पद्यकथा के दिनकर श्री चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
(मयंक जी की जन्मशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में)
श्री चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ ने हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं यथा-बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल एकांकी, और बड़ों के लिए कहानी, उपन्यास आदि में साहित्य का प्रचुर मात्रा में सृजन करके हिन्दी साहित्य में श्रीवृद्धि की है। वहीं उन्होंने बाल पद्यकथा का भी अद्भुत सृजन किया है।
श्री चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’की पुस्तक—‘सैर सपाटा’ की रचनाएँ—‘नुमायश की सैर’ और ‘गंगा जी का मेला’, ‘नक़लची मोहन’, ‘संगम पर स्नान’, ‘सिनेमा शो’, ‘सबसे अच्छी बाइसिकिल’ और ‘क्रिकेट टेस्ट मेच’ आदि पद्यकथाएँ पढ़ते-पढ़ते ही पद्यकथा के सशक्त हस्ताक्षर राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का स्मरण हो आया। जिस तरह रामधारी सिंह दिनकर का नाम बाल साहित्य में पद्यकथा के रूप में ही अजर-अमर हुआ उसी तरह मयंक जी की उक्त दोनों पुस्तकों की रचनाओं का सृजन भी अद्भुत है।
मयंक जी का जन्म एक सितम्बर सन् 1925 को कानपुर नगर के फेथफुलगंज मुहल्ले में बाबू परमेश्वरी दयाल सिंह यादव और श्रीमती कमला देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। एम.ए. (हिन्दी) और एल.एल.बी. व साहित्यरत्न मयंक जी गवर्नमेंट नोटरी (गजटेड ऑफ़िसर) के रूप सेवारत रहे थे। आपने अपने जीवन काल में लगभग साठ पुस्तकों का सृजन किया साथ ही तीन पुस्तकों—‘महकते फूल’, ‘शिशुगान’ तथा ‘शिशुगीत’ का सम्पादन भी किया। उनके साहित्यिक अवदान के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ के बाल साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार—‘बाल साहित्य भारती’ सहित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी समादृत किया गया। छब्बीस जून सन् 2000 को आपका महाप्रयाण हो गया। मयंक जी की प्रतिभाशाली पुत्री प्रख्यात साहित्यकार पद्मश्री डॉ. उषा यादवजी एवं उनके जामाता डॉ. राजकिशोर सिंह जी एवं धेवती डॉ. कामना सिंह जो बाल साहित्य में पहली डी.लिट्. हैं, तीनों ने अथक प्रयासों से मयंक जी की जन्म शताब्दी के अवसर पर रचनावली को चार खण्डों में प्रकाशित कराके एक अद्भुत प्रशंसनीय कार्य किया है।
श्री चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ की ‘नुमायश की सैर’ और ‘गंगा जी का मेला’ पद्यकथाएँ पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पाठक के हृदय में नुमायश और गंगा मेला का एक-एक दृश्य जिस तरह चलचित्र की भाँति स्पष्ट होने लगता है, वही मयंक जी की लेखनी को अमरत्व प्रदान करने के लिए पर्याप्त है:
रामू भैया, दद्दा के संग
कल गया नुमाइश को था मैं।
बिल्कुल सच कहता हूँ तुमसे,
था बड़ा मज़ा आया उसमें।
क्या कहूँ नुमाइश कैसी थी,
मुझ से कुछ कहा नहीं जाता,
औ बिना बताये भी तुमको,
है मुझसे रहा नहीं जाता। (पृष्ठ-1)
इन पंक्तियों में जहाँ एक ओर बच्चे के हृदय का आह्लाद छलका पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर रचनाकार की बाल मनोविज्ञान की सूक्ष्म पकड़ भी परिलक्षित हो रही है कि बच्चा अपने दूसरे साथी से नुमाइश की सैर का आनन्द बाँटे बिना भी नहीं रह पा रहा। बच्चे के हृदय का उल्लास तभी पूर्णता प्राप्त करेगा जब वह अपने साथियों को भी सैर में प्राप्त अपने आनन्द का भागीदार बना लेगा:
थे फाटक आलीशान बने,
आने-जाने के अलग-अलग।
बेटिकट न जा पाता कोई,
थे द्वारपाल अत्यन्त सजग। (पृष्ठ-1)
दो-दो आने के टिकट यार,
हम भी खिड़की पर से लेकर,
अन्दर जाने के फाटक से,
थे घुसे नुमाइश के भीतर। (पृष्ठ-1)
लिखकर कवि मयंक जी ने जैसे मंच पर अभिनीत होने वाले नाटक का परदा खोल दिया हो।
नुमाइश में बिकने वाली प्रत्येक चीज़ का बहुत ही बारीक़ी से वर्णन किया है मयंक जी ने, जिसे पढ़कर, जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी नुमाइश न देखी हो, वह भी नुमाइश का पूरा आनन्द तो ले ही लेगा साथ ही उसके मन में भी कभी नुमाइश जाने की लालसा बलवती हो उठेगी। नुमाइश में बजते गाने, साड़ियों की दुकान, चूड़ियों की दुकान, झूला, सोने की अँगूठी व हार आदि चीज़ों की दुकान, चाट की दुकान, जादूगर का खेल, प्लास्टिक मोटर, चाबी से चलने वाले खिलौने, रबर की चिड़िया, ढोलक बजाता खिलौना आदि पूरी नुमाइश के एक-एक आयटम का दृश्य उपस्थित करती मयंक जी की यह पद्यकथा दिनकर जी की पद्यकथा—‘चांद का कुरता’, ‘सूरज का ब्याह’ तथा ‘दुष्ट का व्यवहार’ जैसा ही आनन्द दे रही हैं।
गंगा दशहरा आदि के अवसर पर गंगातट पर मेला सा लग जाता है। मयंक जी ने अपनी पद्यकथा—‘गंगा जी का मेला’ में भी गंगा-मेले में बिकने वाली चीज़ों के प्रति बच्चों के आकर्षण को बहुत ही बारीक़ी से उद्घाटित किया है। मयंक जी सही मायने में बाल मनोविज्ञान के पारखी थे।
मेले में गाँवों में रहने वाले अपनी बैलगाड़ियों में भर-भरकर गंगा स्नान करने आते हैं तो शहरी लोग इक्का, ताँगा, रिक्शा (वर्तमान में अपनी मोटर गाड़ियों से) आते हैं। मेले में गुब्बारे, चाट-पकौड़ी, क़ुलफ़ी आदि तो ख़ूब बिकती ही हैं, कपड़े की चिड़िया, तोते आदि बेचने वाले भी आते हैं जिनको देख-देखकर बच्चों का ललचाना स्वाभाविक होता है। मयंक जी ने गंगा मेले का भी सचित्र वर्णन अपनी इस पद्यकथा—‘गंगा जी का मेला’ में किया है:
हम लोग बढ़े फिर आगे को,
तब तक तोते वाला आया।
वह हरे रंग के कपड़े के,
तोते था खूब बना लाया।
कितने अच्छे, कितने सुन्दर,
तोते वह लेकर आया था।
डोरे से उसने बाँध-बाँध,
कर, तोतों को लटकाया था।
दो-दो आने, ले लो तोते
ऐसी आवाज़ लगाता था।
उसके तोतों को देख-देख,
बच्चों का मन ललचाता था। (पृष्ठ-10)
पद्यकथा—‘नकलची मोहन’ में मयंक जी ने बालमन की कवि बनने की अभिलाषा और उसकी पूर्ति के लिए दूसरे की रचना की चोरी करके छपवाने की आदत पर अंकुश लगाते हुए बहुत ही उत्तम पद्यकथा का सृजन किया है:
सुनो भूलकर भी बच्चो! तुम
कभी न करना ऐसा काम।
चीज़ दूसरों की हरगिज़ मत,
छपवाना तुम अपने नाम। (पृष्ठ-17)
संगम स्नान का अपना ही महत्त्व है। मयंक जी ने—‘संगम पर स्नान’ पद्यकथा के माध्यम से आध्यात्मिक एवं भौगोलिक जानकारी सरल रूप में प्रदान की है:
लोगों ने बतलाया, संगम पर,
पुण्य त्रिवेणी खिलती है।
गंगा-यमुना, प्रत्यक्ष सरस्वती,
गुप्त रूप से मिलती है। (पृष्ठ-21)
मयंक जी ने जिस विषय पर भी अपनी लेखनी से पद्यकथा का सृजन किया है, अद्भुत तरीक़े से किया है। ‘सिनेमा शो’ में भी शुरू से अन्त तक इस प्रकार वर्णन किया है कि जो कभी सिनेमा देखने न गया हो, वह भी घर बैठे सिनेमा घर और सिनेमा का पूरा-पूरा आनन्द ले सकता है:
इतने में बत्ती बुझी और,
सब ओर हो गया अन्धकार।
रामू भैया, मैं घबराया,
यह क्या आफ़त आ गई यार।
फ़ौरन ही ऊपर से प्रकाश
की रेखा परदे पर आई।
परदे पर चित्र और अक्षर,
से दृष्टि उसी क्षण टकराई। (पृष्ठ-23)
मयंक जी ने सिनेमा शो में दिखाई जाने वाली एक-एक चीज़ का चित्र अपनी पद्यकथा के माध्यम से खींचते हुए पढ़ने वाले की आँखों के सामने पूरा वर्णन फैलाकर रख दिया है। सिनेमा शो में दिखाई जाने वाली बात के बारे में वह आगे लिखते हैं:
यह बात किसानों के हित की
भी हमको गई दिखाई थी।
फिर एक नदी में बड़ी भयानक
बाढ़ कहीं पर आई थी।
उसका तो दृश्य याद करके
मन मेरा बहुत कंपकंपाता
पानी ज़ोरों से हर-हर करता
आगे को बढ़ता जाता।
वह पेड़ तोड़ता, गाँव ढहाता,
बड़े कगार गिराता था।
लगता था मानो सर्वनाश ही
पानी बनकर आता था। (पृष्ठ-25)
‘सबसे अच्छी बाईसिकिल’ पद्यकथा में मयंक जी ने किसी समय की बाईसिकिल की महत्ता को प्रतिपादित करने में भी अद्भुत सफलता पाई है। एक समय था जब किसी घर में एक बाईसाईकिल होना भी बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। उसी समय की रचना है—‘सबसे अच्छी बाईसिकिल’।
बाईसिकिल की ख़ूबियाँ गिनाते हुए मयंक जी ने बाईसिकिल को इतना अच्छा बताया कि उसके आगे इक्का-ताँगा, मोटर-गाड़ी सब की चमक फीकी पड़ गई। इक्का-ताँगे में घोड़े और साईस की दिक़्क़तें तो मोटर कार में पैट्रोल और ड्राइवर के झंझट:
इक्के-तांगे आदिक में तो,
घोड़े-साईस का है झगड़ा।
घोड़े जी हैं यदि ठीक-ठाक,
तो कोचवान बीमार पड़ा।
फिर यह भी झंझट है, घोड़े
को दाना-घास मँगाओ तुम।
तुम करो सवारी या न करो
घोड़े को मगर खिलाओ तुम। (पृष्ठ-27)
और यदि मोटरकार रखते हो तो उसकी दिक़्क़तें भी सुन लो:
क्या दिक़्क़त मोटर रखने में,
वह भी मैं तुम्हें बताता हूँ।
घबराते क्यों हो एक-एक,
गिन लो, मैं तुम्हें गिनाता हूँ।
यदि मोटर नई ख़रीदोगे
तो दस हज़ार ठुक जायेंगे।
यदि लाओगे सेकेण्ड-हैण्ड,
तो रोग साथ में लाओगे।
और अब बाईसिकिल की ख़ूबियाँ गिनाते हुए मयंक जी पूरी तरह भाव-विभोर होकर कहते हैं:
है सबसे अच्छी सबसे प्यारी
सबसे न्यारी बाइसिकिल।
सब सवारियों में अव्वल नम्बर
एक सवारी बाइसिकिल।
बस केवल दो सौ रुपयों में
तुम नई साइकिल पाओगे।
आनन्द स्वर्ग का आवेगा
जब अपने पैर घुमाओगे। (पृष्ठ-29-30)
मयंक जी की पद्यकथाओं की विशेषता है कि वह जिस चीज़ पर भी लिखते हैं, जिस विषय पर भी लिखते हैं, उसे पढ़ते-पढ़ते पाठक के मस्तिष्क में उस चीज़ का एक चलचित्र सा चलने लगता है। एक-एक चीज़ को इतनी बारीक़ी से लिखा है उन्होंने कि जो पाठक उस विषय के बारे में कोई जानकारी नहीं रखता, वह भी उस रचना को पढ़कर, उस वस्तु के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है। उनकी पद्यकथा के रूप में लिखी गई अन्य पुस्तकें—‘वीरांगना लक्ष्मी’, ‘साहसी सेठानी’, ‘जंगल का राजा’, ‘बंदर की दुलहिन’ और ‘मुनमुन सरकस’ आदि ऐसी रचनाएँ हैं जिनको पढ़ने के बाद कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मयंक जी भी दिनकर जी की भाँति ही पद्यकथा के सशक्त हस्ताक्षर थे।
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