैं।
ग़ौर करें तो सबके आस-पास रिश्ते-नातों की भीड़-सी है। लेकिन इसके बावजूद भी हर इंसान तन्हा है और अपनी तन्हाइयों में ख़ुद के सवालों से घिरा पड़ा है। कहीं न कहीं अपने अंदर उठने वाले झंझावातों से इंसान द्वन्द्व की स्थिति में जीने को मजबूर है। शीर्षक की सार्थकता को बयाँ करता यह मुकम्मल शे'र देखें:
“देखें थोड़ी भीड़ बढ़ा कर,
सन्नाटे में शोर बहुत है।”
महिलाओं को लेकर हमेशा से ही यह तथाकथित सभ्य समाज पहरेदार भी भूमिका में रहा है और पहरेदारी की आड़ में जबरन अपनी आकांक्षानुरूप उन्हें जीने को मजबूर किया गया है, सहानुभूति और देखभाल के नाम पर उन्हें पिंजरे में बंद किया है। अंजू केशव ख़ुद महिला हैं और महिला होने के नाते इन समस्याओं को नज़दीक से देखा और महसूस किया है। इस बाबत संग्रह के ये शे'र बेहद उल्लेखनीय हैं:
“खलबली कुछ इस तरह है लड़कियों में,
अब नहीं तब्दील होना देवियों में।
वश नहीं ख़ुद पर ही जिनका है वही बस,
खोजते तहज़ीब अक्सर साड़ियों में।”
कई अश'आर में ग़ज़लकार का आशावादी दृष्टिकोण प्रतिबिम्बित होता है जो हताश और निराश मन में ऊर्जा का संचार करने में पूर्णतः सक्षम जान पड़ता है। इस बाबत अंजू केशव के चंद अश'आर देखें:
“देखना चेहरा हो गर उम्मीद का,
ठूँठ पर उगता वो पत्ता देखिए।”
“छोड़ देते शजर भी तख़्त अपना,
जब हवाओं में इंक़िलाब आए।”
“बात सुन लीजिए दिल की अपने,
कोई ऐसा नहीं रहबर होता।”
“रखे बीच लाशों के भी ख़ुद को ज़िन्दा,
अनोखा ये इक ज़िन्दगी का हुनर है।”
वर्तमान में आत्मकेंद्रित लोगों को समझ पाना बेहद मुश्किल है। ऐसे लोग अपनी महत्वाकांक्षा और स्वार्थ सिद्धि हेतु रिश्तों की बलि देने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करते। तभी तो आज हर कोई एक दूसरे से ख़फ़ा नज़र आता है। हमारी संवेदनशीलता जो कभी मानव-विशेषता हुआ करती थी, आज मानव समाज से नदारद है।
ऐसे ही बनते-बिगड़ते रिश्तों की मूल वजह की सूक्ष्म पड़ताल करते हुए अंजू केशव अपनी ग़ज़लों का सृजन करती हैं। चंद ख़ूबसूरत अश'आर देखें:
“बोलिए कैसे निभे रिश्ता अकेले,
जबकि रिश्ते में हमेशा दो रहे हैं।”
“हम सभी को हर घड़ी उपलब्ध थे शायद तभी,
हर किसी ने आज तक बेकार ही समझा हमें।”
“बात सीधी दिल पे जाकर ही लगी जो भी कही,
क्योंकि हमने खुरदरे अल्फ़ाज़ की पॉलिस न की।”
“दिए हैं कान भी भगवान ने जब,
हमेशा जीभ क्यों अपनी चलाएँ।”
मेरी माने तो संग्रह में ऐसे कई शे'र मिलेंगे जो पाठकों को पल भर के लिए निस्तब्ध करने वाले हैं।
सर्वविदित है कि ईश्वर ने ममत्व और अपनत्व की देवी के रूप में माँ को अवतरित किया है। जिस घर में माँ होती है स्वतः वह घर हर्षित होता है। लेकिन जिस घर में माँएँ नहीं होती हैं, वहाँ घर की बेटियाँ ही अपनी शीतलता से उस कमी को पूरा करती हैं। बेटियों की महत्ता को शब्द देता हुआ एक शे'र देखें जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में घर कर गया है:
“दुबारा स्नेह माँ वाला है दुर्लभ,
अगर घर में कोई बेटी नहीं है।”
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अंजू केशव ने बख़ूबी अपनी ग़ज़लधर्मिता का निर्वहन किया है। भले ही यह इनका पहला ग़ज़ल संग्रह है लेकिन इन्हें पढ़ने के बाद किसी मँझे हुए फ़नकार को पढ़ने का गुमान होता है।
संग्रह की भाषा बेहद सरल और सहज है। ग़ज़लों की बनावट और बुनावट भी शानदार और सटीक है। संग्रह की ज़्यादातर ग़ज़लें सामयिक समस्याओं पर कुठाराघात करती हैं जो अंजू केशव की ग़ज़लों की विशेषता भी है।
संग्रह में इसके अलावे भी बहुत कुछ है जो इसे संग्रहणीय और पठनीय बनाता है। अगर आप भी ग़ज़ल अनुरागी हैं तो पुस्तक को ज़रूर पढ़ें।
और अंत में इस पुस्तक के प्रकाशन पर अंजू केशव जी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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