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क्या पता है तुमको, मोल अपनी आज़ादी का

करते थे ग़ुलामी, 
उन ग़ैर, गोरे अँग्रेज़ों की। 
पाते थे हम सूखी रोटी, 
अपने मेहनत भरे दानों की। 
 
माँगते थे न्याय जब, 
हम पर किए गए अपराधों का। 
खाते थे कोड़े सब, 
बदले दिये गए फ़रमानों का। 
क्या पता है तुमको, मोल अपनी आज़ादी का। 
 
क्या सुनी है तुमने, 
अमर शहीदों की कहानी। 
पीठ पर बाँध पुत्र को, 
चली लड़ने झांसी की रानी। 
युद्ध में चाहे जो भी हो, 
नहीं रुकते स्वतंत्र सेनानी। 
राजपाट का मोह छोड़, 
आग में कूदे लाख स्वाभिमानी। 
ताकि सजा रहे साज, 
स्वतंत्र लहरा रहे तिरंगे का। 
क्या पता है तुमको, मोल अपनी आज़ादी का। 
 
जिसके सम्मान में शीश झुकाए, 
जिसकी शान में शीश कटाए। 
ताकि बना रहे गौरव, 
उन अमर शहीदों का। 
क्या पता है तुमको, मोल अपनी आज़ादी का। 

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