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जीवन के गुणा-भाग का कुल योग

समीक्षित पुस्तक: जीवन का गुणा-भाग (नवगीत संग्रह)
लेखक: राजा अवस्थी
प्रकाशक:  श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण:2021
पृष्ठ संख्या: 128
मूल्य: ₹200/ -
आईएसबीएन: 978-93-91081-78-2

भाव-समाधि में कवि के भीतर विशेष प्रकार की ऊर्जा का संचार होता है, जिसका कस्तूरी स्पर्श कवि को सत्य को जानने और संसार को समझने में सहायक तो होता ही है, उसके आंतरिक एवं बाह्य वातावरण को भी रसमयी सुगंध से भर देता है। शब्द-साधना की इस अवस्था में जीवन के गुणा-भाग से उपजे तमाम अनुभव चिन्तनपरक विचारों में और ये विचार किसी सोद्देश्य एवं सुव्यवस्थित काव्य-रूप में परिणित होने लगें, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं— “सुनि आचरजु न मानिहहिं, जिन्ह कें बिमल बिचार” (बाबा तुलसीदास, बालकांड, 33)। 

प्रबुद्ध साहित्यकार राजा अवस्थी के सद्यः प्रकाशित नवगीत संग्रह—“जीवन का गुणा-भाग” की 68 रचनाओं को उलटते-पलटते यह बात और अधिक पुख़्ता हुई कि जीवन के गुणा-भाग का भी अपना मूल्य और प्रभाव होता है। शायद इसीलिये मनुष्य और मनुष्येत्तर जीवन के गुणा-भाग का कुल योग करते हुए यह कवि इस निष्कर्ष पर पहुँचता है— “तोता हुंकारी भरता है/ चिड़िया अमर कथा कहती है/ मन की मैना तन कोटर में/ अपने में खोई रहती है/ सदियों के अनुभव/ दादी समझाती-गाती है/ अक्षर-अक्षर खोल रहे हैं/ अर्थ प्रथाओं के” (‘कथा कौन-सी’, 17)। इस उद्धरण में व्यष्टिगत और समष्टिगत मूल्यों पर निरंतर विचार करता हुआ यह कवि न केवल पौराणिक आख्यानों की याद दिलाते पशु-पक्षियों की वस्तुस्थिति को क़रीने से देखता-समझता है, बल्कि पुरानी और नयी पीढ़ियों के मध्य संवाद स्थापित करती कथाओं और प्रथाओं के माध्यम से कुछ ज़रूरी प्रश्न भी छोड़ जाता है—

अपनी ही पीड़ा के पन्ने
बाँच नहीं पाये
तुमको वे कैसे समझाते
अर्थ व्यथाओं के। (‘कथा कौन-सी’, 17) 

देखने में उपर्युक्त प्रश्न भले ही कठिन न लगे, किन्तु यह उतना सरल भी नहीं है। कारण यह कि कई बार हम अनगिन कथाओं और प्रथाओं के माध्यम से गाहे-बगाहे अपनी बात तो कह देते हैं, किन्तु खुलकर अपनी ही “पीड़ा के पन्नों” को बाँचने का साहस नहीं जुटा पाते? कहीं इसका भी एक कारण यह तो नहीं— “नरभक्षी सिंह हुए/ सिंहासन के सारे/ किससे फ़रियाद करें/ राजा जी के मारे/ धर्मराज चौसर का/ शौक़ पुनः पाले हैं/ कण्ठ से प्रवाहमान/ दाँव की नदी” (‘छाँव की नदी’, 19)। यदि इसका कारण भी कवि के प्रतिरोधी तेवर एवं छटपटाहट को दर्शाती इस रचना में वर्णित इस प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विषमता एवं विद्रूपता है, तो निश्चय ही यह एक बहुत ही गंभीर विषय है। 

वर्तमान समय के कई गंभीर एवं चिंतनीय विषयों, यथा— आपसी मन-मुटाव, द्वन्द्व, संशय, टूटन, बिखराव, टकराहट, अविश्वास, प्रतिशोध, युद्ध, छल, मद, अराजकता, अवसरवादिता, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनाचार, सूखा, अनावृष्टि, महँगाई, बाज़ारीकरण, वोट की राजनीति, नेतृत्व का अभाव, लोकतंत्र की हत्या आदि, पर पारदर्शी शब्दों में दार्शनिक और मानवीय बात रखने वाले इस सजग, संवेदनशील एवं संस्कारी कवि के पास वाणी का बल है, साहस है। मानव मन को निरखने-परखने की क्षमता है। सामाजिक व्यवहार को समझने की सामर्थ्य है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने की लालसा है। अँधेरे में उजियारा फैलाने की इच्छाशक्ति है। शायद इसलिए वह हमारे समाज के मौन और मुखर— दोनों प्रकार के प्रश्नवाचियों का सहचर बनकर उन्हें उम्मीद और दिलासा देने का भरसक प्रयत्न करता है, यथा— 

उम्मीदें जीवित रहने दो
उम्मीदों ने सदा उबारा
इनमें रक्षित है उजियारा। (उम्मीदें जीवित रहने दो, 128) 

बघेली, बुँदेली और गोंडी बोलियों के मिले-जुले शब्दों की संगति व प्रवाहशीलता को समोये राजा अवस्थी अपने इस महत्त्वपूर्ण नवगीत संग्रह के माध्यम से भावकों को उनकी अनुभवभूमियों से जोड़कर उनकी चेतना में उम्मीद की पौध तो रोपते ही हैं, उनका यह रोपण सत्य के धरातल पर मनुष्य को बेहतर व्यवस्था हेतु संघर्ष करने के लिए सतत प्रेरणा भी प्रदान करता है। कहने का आशय यह भी कि राजा अवस्थी, चूँकि “एक सुलझे हुए गीतकार हैं, इसलिए प्रक्रिया के इस सच से बख़ूबी परिचित हैं। एक सजग और सचेष्ट वास्तवदर्शी की तरह भाषा, शिल्प और कहन के स्तर पर वे निरंतर लोकोन्मुख बने हुए हैं और अपने अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान से लैस काव्यकौशल के द्वारा नवगीतों के रूप में मानो अपनी भावना को ही रच रहे हैं” (राम सेंगर, पुस्तक के फ्लैप से)। कुलमिलाकर, इस सारगर्भित, सन्देशवाही, संग्रहणीय नवगीत संग्रह के माध्यम से जीवन के संतुलन का भाष्य रचने वाले कटनी के इस ऊर्जावान कवि को बधाई तो बनती ही है। 

— अवनीश सिंह चौहान

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