मुसीबत में भी तनती जा रही हूँ
शायरी | ग़ज़ल डॉ. भावना15 Feb 2024 (अंक: 247, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मुसीबत में भी तनती जा रही हूँ
मैं अपनी माँ-सी बनती जा रही हूँ
समझ लो बस कि मैं बहती नदी हूँ
मैं अपने आप छनती जा रही हूँ
बना कर माँ गई जीवन की मूरत
उसी मिट्टी में सनती जा रही हूँ
ये दर्पण साथ मेरा दे, नहीं दे
मैं बनती और ठनती जा रही हूँ
उधर बस रूठने का सिलसिला है
इधर मैं सिर्फ़ मनती जा रही हूँ
गई हो सौंप कर तुम वस्त्र सुख के
मगर मैं दुःख पहनती जा रही हूँ
तुम्हें तो बेटियाँ भाती रही माँ
ग़ज़ल मैं रोज़ जनती जा रही हूँ
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