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मदद

 

एक दिन दोपहर बाद ‘बी.ए. मास कम्युनिकेशन’ की छात्रा मनोरमा अपने पिता को लेकर विश्वविद्यालय आयी। वे दोनों पाठ्यक्रम कोर्डिनेटर से मिले। पाठ्यक्रम कोर्डिनेटर ने उसके पिता को बताया कि यह छात्रा पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रही है, जिसके कारण उसके इंटरनल एग्ज़ाम में मार्क्स अच्छे नहीं आये हैं। 

उसके पिता बोले, “ठीक है, मैडम। हम आगे ध्यान रखेंगे।”

कुछ समय बाद फ़ाइनल एग्ज़ाम के लिए विश्वविद्यालय में फ़ॉर्म भरे जाने लगे। उस छात्रा ने एग्ज़ाम फ़ॉर्म नहीं भरा। पाठ्यक्रम कोर्डिनेटर ने कई बार फोन कर उसे समझाने की कोशिश की, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। समय बीता। फ़ॉर्म भरने की अंतिम तिथि भी निकल गयी। फिर अचानक एग्ज़ाम डेट के तीन दिन पहले मनोरमा अपने पिता को लेकर डीन से मिलने आयी। 

डीन ने पूछा, “बताएँ, क्या मैटर है।”

उसके पिता ने बड़ी विनम्रता से कहा, “इसे एग्ज़ाम फ़ॉर्म भरना है। क्या ऐसा अब सम्भव है?”

डीन ने उसी समय रजिस्ट्रार और सीओई से फोन पर बात की और उन्हें बताया कि यद्यपि बहुत देर हो चुकी है, फिर भी छात्र के भविष्य को देखते हुए उसे आज फ़ॉर्म जमा करने की अनुमति दी जाती है। 

उसके पिता ने आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए डीन महोदय से ‘लेट फ़ॉर्म सबमिशन फ़ाईन’ माफ़ करने के लिए आग्रह किया। उन्हें एक रिक्वेस्ट लेटर भी दिया। रिक्वेस्ट लेटर रजिस्ट्रार साब को भेजा गया। उन्होंने पचास प्रतिशत फ़ाईन माफ़ कर दिया। तदनुसार छात्रा का एग्ज़ाम फ़ॉर्म जमा कर लिया गया। 

डीन ने चलते वक़्त उसके पिता से पूछा, “सच-सच बताएँ कि फ़ॉर्म भरने में इतनी देर क्यों हुई?”

उसके पिता ने जवाब दिया, “पाठ्यक्रम कोर्डिनेटर ने छात्रा की मदद करने से इंकार कर दिया था।”

“कैसी मदद?” डीन ने उत्सुकता-वश जानना चाहा। 

“पास करने की मदद,” मनोरमा स्वयं बोल पड़ी। 

डीन अपना सिर पकड़ कर बैठ गए। शायद वे मदद का अर्थ समझने की कोशिश कर रहे थे। 

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