मन तू नाहक़ क्यों भटकाता
काव्य साहित्य | कविता विनय बंसल15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
कर ले ध्यान प्रभु का, जग है
चार दिनों का मेला।
प्रेम गली मंज़िल तक जाती,
बाक़ी सभी झमेला।
श्रद्धा, प्रेम, दया, करुणा क्यों मुझसे दूर भगाता।
मन तू नाहक़ क्यों भटकाता॥
अपने-अपने ही कर्मों का, फल है सभी को चखना।
इस काया पर गर्व करे क्यों,
मिट्टी में है खपना।
राह कठिन को सुगम बना, क्यों
दलदल बीच फँसाता।
मन तू नाहक़ क्यों भटकाता॥
ध्यान करूँ तो मन में आतीं,
भाँति-भाँति कुत्साएँ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, भय,
मुझको सभी सताएँ।
अहंकार ख़ुद आगे आकर,
अपना जाल बिछाता।
मन तू नाहक़ क्यों भटकाता॥
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