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लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहक: ज़िंदा मैं

लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं
लेखक: अशोक जैन
प्रकाशक: अमोघ प्रकाशन, गुरूग्राम
मूल्य: ₹80/-

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात्‌ पाँच वृक्ष। ये पाँच पेड़ थे: पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पाँच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक-कवि-सम्पादक श्री 'अशोक' जैन का लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने मुझे यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई 'बूढ़ा बरगद' (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं के लेखक श्री वीरेंदर 'वीर' मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है। 

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह "ज़िंदा मैं" में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएँ निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएँ सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना 'डर' भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। 'मुक्ति-मार्ग' एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढ़ी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। 'गिरगिट' यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, 'हरी बाबू', 'हरखू'। हालाँकि ये लघुकथाएँ समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं। 

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, 'टूटने के बाद' व 'दाना पानी'। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार 'आरपार' में लालटेन को लेकर, 'खुसर-पुसर' में चित्र के द्वारा, 'बोध' में क़दमताल व 'माहौल' में बादलों के ज़रिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। 'जेबकतरा' इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। 'पोस्टर' भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे 'गिरगिट' में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे 'मौकापरस्त'। ज़्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीक़े से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएँ पठनीय हैं। अशोक जैन जी की क़लम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की क़ूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं।

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टिप्पणियाँ

मुकेश कुमार 2021/12/22 09:40 PM

लाजवाब समीक्षा.

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