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निमित्त

रोज़ इस छोटे से तालाब
के किनारे, 
ये मछलियाँ
रोज़ ही दिन प्रतिदिन, 
बाहर आतीं, सर निकाल, 
कुछ कहतीं, कुछ गुनतीं॥
 
खाने को मिल जाए तो
हर्षित हो कूदतीं, छलाँगतीं
करतब दिखातीं, 
जीतीं हैं रोज़ ही इसी तरह, 
अपने घेरे की सीमा में। 
 
न परवाह है इन्हें
क्या होगा? या क्या है लक्ष्य? 
रोज़ इस छोटे से तालाब
के किनारे, 
ये मछलियाँ
रोज़ ही दिन प्रतिदिन, 
बाहर आतीं, सर निकाल, 
कुछ कहतीं, कुछ गुनतीं॥
 
ईश्वर ने निमित्त जो कर
दिया है जीवन इनका, 
लक्ष्य मान उसे ही, 
जीतीं हैं हर्षित हो। 
 
लेकिन हम अपना लक्ष्य
पाने के फेर में, 
ईश्वर ने दिया है निमित्त हमें जो, 
ख़ुश होकर जीने का, 
भूल जाते हैं उसे ही, 
और ढूँढ़ते रह जाते हैं
अपना ही निमित्त। 
 
रोज़ इस छोटे से तालाब
के किनारे, 
ये मछलियाँ
रोज़ ही दिन प्रतिदिन, 
बाहर आतीं, सर निकाल, 
कुछ कहतीं, कुछ गुनतीं॥
 
यह निरीह मछली ही
निकली ज़्यादा ज्ञानी
या है ज़्यादा सयानी। 
ईश्वर का दिया दायित्व
करती है पूरा हर्षित होकर, 
हम करते उसमें भी सौ प्रश्न। 
 
ज्ञान की खोह में बैठकर
करते रह जाते हैं विश्लेषण। 
रोज़ इस छोटे से तालाब
के किनारे, 
ये मछलियाँ
रोज़ ही दिन प्रतिदिन, 
बाहर आतीं, सर निकाल, 
कुछ कहतीं, कुछ गुनतीं॥

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