मज़दूर नहीं, वो है मजबूर . . .
काव्य साहित्य | कविता अभिनव कुमार1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
मज़दूर यानी श्रमिक,
परिश्रम का प्रतीक,
मेहनत का वैज्ञानिक,
अनथक दौड़ता जीव।
चौबीसों घंटे मशक़्क़त,
करता कर्म निष्कपट,
चले जाता धर्मपथ,
अद्भुत कला महारत।
विकास इसीके कारण,
हर समस्या का निवारण,
तन मन करे है अर्पण,
अर्थव्यवस्था का ये दर्पण।
भरी दोपहरी तपती धूप,
चाहे हो फिर वर्षा ख़ूब,
ये काम में ही मसरूफ़,
है अतुलनीय ये अनूप।
पसीना बहाके बनाए इमारत,
बाँध, सड़क, कारखाने, छत,
पूरी करे हर किसी की चाहत,
इस स्तम्भ के बल पर भारत।
गर्मी हो या चाहे सर्दी,
ख़ून से अपने सींचे धरती,
आत्मनिर्भर कि आजीविका चलती,
इसके हुनर से छठा बिखरती।
सागर में जैसे नमक,
उतनी इसकी है चमक,
इसका योगदान आश्चर्यजनक,
इसकी आवश्यकता असीम अनंत।
इसकी मगर है ये बदक़िस्मत,
कोयले की खान में हीरे की क़द्र,
बे-ग़ैरत होता बजाए फ़ख़्र,
इसके नहीं जज़्बात या हक़?
मलिन सियासत का ये मोहरा,
इससे धोखा एक ना दोहरा,
ज़ख़्म घाव बड़ा ही गहरा,
पानी कब तक बोलो ठहरा।
चक्रव्यूह में गया है फँस,
दलदल में है गया धँस,
ना रो सके, ना सके है हँस,
हुआ असहाय, लाचार, बेबस।
जिससे पूरा शहर खिला,
उसकी वफ़ादारी का यही सिला?
धरा से लेकर अंबर हिला,
कब थमेगा बागी सिलसिला?
सीने के टुकड़े को किया है दूर,
चंद नोटों की ख़ातिर हुज़ूर,
ना कोई दोष, ना उसका क़ुसूर,
मज़दूर नहीं, वो है मजबूर . . .
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