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जीवन को सुवासित करतीं रचनाएँ – अवनीश सिंह चौहान


समीक्षित कृति: ढाईआखर प्रेम के
रचनाकार: शचीन्‍द्र भटनागर
प्रकाशक: हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन, बिजनौर (उ.प्र.)
प्रकाशन वर्ष: 2010
मूल्‍य: रु.100/-

आचार्य ओशो ने कहा है–‘प्रेम में तुम न रहो, प्रेम रहे।' यानी कि प्रेम की उस अवस्‍था में पहुँचना कि कर्ता को अपना भान न रहे– वह भूल जाये अपने आपको, भूल जाये अपने भौतिक स्‍वरूप को/ देह को और बस याद रहे तो प्रेम। प्रेम की यह है उच्चावस्था। इस अद्भुत प्रेम-मग्न अवस्‍था को उद्‌घाटित करता मूर्धन्य साहित्यकार शचीन्‍द्र भटनागर का गीत-संग्रह– ‘ढाई आखर प्रेम के‘ में 67 रचनाएँ संगृहीत हैं, जिसमें उनके जीवन के विभिन्‍न काल-खण्‍डों की प्रेमानुभूतियों को अवरोही क्रम में सहेजा गया है। शचीन्द्र जी का यह गीत संग्रह भावकों को जहाँ प्रेम की अनूठी ख़ुशबू से परिचय कराता है, वहीं जीवन को सुवासित करने हेतु अनुपम संदेश भी देता है। उनका यह सन्देश उनकी अनवरत प्रेम-साधना का सुफल ही है; किन्तु प्रेम को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर साधना करना इतना आसान भी नहीं है। इसलिए समय-समय पर उनकी इस पावन साधना में कई अवरोध आये, कष्‍ट आये, किन्‍तु उनका धैर्य कभी नहीं टूटा, उनका आत्‍म-विश्‍वास कभी नहीं डिगा, क्योंकि उन्हें पता है कि साधना में साधक को तपना ही पड़ता है– "इतना तप लेने दो मुझको/ यह जीवन कुंदन बन जाए/ श्‍वांस-श्‍वांस चंदन बन जाए।"

इस सुजला, सुफला, शस्य श्यामला धरती पर ऐसे मनुष्य कम ही दिखाई पड़ते हैं, जिनका जीवन कुंदन बन गया हो, चंदन बन गया हो। इन थोड़े मनुष्यों में एक नाम इस गुणी कवि का भी सहर्ष जोड़ा जा सकता है। स्वभाव से साधु इस कवि की सोच का दायरा बहुत बड़ा है क्योंकि उसमें सहज रूप से ‘स्‍व‘ से ‘सर्व‘ की भावना अपना आकार ले चुकी है। शायद इसीलिए उसकी सद-कामना है, सद-इच्‍छा है–

मुझे न लाओ उस उपवन में
जिसमें केवल आकर्षण हो,
मुझे न दो तू ऐसा पारस
लौह जिसे छूकर कंचन हो

वह पारस दो, जिसे परस कर
माटी भी कंचन बन जाए
हर बंजर उपवन बन जाए।

कुछ इसी तरह की सुन्दर अभिलाषा डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया के लोकप्रिय गीत ‘नदी का बहना मुझमें हो‘ में भी की गई है– "मेरी कोशिश है/ कि/ नदी का बहना मुझमें हो/ जहाँ कहीं हो/ बंजरपन का-/ मरना मुझमें हो" (नदी का बहना मुझमें हो)। उक्त पंक्तियों में भदौरिया जी जहाँ 'बंजरपन' के मरने की बात करते हैं, वहीं भटनागर जी 'बंजर' के उपवन में तब्दील हो जाने की बात करते हैं। दोनों रचनाकारों के मंतव्यों में बड़ी साम्‍यता है और इस प्रकार दोनों ही रचनाकार जगत के कल्‍याण की ही बात करते हैं– कभी परमार्थ के माध्यम से तो कभी प्रेम के माध्यम से। कहने का आशय यह है कि प्रेम में ही परमार्थ निहित है और परमार्थ में प्रेम। यहाँ पर ख़लील जिब्रान एक बात याद आती है– "ख़ूब किया मैंने दुनिया से प्रेम और मुझमें दुनिया ने, तभी तो मेरी मुस्‍कुराहट उसके होठों पर थी और उसके सभी आँसू मेरी आँखों में।" यह प्रेम की चेतना का व्‍यापक स्‍वरूप नहीं, तो और क्‍या है? और यह चेतना वाह्‍य सौन्‍दर्य पर अवलम्बित नहीं है। वाह्‍य सौन्‍दर्य क्षणिक होता है और उसका आकर्षण अस्‍थाई, कवि यह बात भली-भाँति जानता है। तभी तो वह मन की आँखों से प्रेम के उस शाश्‍वत स्वरूप का दीदार करना चाहता है जो जीवन को एक नया आयाम दे सकने की पूरी सामर्थ्य रखता हो– "रूप दिखाओ, जो भीतर की-/ आँखों का अंजन बन जाए/ अक्षय आकर्षण बन जाए।"

कवि की प्रिया-प्रियतम से यह गुहार आख़िर किसलिए है? ताकि प्रेम का यह आयाम समाज के सामने एक आदर्श बनकर सामने आए– ऐसा आदर्श, जिसे लोग जानें, समझें और जीवन में उतारें। साथ ही वे यह भी महसूस करें कि प्रेम कोई फ़ैशन नहीं है, सामयिक चलन नहीं है कि जब मन में आये, जिस पर मन  आये, व्यक्ति प्‍यार करने लगे और जब जी भर जाये तो वह मुँह फेर कर बैठ जाये और झट से कह दे– 'गुड बाय, गर्ल फ्रेंड–बाय फ्रेंड'; या– ‘गो टु हैल‘! सोद्देश्य या स्‍वार्थ पर आधारित ऐसा प्रेम कुछ समय के लिए ही हो सकता है, इसमें नित्‍य तीव्रता और समर्पण का अभाव होना स्वाभाविक ही है। कवि यह सब भली-भाँति जानता है और इसलिए प्रिया-प्रियतम से उसका यही कहना है–

यहाँ किसको समय है
प्‍यार से देखे
तुम्‍हारी ओर पल-भर भी
तुम्‍हारी बात तो है दूर
सुन पाता नहीं कोई
यहाँ अपना मुखर स्‍वर भी
 
मीत/ मत छेड़ो/ मधुर संगीत लहरी अब
धरा स्‍वर से
सजाने की सनातन सौम्‍य अभिलाषा
न कोई समझ पाएगा।

यह सच है कि हममें से कई लोग अपने हृदय की गहराइयों में उतर नहीं पाते, अपने अंतस की आवाज़ को सुन नहीं पाते और इसीलिए प्यार में ही नहीं, जीवन-व्‍यवहार में भी असफल हो जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है– "हमारी दृष्‍टि पैनापन/ पुरातन खो चुकी अपना" तथा "स्‍वनिर्मित पंथ पर हम/ भूमि से आकाश तक को/ नापने में व्‍यस्‍त हैं इतने/ सहज संवेदना की/ सोधती अमराइयों में घूमना संभव न हो पाता।" इस दृष्‍टि से शेक्‍सपीयर का मानना–"प्रेम आँखों से से नहीं, हृदय से देखता है" काफ़ी तर्कसंगत लगता है। किन्तु आज की स्‍थिति उलटी-पलटी है। आज प्रेम ने हृदय से कम, आँख या दिमाग़ से देखना ज़्यादा प्रारम्‍भ कर दिया है, जिसका परिणाम हम सबके सामने है।

इस भौतिक संसार में प्रेम के दो रूप–वियोग और संयोग अपना रस अपने-अपने ढंग से बिखेरते रहे हैं। कवि यह सब जानता है और शायद इसीलिये इस संग्रह में दोनों ही रूपों का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। कवि का वियोगी मन प्रिय के जाने पर कैसा महसूस करता है, ज़रा देखें–

तुम्‍हें गए कुछ दिन बीते हैं
पर मुझको अरसा लगता है

गुमसुम हैं सारी दीवारें
छत भी है रोई-रोई-सी
आँगन के गमले में तुलसी
रहती है खोई-खोई-सी
 
द्वार किसी निर्जन तट वाले
सूखे सरवर-सा लगता है।

गीतकार का यह भाव सहृदयों को पूरी तरह से संवेदित करता है, किन्‍तु उसकी इस अभिव्‍यक्‍ति में लेश-मात्र शिकायत, झुँझलाहट या खीज दिखाई नहीं पड़ती। हाँ, यह सच है कि प्रिय की अनुपस्‍थिति उसकी आँखों को द्रवित ज़रूर कर रही है। और इसीलिये वह बेचैनी में, अकुलाहट में, पीड़ा में कह उठता है– "तुम क्‍या गए/ कि भीगी पलक पवन सोया है/ मन रोया है।" प्रेम की इन पावन एवं उद्‌दात अनुभूतियों से ओतप्रोत यह रचनाकार निराश नहीं है, बल्‍कि उसका स्‍वर पूरी तरह से आशावादी है। वह संपूर्ण विश्‍व को प्‍यार का संदेश देता हुआ बड़ी साफ़गोई से अपना विश्वास प्रकट करता है–

विश्‍व की सारी दिशायें
एक होकर अब मिलेंगी
जाति की संकीर्णताएँ
टूट जायेंगी, मिटेंगी
 
अब ना कोषों में पराया
शब्‍द कोई भी रहेगा
विश्‍व भर अपनत्‍वपूरित
प्‍यार का संदेश देगा।

संपूर्ण विश्‍व के मंगल की कामना करने वाले इस कवि की अपनत्‍वपूरित इच्‍छा है कि 'प्‍यार की पुरवाई' उसके घर भी डोले और फिर से उसका आँगन, छत, दीवारें, तुलसी खिल-खिल उठे। इसलिए जब (एक गीत में) प्रिय का आगमन होता है, मिलन की घड़ी आती है, प्रेमी भावुक हो उठता है और उसकी संवेदना तरल हो जाती है– "तुम आए/ तो सुख के फिर आए दिन/ बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन।" कहीं यह ‘कृष्‍ण‘ का ‘राधा‘ से मिलन जैसा भाव तो नहीं? यदि हाँ, तो डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी यहाँ बरबस याद आते हैं– "एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से/ आज मेरा मन स्‍वयं देवल बना/ मैं अचानक रंक से राजा हुआ/ छत्र-चामर जब कोई आँचल बना" (शिखरणी)। किन्तु इस मिलन में प्रेमी अपना विवेक नहीं खोता, बल्‍कि वह न केवल अपने आपको, अपनी प्रिय को बड़े प्यार से समझाये-बुझाये रखता है; कवि कहता भी है–"मत बहकी-बहकी बात करो/ मन में मत झंझावत करो/ ना जाने पिंजरे की मैना/ कब द्वार खोल उड़ जाएगी।"

जल की तरह निर्मल एवं पारदर्शी भावनाओं को उकेरते ये मर्मस्पर्शी गीत कवि के रागात्‍मक आयाम से न केवल परिचय कराते हैं, बल्‍कि उनकी कहन, उनके शब्‍द भावक को प्रेम का सुंदर पाठ भी पढाते हैं– एक ऐसा पाठ जो बताता है कि प्रेम आदमी को आदमी बनाता है, उसकी कार्यक्षमता एवं खूबसूरती को बढाता है और उसकी ऐसी दुनिया के निर्माण में सहायक बनता है जहाँ मनुष्‍यता के मीठे एवं मोहक स्‍वरों में गीत गाये जाते हैं। यही है प्रेम का व्‍यापक स्‍वरूप– दो प्रेमियों के निजी रागों से ऊपर उठकर सबको अपने में समाहित कर लेने की चाहत याकि इन सबमें अपने को समाहित करने की सुखद लालसा। प्रख्‍यात आलोचक/नवगीतकार दिनेश सिंह जी के शब्‍दों में कहूँ तो– "यहाँ यह ढाई आखर वाला प्रेम सारे शास्‍त्रों के सार तत्‍व रूप में प्रस्‍तुत हुआ है.... यह प्रेम इस अर्थ में जीवन जगत के प्रति संवेदनात्‍मक रवैया की सीख से है।" इस सीख को सीख लेने पर जो चेतना आती है, जो परिष्कार होता है, जो स्थिति बनती है उसे बाबा कबीरदास जी कुछ इस प्रकार से व्यंजित करते हैं– "ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्‍डित होय।"

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