मूर्खता
काव्य साहित्य | कविता सतीश ’निर्दोष'15 Apr 2022 (अंक: 203, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
आज की इस दुनिया में . . .
जहाँ भाई, भाई का नहीं रहा
तुम बिना किसी मतलब के
उनके झगड़े सुलझाने में
अपनों से उलझ जाओ . . .
तो वो कहलाती मूर्खता!
जहाँ हर कोई चाहता है
दूसरे को गिरा के आगे बढ़ना
तुम किसी गिरते हुए को
उठाने को रुक जाओ . . .
तो वो कहलाती मूर्खता!
लोग चाहते हैं कि हों रोशन उनके आँगन
जो लगे पड़ोसी के घर में आग
तुम बिना बुलाये ही उस पड़ोसी के घर
वो आग बुझाने चले जाओ . . .
तो वो कहलाती मूर्खता!
जहाँ मतलब निकल जाने पर
पल में तोड़ लेते हैं रिश्ते
वहा तुम बिना किसी मतलब के
रिश्तेदारी निभाते चले जाओ . . .
तो वो कहलाती मूर्खता!
तो वो कहलाती मूर्खता!!
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