निर्वासित
काव्य साहित्य | कविता पंचराज यादव15 May 2019
अलसाई भोर में
कुँए की गड़ारी की गड़गड़ाहट
अलार्म हुआ करती थी
नए सवेरे की।
घर का जाँता
छोटकी और बड़की बहुओं का
संवाद माध्यम हुआ करता था।
बतियाने का ऐसा माध्यम
आज विलुप्त क्यों?
उजाला होते ही
जाँते की आवाज़ पर गुफ़्तगू जारी।
ऐसा जाँता
जो पूरे मुहल्ले को जगाता
खुशियन आटा पिसवाता
एकता और समरसता बाँटता
अब विदा हो चला है,
नहीं, विदा कर दिया गया है
इसलिए कि
हमें मेहनत की ज़रूरत नहीं,
समरसता की ज़रूरत नहीं,
केवल मशीनी समाज की ज़रूरत है।
एकता व समरसता
परोसता जाँता
अब नहीं
नीम की डाल कटवाएगा
हत्था बनवाने के लिए।
बढ़ई नहीं बुलवाएगा
फ़िटिंग करने के लिए।
गुड़ पानी नहीं बँटवाएगा
नये घर में लगने के लिए।
क्योंकि वह ख़ुद
अपने ही घर से
निर्वासित कर दिया गया है।
अफसोस... नयी पीढ़ी तुम
जाँते के बारे में
सिर्फ कहावतें सुनोगे
या फिर
सिंधु घाटी के मनके की तरह
खुदाई में पाओगे।
(खुशियन=ख़ुशी-ख़ुशी /ग्राम्य भाषा)
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