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लोकनाट्य, रासलीला का प्रादुर्भाव, परम्परा एवं विकास

 

किसी भी देश के भिन्न-भिन्न राज्यों की अपनी कुछ कथाएँ, ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित आख्यान और परम्पराएँ होती हैं, जिनको विभिन्न अवसरों पर नाट्यरूप में प्रस्तुतीकरण के माध्यम से जन मानस को उससे पुनः-पुनः अवगत कराया जाता है या उनके मनोरंजन स्वरूप और अपनी संस्कृति से परम्परानुगत रूप से जोड़ने के लिए उसकी प्रस्तुति की जाती है। जैसे राम के चरित्र और व्यवहार को उद्घाटित करने के लिए जगह-जगह रामलीला की नाट्य-प्रस्तुति, प्रह्लाद, ध्रुव, मीरा, महाराणा प्रताप और राजा हरिश्चन्द, पन्ना धाय, हीर-रांझा लैला-मजनू आदि अनेकानेक व्यक्तित्वों को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न प्रदेशों में नाट्य-प्रस्तुतियाँ दी जाती हैं। 

भारतवर्ष का ब्रज क्षेत्र भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का अद्वितीय केन्द्र है क्योंकि यह श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का प्रत्यक्षदर्शी है। यहाँ श्रीकृष्ण ने जन्म लिया, ब्रज की माटी में लोट-पोट हुए और ब्रज के विभिन्न वनों में गायों को चराया। ब्रज की बालाओं के संग अठखेलियाँ कीं, नृत्य किया और उनके माखन-मिश्री की चोरी भी ख़ूब की। मिट्टी खाने के बहाने माँ यशोदा को अपने मुख में पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन कराये तो ऊखल बन्धन में बँधे भी और यमलार्जुनों का उद्धार भी किया। इस सबके अतिरिक्त श्री कृष्ण ने बालपन में खेल ही खेल में धेनुकासुर, बकासुर, तृणावर्त, वत्सासुर, अघासुर आदि असंख्य राक्षसों का वध भी किया था। और तो और गेंद खेलने के बहाने श्रीकृष्ण ने बचपन में ही कालियनाग जैसे बिषधर नागों से ब्रजवासियों को मुक्त कराया था और पूतना और षकटासुर का वध तो श्रीकृष्ण ने तभी कर दिया था जब उनकी उम्र मात्र कुछ ही दिन की थी। इतना ही नहीं कंस के अनुयायी चाणूर का वध करने के बाद कंस का भी अंत करते समय श्रीकृष्ण मात्र ग्यारह वर्ष के थे। इंद्र के प्रकोप से ब्रजवासियों की रक्षा करने के लिए सात दिन तक अपनी कनिष्ठा उँगली पर गिरिराज पर्वत को धारण किए रहे। 

श्रीकृष्ण की इन सब लीलाओं को विविध रूपों में ब्रज में प्रदर्शित किया जाता है। 

अन्य प्रदेशों के अपने-अपने नाट्य-प्रदर्शनों की भाँति ही ब्रज में प्रदर्शित की जाने वाली इस नाट्य-प्रस्तुति को रासलीला कहा जाता है जो एक जीवंत नाट्य-प्रदर्शन है जो भक्तिभाव, कला और अध्यात्म का बहुत ही सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करती है। 

रासलीला का प्रादुर्भाव:

श्रीमद्भागवत महापुराण के 10वें स्कन्ध के उन्तीसवें अध्याय के श्लोक एक के अनुसार श्रीकृष्ण ने चीरहरण के समय सभी गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब की सब पुंजीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लसित हो रही थीं। भगवान ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीड़ा करने का संकल्प किया।(श्रीमदभागवदतमहापुराण 10/29/1) 

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः
स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहुभिः। (श्रीमदभागवदतमहापुराण 10/33/2) 

अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना जी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। 

इस प्रकार श्रीकृष्ण की इन लीलाओं को पुनः-पुनः स्मरण करने के लिए लगभग 16वीं शताब्दी में वैष्णव भक्ति आन्दोलन के साथ स्वामी हरिदास और नारायण भट्ट तथा हित हरिवंश गोस्वामी जैसे भक्तों के प्रयास से रासलीला का पहला व्यवस्थित मंचन हुआ था और इस प्रकार ब्रजक्षेत्र में भक्ति-संगीत और नाट्य-कला का एक नया युग प्रारम्भ हुआ था। मुख्यतः रासलीला की उत्पत्ति श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ बाल और किशोर अवस्था की लीलाओं से जुड़ी हुई है। या कहें कि रासलीला का मूल आधार श्रीकृष्ण और गोपियों की दिव्य रासक्रीड़ा ही है। 

इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में तो विस्तार से देखा ही जा सकता है हरिवंश पुराण और गीत गोविन्द जैसे ग्रन्थों में भी देखा जा सकता है। भक्त और भगवान का प्रेम और अनुरागमय मिलन प्रदर्शित करने वाली यह लीला पूर्णरूपेण आध्यात्मिक है। 

ब्रज के मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, नन्दगाँव, गोवर्धन और बरसाना आदि में रासलीला का मंचन पूरी निष्ठा एवं पवित्रता के साथ एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ही नहीं अपितु ग्रामीण लोक जीवन, लोक कला और लोक संगीत को समृद्ध किए जाने के लिए भी किया जाता रहा है। 

रासलीला की परम्परा एवं स्वरूप:

रासलीला की परम्परा रही है कि इसमें गीत, नृत्य और सम्वाद आदि के माध्यम से कृष्ण-जन्म, गोवर्द्धन-पूजा, कालिय नाग का दमन और विशेषकर गोपियों के साथ श्री कृष्ण की लीलाओं का नाट्यरूप में मंचन किया जाता है। मुख्यतः सभी भूमिकाएँ ब्रज के बालकों कें द्वारा निभाई जाती हैंं। पात्रों की भाषा और शैली, ब्रजभाषा ही रहती है जो जनमानस के हृदयों में मिश्री सी मीठी, घुलती चली जाती है। 

रामलीला की भाँति ही रासलीला के लिए एक रंगमंच का उपयोग किया जाता है। रंगमंच पर एक परदा होता है। पात्र परदे के पीछे रहते हैं तथा परदे के सामने एक गायक और एक वादक बैठे होते हैं। सामने रासलीला देखने वालों के लिए खुला स्थान होता है। 

रासलीला प्रारम्भ होने से पूर्व आई हुई जनता के ध्यानार्थ और आने वाली जनता की प्रतीक्षा के लिए परदे के आगे यानी रंगभूमि में ढोलक, मजीरा, हारमोनियम तथा कुछ अन्य वाद्ययंत्रों के साथ भजन-गान आदि होता रहता है। रासलीला प्रारम्भ करने से पूर्व व्यवस्थापक सूत्रधार के रूप में रंगमंच पर आकर सामने बैठे जनमानस को उस दिन दिखलाई जाने वाली रासलीला जैसे माखन चोरी या ऊखल बंधन या महारास आदि जो भी लीला होनी हो उसके बारे में प्रस्तावना स्वरूप जानकारी देता है साथ ही उस दिन रासलीला में अभिनय करने वाले पात्रों के बारे में प्रशंसात्मक जानकारी देकर जनमानस को उनकी ओर आकृष्ट करता है। 
उसके बाद रंगभूमि में जितने भी गायन-वादन आदि करने वाले होते हैं तथा जितने दर्शक होते हैं, सभी उठकर खड़े हो जाते हैं और श्री राधा-कृष्ण की छवि की आरती की जाती है। 

आरती के बाद परदा गिराया जाता है और फिर उस दिन दिखाई जाने वाली रासलीला का प्रारम्भ हो जाता है। 
रासलीला में श्रीकृष्ण का राधा और गोपियों के साथ गोलाकार रूप में नृत्य होता है। कभी श्रीकृष्ण, राधा के हाथ में हाथ बाँधकर नृत्य करते हैं तो कभी गोपियों के हाथ में हाथ बाँधकर नृत्य करते हैं या कभी बहुत सी गोलाकार रूप में खड़े होकर एक-दूसरे के हाथ में हाथ बाँधे थिरक रही गोपियों के मध्य में घिरकर नृत्य करते हैं। इन सब के द्वारा राधा-कृष्ण की प्रेम-क्रीड़ाओं को ही प्रदर्शित किया जाता है। इनमें कृष्ण भक्त कवियों, जैसे सूरदास आदि के भजन गाये जाते हैं। रासलीला में बोले जाने वाले संवाद, पात्रों का रूप-सज्जा, गीत और नृत्य, ध्वनि, ताल, लय आदि के द्वारा रस की अबाध धारा बहती है जिससे दर्शक मंत्र-मुग्ध से बँधे बैठे देखते रहते हैं। पात्रों की रसमयी वाणी उनके हृदयों में रस घोलती रहती है। 

इस पूरी लीला में श्रीकृष्ण धीर ललित नायक होते हैं जो समस्त कलाओं के अवतार माने जाते हैं तथा राधा उनकी अनुरंजना-शक्ति, समस्त गुणों एवं कलाओं की खान के रूप में दिखाई जाती हैं। 

रासलीला में जितनी भी पात्र गोपियाँ होती हैं वे शोभा, विलास, माधुर्य, कान्ति, दीप्ति, विलास, प्रागल्भ्य, हाव-भाव आदि सबसे पूर्ण और पूर्णयौवना, भावप्रगल्भा होती हैं। 

पूरी लीला के बीच-बीच में आवश्यकतानुसार विदूषक के रूप में मनसुखा बना पात्र विभिन्न गोपिकाओं के साथ प्रेम और हास्य के प्रसंग प्रस्तुत करके कृष्ण के प्रति उनके अनुराग को व्यंजित कराता है साथ ही दर्शकों का भी मनोरंजन करता है। 

उस दिन की लीला की समाप्ति पर फिर से प्रारम्भ की भाँति सभी खड़े होकर श्रीराधा-कृष्ण की युगल छवि की आरती करते हैं। आरती के बाद सभी दर्शक आरती लेते हैं साथ ही आरती के थाल में भेंट स्वरूप रुपये-पैसे भी चढ़ाते हैं। लीला की समाप्ति पर आरती के बाद रासलीला के विषय में मंगल कामना भी की जाती है और उसके बाद रासलीला का पटाक्षेप हो जाता है। 

विकास यात्रा:

प्रारम्भिक काल में रासलीला को धार्मिक उत्सव के रूप में ब्रज के मंदिरों और ब्रज के कुंजों में साधारण अभिनय, नृत्य और गायन के माध्यम से श्रीकृष्ण की लीलाओं का मंचन किया जाता था बाद में धीरे-धीरे मंचीय व्यवस्था हुई और इसने सुव्यवस्थित मंचीय कला का रूप धारण कर लिया जिसमें ब्रज के बाल कलाकारों के द्वारा अभिनय, गीत, संवाद और नृत्य आदि के द्वारा श्रीकृष्ण की लीलाओं का मंचन किया जाता था। 

मध्यकाल में जब स्वामी हरिदास के शिष्य तानसेन का अकबर के द्वारा सम्मान किया गया तो उस समय कला का संरक्षण हुआ और रासलीला के मंचन को बढ़ावा मिला। मध्ययुगीन भक्तिकाल में वृन्दावन के आचार्य घमण्डीस्वामी ब्रज रासलीला अनुकरण के उद्वाहक रहे। 

आधुनिक युग में रासलीला के स्वरूप में बहुत कुछ परिवर्तन हुए हैं। कई रासाचार्यों ने रासलीला का देश-विदेश में प्रचुर रूप से प्रचार-प्रसार भी किया है। वृन्दावन के पद्मश्री रामस्वरूप शर्मा रासाचार्य, जिन्होंने राजनीति में सक्रिय भागीदारी भी निभाई और विधायक भी रहे, ने अपने पिता स्वामी मेघश्याम शर्मा और दादा स्वामी मदनलाल शर्मा से शास्त्रीय, हवेली संगीत की शिक्षा ग्रहण की और जब वह मात्र 6 वर्ष के ही थे तभी से रासलीला में अभिनय करने लगे थे। उन्होंने अपने जीवन के 82 वर्ष रासलीला को दिए और देश-विदेश में पन्द्रह हज़ार से अधिक रासलीला मंचन किए। 

वर्तमान में रासलीला केवल मंचों तक ही सीमित नहीं रही अपितु टेलीविज़न, यूट्यूब और सोशल मीडिया के माध्यम से भी इसके प्रचार-प्रसार में वृद्धि हुई है। वृन्दावन की अक्षयपात्र फ़ॉउंडेशन और वृन्दावन कला मंच आदि रासलीला के प्रचार-प्रसार और संरक्षण में संलग्न हैं। रासलीला में प्रयुक्त होने वाली पोशाकों में भी परिवर्तन दृष्टव्य है इतना ही नहीं रासलीला में मंचों पर अब नारी पात्रोंं की भागीदारी भी देखने को मिल जाती है। 

आधुनिक तकनीक और मीडिया के माध्यम से इसकी पहुँच का दायरा बहुत बढ़ गया है। ब्रज की रासलीला एक ऐसी परम्परा है जो समय के साथ-साथ और समृद्ध होती जा रही है। रासलीला के माध्यम से मनुष्य अपने जीवन में आध्यात्मिकता, प्रेम और भक्ति का समावेश कर सकता है। भक्तों के लिए रासलीला केवल मनोरंजन का साधन नहीं है अपितु यह लीला दर्शन है जिससे वह सीधा ईश्वर से भावनात्मक सम्बन्ध बना सकता है। रासलीला में गोपियों का प्रेम, आत्मा की परमात्मा के प्रति तल्लीनता को दर्शाता है। 

रासलीला में कला का योगदान दृष्टव्य है क्योंकि इसमें संगीत के रूप में पद, भजन और ध्रुपद शैलियों का प्रयोग किया जाता है और नृत्य की शैली में मृदंग, झाँझ और बाँसुरी का प्रयोग होता है। रासलीला के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए इसमें परम्परागत पोशाकें, रेशमी वस्त्र और फूलों की सज्जा की जाती है। 

इस प्रकार ब्रज की रासलीला केवल एक प्रदर्शन कला नहीं है। यह एक जीवंत परम्परा है जो श्रद्धा, कला और संस्कृति की त्रिवेणी को जीवित रखती है। इसकी आत्मा श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम और भक्ति को अभिव्यक्त करती है। भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का अनमोल हिस्सा जो पीढ़ी दर पीढ़ी भक्तिभाव से जोड़ती रहेगी और ब्रज की पहचान को विश्व में बनाये रखेगी। 

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