मंज़िल
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शबनम आलम1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
क़दम दर क़दम चलते हुए
बड़ी मेहनत से
पहुँचने वाले थे मंज़िल तक
तभी मैं लड़खड़ा गई
क्योंकि मंज़िल ने कहा
रुक जा, वहीं
वापस चली जा
क्योंकि मैं तेरे लिए बना ही नहीं!
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