क्यूँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. गौरव कक्कड़ ’वारिस’5 Jan 2008
क्यूँ रुक गई है ज़िंदगी
आ कर इस ऐसे मोड़ पर
जहाँ से तो सफ़र शुरू होना था अभी
शुरू होनी थी हौंसलों की कवायाद
सपनों की उड़ान
तमन्नाओं का नूर
रोशनी के रंग
बादलों का सफ़र....
क्यूँ रुक जाती आखिर
ऐसे इक मोड़ पे ज़िंदगी
जहाँ से साफ नज़र आती है मंज़िल
वो मंज़िल कि जिसकी तलाश में
बरसों का बनवास काट के
रस्ते पे रस्ते नाप के
कुछ पुन्य के कुछ पाप के
अपनों को पीछे छोड़ के
रिश्तों के धागे तोड़ के
पहुँची थी अब इस मोड़ पे...
सोचा था मंज़िल पाएगी
झूमेगी नाचे गाएगी
पलकों पे रक्खे ख़्वाब सब
अब सच करके दिखाएगी
... पर हो नहीं सकता कभी
जिसको कि होना ही ना था
शायद लिखा हो ये ही कि
मंज़िल से पहले कुछ कदम
बस हार जाना था इसे
बस टूट जाना था इसे
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