अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

लिखना तो बहाना है

कई बार मैंने अपने पिताजी से आग्रह किया कि पिताजी दादाजी के बारे में कुछ बताएँ? सुना है दादाजी धनीमानी, निर्भीक, बहादुर, उदारमना व्यक्ति थे। ज़रूरतमन्दों की धन आदि से बड़ी मदद करते थे, घोड़ी पर चलते थे, पढ़े-लिखे भी थे? परन्तु, पिताजी ने कभी भी मेरे प्रश्नों का जवाब नहीं दिया। जब कभी भी मैंने उनसे कुछ पूछना चाहा तब वह मौन धारण कर लिया करते; लाख आग्रह करने पर भी टस-से-मस नहीं होते। किन्तु, इस बार उनका मौन, पता नहीं कैसे, टूट ही गया! बस, भेद इतना-सा था कि अबकी बार प्रश्न मेरे नहीं थे, बल्कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र ओम के थे। 

पिताजी ओम से अत्यधिक प्रेम करते हैं। जब ओम ने पिताजी से अपने परदादा के बारे में पूछना प्रारंभ किया तब उन्होंने बड़ी मुश्किल से संक्षेप में दो-चार बातें बतायीं। मैं भी उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहा था। उन्होंने बताया कि अतीत के बारे में बात करने से कोई लाभ नहीं है। ऐसा करने से कभी-कभी मन को कष्ट भी होता है। इसलिए, अपने अतीत पर चर्चा करना मुझे ठीक नहीं लगता! फिर भी, तुम्हारा आग्रह है इसलिए बताना पड़ रहा है। तुम्हारे परदादा अपनी युवावस्था में मज़बूत कद-काठी के थे। प्रभावशाली व्यक्तित्व। कड़क मिज़ाज। पढ़े-लिखे, सभ्य। खाने-पीने के शौक़ीन। उनके पास एक बेहतरीन घोड़ी थीं। आज़ादी से लगभग 10 वर्ष पूर्व उनका विवाह धनवाली गाँव के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। आज़ादी के बाद वह रेलवे में नौकरी करने लगे। उनकी पहली पोस्टिंग बनारस में हुई थी। वह चार भाई थे-सबसे बड़े श्रद्धेय (स्व) अर्जुन सिंह जी, दूसरे नंबर पर वह स्वयं और दो छोटे भाई-श्रद्धेय (स्व) वन्दन सिंह जी और श्रद्धेय (स्व) रघुवीर सिंह जी। चारों भाई बड़े निर्भीक और बहादुर थे; उनके लगभग डेढ़-डेढ़ गज़ के सीने थे; लाठी चलाने में सभी माहिर थे, आसपास के गाँवों में उनका बड़ा दबदबा था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रह चुके उनके पिता (आपके परदादा) श्रद्धेय (स्व) नवाब सिंह चौहान जी अपने क्षेत्र के अति संपन्न व्यक्तियों में से एक थे। वह ससुराल पक्ष से भी बहुत मज़बूत थे। उनके पास समय-सापेक्ष सब सुख-सुविधाएँ थीं। अच्छी खेती-बाड़ी थी। गौधन था। अच्छी आमदनी थी। और वैसे ही ख़र्च। उन्होंने अपनी सामर्थ्यभर अपने बेटों की अच्छी परिवरिश की। किन्तु, नियति को कुछ और ही मंज़ूर था! 

हुआ यह कि जब उनके बेटे जवान हुए तो उनके तीन बेटे ऐशो-आराम का जीवन जीने लगे। काम-धाम में उन भाइयों का मन नहीं लगता, सो उनका ज़्यादातर समय ननिहाल हथिनापुर (बिधूना के पास) में ही बीतता था। ननिहाल में उनके मामा जी अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पास लगभग 700 बीघा ज़मीन थी। 20-20 बीघा के दो-तीन बाग़ थे। पुश्तैनी कोठी थी। घोड़ा-गाड़ी थी। नौकर-चाकर थे। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्र हो चुका था, स्वतंत्र भारत में अपना संविधान लागू हो चुका था, प्रथम लोकसभा के लिए आम चुनाव होने वाले थे। भारत के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखे जा रहे थे। श्रद्धेय नवाब सिंह जी कुछ और भी देख रहे थे। उन्होंने देखा कि उनके बेटे अपनी अलग राह पर चल रहे हैं। उनकी अपनी ढपली, अपना राग था। जवानी की आग। झगड़े-फ़साद। मनमाना जीवन। धन का अपव्यय। मीट, मुर्गा, दारू, जुआ। पारिवारिक कलह। ऐसे में उन्हें अपने दूसरे बेटे जोधा सिंह की याद आई और अंतिम विकल्प के रूप में वह उन्हें घर वापस लाने के लिए बनारस को चल पड़े। बनारस, जहाँ उनका लाड़ला बेटा जोधा सिंह जी रेलवे में कार्यरत था। 

बनारस पहुँचकर जैसे-तैसे उन्होंने अपने बेटे को मनाया और उनसे रेलवे की नौकरी छोड़ने का आग्रह किया। वह अपने पुत्र से बड़े कातर भाव में बोले कि “बेटा, मेरे पास किसी बात की कमी नहीं। फिर भी, ऐसा लगता है कि मैं भीतर से टूट गया हूँ, अकेला पड़ गया हूँ। मुझे तुम्हारे सहारे की ज़रूरत है। अब तुम घर चलो।” इसे नियति मान अपने पिता के आदेश का पालन करने के लिए वह रेलवे की नौकरी छोड़ अपने पिता के साथ गाँव चले आए। उन्होंने गाँव आकर बहुत परिश्रम किया। खेती की। कारोबार किया। और ख़ूब धन कमाया। वह ज़रूरतमंद लोगों को ब्याज पर या बिना ब्याज के भी धन उधार देने लगे। उनका लेन-देन का व्यापार भी चल निकला। आस-पास के तमाम गाँवों के लोग उनसे क़र्ज़ लेते और काम होने पर कई भले लोग क़र्ज़ चुका भी देते। हाँ, कुछ ऐसे लोग भी रहते जो क़र्ज़ नहीं भी चुका पाते थे और कुछ ऐसे भी जो क़र्ज़ लेकर क़र्ज़ चुकाना ही नहीं चाहते थे। क़र्ज़ न चुकाने वालों के लिए वह सिर्फ़ इतना कहते कि उन्होंने उन लोगों का पिछले जन्म में कुछ खाया-पिया होगा, सो वह सब चुकता हो गया और यदि नहीं खाया-पिया होगा तो वे लोग अगले जन्म में चुकायेंगे ही। सन्तोषी स्वभाव के पिताजी अपने दद्दा की इन जीवनोपयोगी बातों को जस-का-तस बड़े प्रेम से मन-मस्तिष्क में धारण करते रहे। 

क़र्ज़ लेने वालों में उनके एक ऐसे परम मित्र भी थे, जिन्होंने सम स्थिति में भी उनका क़र्ज़ नहीं चुकाया। वह कुसमरा गाँव (बिधूना तहसील में धनवाली के पास) के अति संपन्न व्यक्तियों में से एक थे। वह गाँव के प्रधान थे। उनके दो भट्टे थे। एक आढ़त चलती थी। उनके पास कई हेक्टेयर ज़मीन भी थी। श्रद्धेय जोधा सिंह जी का उनसे परिचय उनकी ससुराल (धनवाली-बिधूना, औरैया) में उनके साले साहब श्रद्धेय छोटे सिंह जी परिहार ने करवाया था। सहज स्वभाव के श्रद्धेय छोटे सिंह जी धनवाली गाँव के समृद्ध व्यक्ति थे। उनके पास लगभग 200 बीघे ज़मीन थी। कई बाग़-बगीचे थे। एक हलवाहा खेत जोतने के लिए था। एक नौकर भी उनके यहाँ रहता था। दिन मज़े से गुज़र रहे थे कि तभी कुसमरा के उन मित्र का गाँव के ही एक सम्पन्न परिवार से प्रथम प्रधानी के बस्ते को लेकर विवाद हो गया, जिसमें एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। हत्या का आरोप उन पर लगा और उन्हें जेल जाना पड़ा। उनकी अनुपस्थिति में आहत विपक्षियों ने उनकी आढ़त और भट्टों को बंद करवा दिया। खेत बोने नहीं दिये। घर में और कोई उनका साथ देने वाला था नहीं! उनकी पत्नी और बच्चे गाँव छोड़कर उनकी ससुराल चले गए। घर-गृहस्थी चौपट हो गयी। आमदनी ख़त्म हो गयी और ख़र्चे तो थे ही। ऐसे में श्रद्धेय जोधा सिंह ने मित्र-धर्म का निर्वहन करते हुए उन्हें धीरे-धीरे लगभग रु. 70,000/-(सत्तर हजार) बिना ब्याज के उधार दिए। उन्होंने उनकी ज़मानत करवाई। उन्होंने जनपद में उनका केस लड़ने से लेकर हाईकोर्ट इलाहबाद में केस जीतने तक, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह आदि में भी उन पर बहुत धन ख़र्च किया। उनके विस्थापित परिवार को पुनर्स्थापित करने में पुरज़ोर मदद की। पिताजी और ताऊजी इसके साक्षी रहे। पिताजी बताते है कि जब वह कक्षा 10 के छात्र थे तब उन्हें दादाजी ने उन मित्र की बेटी की शादी के लिए रु. 10,000/-(दस हज़ार) देने के लिए भेजा था, जिससे उनकी बेटी का विधिवत विवाह उच्च घराने में हो सका था। उनके घर में ख़ुशियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया था। खोया सम्मान वापस मिल रहा था। भारत आगे बढ़ रहा था। भारतीय सेना 1967 में नाथु ला दर्रे में चीन के साथ हुई भिड़ंत में अपना कीर्तमान स्थापित कर चुकी थी। 

पिताजी का जन्म 10 जुलाई 1951 को चंदपुरा गाँव में हुआ था। सात माह में ही अपनी माँ के गर्भ से जन्म लेने के कारण जन्म के समय न तो उनकी आँखें ही खुली थी और न ही होंठों से कोई स्वर फूटा था। इस नवजात शिशु को रूई में लपेटकर पीढ़ी पर लिटा दिया जाता था और होंठों पर रूई का फोहा दूध में भिगोकर रख दिया जाता था। दादी माँ श्रद्धेया रामबेटी जी बड़ी साधिका थीं, सो उन्होंने अपने इष्टदेव से कह दिया कि अब उन्हें ही इस बच्चे की रक्षा करनी है। जीवन बचाना है। शायद ईश्वर ने उनकी सुन ली! चमत्कार हुआ। लगभग 02 माह बाद पिताजी श्री प्रहलाद सिंह जी (छोटे लला) ने आँखें खोलीं। गाँव में ढिंढोरा पिट गया। उत्सव मनाया गया। घर-परिवार के लोगों ने उन्हें दुआएँ दी। पिताजी अपने पिता की तीसरी सन्तान थे। उनके बड़े भाई श्रद्धेय (स्व) निरंजन सिंह जी (बड़े लला) उनसे लगभग 12 वर्ष बड़े थे और उनकी इकलौती बहन श्रद्धेया (स्व) बिट्टा देवी जी भी उनसे लगभग 5-6 वर्ष बड़ी थीं। पिताजी जब बाल्यावस्था में ही थे कि तभी उनके दादाजी श्रद्धेय नवाब सिंह जी को किसी ने ज़हर दे दिया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनकी जायदाद का बँटवारा पहले ही हो चुका था। उनके चार बेटे अलग-अलग अपना घर-द्वार बनाकर अपने परिवारों के साथ प्रेम से रहने लगे थे। अपने पिताजी के साथ दादाजी भी अलग पुश्तैनी कच्चे मकान में रहने लगे थे। उनका यह मकान 1925 में किसी भवन निर्माण विशेषज्ञ की देख रेख में बनवाया गया था। इस मकान के दो कच्चे कमरे गाँव के हमारे पक्के मकान के भीतर अब भी अच्छी स्थिति में मौजूद हैं। दादाजी का बड़ा बेटा जवान हो रहा था। जवान होते ही एक दिन अचानक उनके इस बड़े बेटे ने भारतीय सेना की भर्ती देखी और वह चुन लिये गए। उनका धूमधाम से विवाह कर दिया गया। बुआजी का भी विवाह तरसमा (पोरसा, मुरैना) के एक तोमर परिवार में कर दिया गया। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। दादाजी की उम्र भी धीरे-धीरे बढ़ रही थी और पिताजी अभी बहुत छोटे थे। दादाजी बीमार भी रहने लगे थे। खाँसी की शिकायत। इटावा जनपद के बड़े-बड़े डॉक्टरों ने उनका इलाज किया, किन्तु वह भी उनकी खाँसी की बीमारी को ठीक न कर पाए। कुछ दिन आराम मिलता, फिर वह बीमार पड़ जाते। उनका शरीर शिथिल हो रहा था। इसी दौरान उन्होंने पिताजी को कुसमरा अपने मित्र के पास अपना रुपया वापस लेने के लिए कई बार भेजा। जब पिताजी उनके मित्र के घर पहुँचते तो उनका बहुत स्वागत होता। किन्तु, जब वह उनसे क़र्ज़ चुकाने के लिए कहते तो वह रो देते और कहते कि उनका बड़ा बेटा अध्यापक हो गया है, अब घर का मालिक वही है, वह ज़मीन नहीं बेचने देता, क़र्ज़ देने से मना करता है (कुछ वर्षों बाद उनका छोटा बेटा भी डॉक्टरी की पढ़ाई कर सरकारी डॉक्टर हो गया और बिधूना में प्रैक्टिस भी करने लगा था)। उनके आँसुओं को देखकर पिताजी द्रवित हो जाते। बाद में पिताजी ने उनके घर जाना ही बंद कर दिया था! 

कई वर्षों तक संघर्ष करते रहने के बाद एक दिन अचानक दादाजी का देहांत हो गया। कारण वही। वह घोड़ी से उतरे ही थे कि उन्हें ज़ोर से खाँसी उठी और फिर उनकी साँस अटक गई। उस दिन वह कचहरी से ज़मीन-सम्बन्धी मुक़द्दमा जीत कर लौटे थे। विपक्षियों ने उनकी ज़मीन छल से अपने नाम करा ली थी और उस पर क़ब्ज़ा जमा लिया था। उन्होंने सत्य पर अडिग रहकर अपने जीवनकाल में पहले भी कई मुक़द्दमे जीते थे। यह आख़िरी जीत थी। और एक प्रकार से बड़ी हार भी। हार इसलिए कि देहांत के समय दादाजी का लगभग रु. 700,000/-(सात लाख), जोकि ब्याज और बिना ब्याज के लोगों में बँटा हुआ था, डूब गया। कहते हैं उस समय रु. 1000/-(एक हज़ार) में एक एकड़ ज़मीन ख़रीदी जा सकती थी। पिताजी उस समय B.Sc. (Ag) स्नातक-प्रथम वर्ष के छात्र थे; उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। दादाजी का धन भी डूब चुका था। ताऊजी भी बँटवारा कर अपने परिवार के साथ अलग रहने लगे थे। घर चलाने के लिए थोड़ी-बहुत ज़मीन बची थी और दादी के पास थोड़ा-बहुत पैसा। कुसमरा की 60 बीघा ज़मीन दादाजी अपने मित्र की मदद करने के लिए पहले ही बेच चुके थे और धनवाली में जो 50 बीघा ज़मीन उन्होंने कभी ख़रीदी थी, उसमें से लगभग आधी ज़मीन को दादाजी की मृत्यु के बाद ताऊजी ने अपने मामाजी जी के सहयोग से बेच तो दिया और बेचने के समय पिताजी उनके साथ ननिहाल भी गए थे, परन्तु पिताजी को एक भी पाई हिस्से में नहीं मिली। इन विषम परिस्थितियों में भी पिताजी ने अपना संतुलन नहीं खोया। उनके ताऊजी से सम्बन्ध सदैव मधुर बने रहे। वह ताऊजी एवं ताईजी से बहुत स्नेह करते रहे, उनका ख़ूब सम्मान करते रहे। ताऊजी और ताई जी भी जीवनभर उन्हें उतना ही प्यार देते रहे। पर जाने क्यों दादीमाँ सदैव मौन धारण किये रहीं! कभी उनके बारे में कोई बात नहीं करतीं। चुप रहतीं। धैर्य भी बनाए रखा, कभी टूटी नहीं। वह बड़ी साहसी थीं। कड़क-मिज़ाज। स्वाभिमानी। आदर्शवादी। गाँव की महिलाएँ उनसे डरती थीं क्योंकि ग़लत बात करने वाली महिलाओं को वह मुँह पर ही डपट देती थीं! वह उच्च कोटि की साधिका भी थीं। उन्होंने पिताजी की ठीक से परवरिश की, उनकी पढ़ाई पूरी करवाई। पिताजी ने भी उनका पूरा ख़्याल रखा। उनकी आज्ञा मानी। पढ़ाई के दौरान पिताजी छात्र राजनीति में सक्रिय हुए और छात्र संघ के चुनाव में प्रचण्ड बहुमत से सचिव चुने गए। पढ़ाई पूरी होते ही वह राजनीति में हाथ-पाँव मारने लगे। राजनीति में वह सफल तो नहीं हुए, परन्तु क्षेत्र के लोग उन्हें नेताजी कहने लगे। 1977 में उनका विधिवत विवाह गोरखपुर (कन्नौज) की उमा देवी जी बैस से हो गया। माँ ने बड़ी लगन और निष्ठा से घर-गृहस्थी सम्भाली। एक अच्छी बहू के रूप में माँ ने दादीमाँ की ख़ूब सेवा की। सेवा ऐसी कि उन्होंने (और पिताजी ने भी) केंद्र सरकार की नौकरी तक छोड़ दी, किन्तु अपनी सास का साथ कभी नहीं छोड़ा (जिस समय माताजी-पिताजी का सरकारी सेवा में चयन होने के बाद उन्हें सर्विस ज्वाइन करने के लिए दिल्ली जाना था, दादी माँ की तबियत बहुत ख़राब चल रही थी)। बाद में माताजी की नियुक्ति गृह जनपद के एक इंटर कॉलेज में भी हुई थी; परन्तु, दमा की मरीज़ दादीमाँ की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सकता। इसलिए, उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। उनका यह त्याग कम तो नहीं! 

समय ने फिर करवट ली। पिताजी का लगभग एक वर्ष बाद पुनः उत्तर प्रदेश कृषि विभाग में चयन हो गया और उनकी पहली पोस्टिंग मथुरा में हुई। एक वर्ष बाद उनका स्थानांतरण इटावा हो गया, जहाँ वह रिटायरमेंट तक सेवारत रहे (इसी दौरान एक-आध साल के लिए उन्हें मैनपुरी भी भेजा गया)। मेरा और मेरी छोटी बहन अलका (जिसकी बाल्यावस्था में पानी में डूबने से मृत्यु हो गई थी) का जन्म हो चुका था। मैं स्कूल पढ़ने जाने लगा था। गाँव के प्राथमिक विद्यालय में। एक दिन मुझे अचानक स्कूल से बुलवाया गया। घर पहुँचकर देखा कि दादीमाँ माताजी से कह रही थीं कि बहू, मुझे ज़मीन पर लिटा दो, मेरा समय आ गया है। घर-परिवार के लोग यह देख-सुन फूट-फूटकर रोने लगे। दादीमाँ को ज़मीन पर लिटाया गया। उन्हें तुलसीदल और गंगाजल दिया गया। उन्होंने मेरी माँ से फिर कहा कि तुमने मेरी बड़ी सेवा की है, ईश्वर से यही प्रार्थना है कि तुम सदैव सुखी रहो! कुछ पल बाद उनका शरीर बड़ी सहजता से शांत हो गया। उनके झुर्रीदार चेहरे पर असीम शान्ति थी, अद्भुत आनंद का भाव था। उस दिन तारीख़ थी 16 अप्रैल, सन 1985। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अम्मा
|

    बहुत पहले श्रीमती आशा पूर्णा…

इन्दु जैन ... मेधा और सृजन का योग...
|

२७ अप्रैल, सुबह ६.०० बजे शुका का फोन आया…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

व्यक्ति चित्र

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

बात-चीत

सामाजिक आलेख

गीत-नवगीत

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं