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ख़ामोशियों की ज़ुबान

जज़्बातों को बयां करने में असमर्थ,
ज़ुबां पर ताले और दिल में शोर लिए
निकली थी सीखने 'ख़ामोशी' पढ़ने का हुनर।
सुना था "ये ख़ामोशी कुछ तो कहती है",
पर अब जाना शब्दों से ज़्यादा शोर तो ये ख़ामोशी करती है।
 
बाग़ों में देखा तो सारे फूल भी ख़ामोश थे।
क्या मौन रहकर ये भी कुछ कहते हैं?
अकड़ते है अपनी ख़ूबसूरती पर,
या हर वक़्त मुरझाने का डर लिए रहते है?
 
नदियों में देखा तो उसका पानी भी ख़ामोश था।
क्या इनकी शांति भी कुछ कहती है?
गर्व है अपने बहते रहने पर,
या लोगों के पापों का बोझ हरदम सहती है?
 
आसमां में देखा तो वो चाँद भी ख़ामोश था।
क्या उसकी चुप्पी भी कुछ कहती है?
गुमान है उसे अपनी चाँदनी पर,
या तारों के बीच अपनी तन्हाई बयां करती है?
 
लौटकर आई जब कमरे में अपने, तो सोचा,
क्या इसके दीवारों की ख़ामोशी भी कुछ कहती है?
जलती है ये मुझे ख़ुशी से नाचता देख,
या मेरे ग़म के आँसू पोंछने को तरसती है?

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