कविता तुम कहाँ हो
काव्य साहित्य | कविता प्रभांशु कुमार1 Jun 2019
कविता
तुम कहाँ हो
कवि के हृदय में
या काग़ज़ के पन्नों पर
या मन की संवेदना में
या ऊष्मित होती वेदना में
या बालाओं के रुदन में
या उद्वेगों के क्रन्दन में।
बताओ हो किसी की
स्मृतियों में
या नायिकाओं के विरहगान में
या छिपी हो सुर-ताल में
या उलझी हो समुद्र के
भँवर-जाल में।
बताओ तो छिपी कहाँ
सुंदर सूरत में
या अच्छी सीरत में
या फिर चरित्र में
आख़िर कहो तो
हो बसती किसमें।
कहीं छिपी तो नहीं
सैनिकों की ललकार में
या मल्लाह के पतवार में
या नदी के बीच मझधार में
या आन्दोलन से उपजे
हाहाकार में।
कहाँ हो कविता
शब्दों के ताने-बाने में
या कही गई जो बात
अनजाने में
पनघट पर पनिहारन के
गुनगुनाने में
या रंगीन परों वाली तितलियों के
उड़ जाने में।
कहाँ हो कविता
आख़िर हो कहाँ
मुझे तो लगता है
तुम हर जगह हो
हर किसी का सपना हो
या हो किसी के सपनों में।
हाँ तुम हो
वन की हरियाली में
पर्वत, पहाड़ में
कलकल करती झरने में
और हो कण-कण में
जहाँ प्राण शेष है
अभी भी
हाँ! अभी भी।
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