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मुफ़्त की क़ीमत

स्कूल अभी-अभी शुरू हुआ था। पाँचवीं कक्षा की क्लास थी। अध्यापक का भी स्कूल में पहला दिन था। बच्चों के चेहरे पर कुतूहल मिश्रित उत्साह दिखाई दे रहा था। पहले ही दिन पाठ्यक्रम को शुरू करने से अच्छा बच्चों के साथ कुछ संवाद किया जाए तो वे ज़रा तनावमुक्त हो जाएँगे यह सोचकर अध्यापक छात्रों को एक विषय दिया। उस विषय पर अपने-अपने विचार रखने को कहा। विषय था—‘मुफ़्त की क़ीमत’। 

रमेश नाम का लड़का खड़ा होकर कहने लगा, “सर, हमारे घर में माँ बहुत परिश्रम करती है। हमारा भोजन बनाना, कपड़े धोना, हमें पढ़ाई में मदद करना। सब मुफ़्त होता है पर हमारे लिए उसकी कोई क़ीमत नहीं होती।”

सोहम ने खड़े होकर कहा, “सर, हमारे पिताजी नए-नए कपड़े लाते हैं, खिलौने लाते हैं, मिठाई लाते हैं। सब मुफ़्त का होता है। पर हमारे लिए उसकी कोई क़ीमत नहीं होती।” 

फिर पवन उठा और कहने लगा, “सर, हमें प्रकृति क्या नहीं देती? पेड़ों से हमें फल मिलते हैं, फूल मिलते हैं, लकड़ियाँ मिलती हैं, ऑक्सीज़न मिलती है। पेड़ों के कारण अच्छी बारिश होती है। बारिश से हमें पीने के लिए, खेती के लिए, पेड़ों के लिए पानी मिलता है। नाले, नदियाँ बहकर हमारे जीवन को समृद्ध करती हैं। समंदर से नमक और मछलियाँ मिलती हैं। बाग़-बग़ीचे हमें आनंद देते हैं, फूल फल देते हैं। पेड़, पर्वत, पहाड़, नदियाँ, जंगल, खेत-खलियान हमें क्या नहीं देते और सबसे बड़ी बात प्रकृति हमें देने के संस्कार सिखाती है, वह भी मुफ़्त में। पर हम प्रकृति को क्या देते हैं?” 

इतना कहकर पवन अपनी जगह बैठ जाता है। 

पवन के विचार सुनकर पूरी क्लास निःशब्द बन जाती है। सर भी पवन के विचार सुनकर अंतर्मुख हो जाते हैं। 

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टिप्पणियाँ

प्राजक्ता 2023/02/13 09:23 PM

मुलांशी सतत बोलत राहिल्याने वेगवेगळ्या गोष्टींची समज वाढते मत व्यक्त करता येतात त्यामुळे वर्गातील अवांतर विषयावरच्या गप्पा हे बौद्धिक आणि सामाजिक विकासाचे महत्त्वाचे साधन आहे

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