प्रेम क्या है?―चाँद है
काव्य साहित्य | कविता ऋत्विक ’रुद्र’15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
जीवन जहाँ पर आ रुकेगा
वो अटल जल-बाँध है
कुछ घटेगा, कुछ बढ़ेगा
प्रेम क्या है?―चाँद है
प्रेम देखो तो अचल है, प्रेम देखो तो नदी
प्रेम सोचो तो क्षणिक है, प्रेम सोचो तो सदी
प्रेम सुनने में कटु भी, प्रेम सुनने में मधु
प्रेम छूने में कँटीला, प्रेम कोमल-सी वधू
प्रेम ही उत्कण्ठ स्वर में, प्रेम ही वैराग्य है
प्रेम विपदाओं भरा है, प्रेम ही सौभाग्य है
प्रेम ही अभ्यास है और प्रेम ही विश्राम है
प्रेम ईश्वर से इतर है, प्रेम चारों धाम है
प्रेम ही सीधा-सुगम है, प्रेम सबसे क्लिष्ट है
प्रेम ही सम्पूर्ण सबमें, प्रेम ही अवशिष्ट है
प्रेम रंगों से भरा है, प्रेम ही बदरंग है
प्रेम ही सुलझा हुआ है, प्रेम ही बेढंग है
प्रेम चंचल चाँदनी है, प्रेम अँधियारी निशा
प्रेम चारों ओर बिखरा, प्रेम ही निश्चित दिशा
प्रेम पतझड़ का महीना, प्रेम ही मकरंद है
प्रेम में स्वाधीन भँवरा, प्रेम ही में बंद है
प्रेम ही है मूक किन्तु, प्रेम ही वाचाल है
प्रेम ही सीमा क्षितिज की, प्रेम ही पाताल है
प्रेम ही काली घटा है, प्रेम दिन की धूप है
प्रेम है कितना बृहद, सब प्रेम के ही रूप हैं
प्रेम जैसे हो बवंडर, प्रेम ही शीतल हवा
प्रेम उर को बींधता है, प्रेम ही उर की दवा
प्रेम में दिखता नहीं कुछ, प्रेम दृश्-स्पष्ट है
प्रेम में सुख-सार है और प्रेम है तो कष्ट है
प्रेम भौतिकता में लिपटा, प्रेम ही अध्यात्म है
प्रेम मटकी ग्वालिनों की, प्रेम मेरा श्याम है
प्रेम से मेरा सवेरा, प्रेम मेरी यामिनी
प्रेम इच्छाओं का उद्गम, प्रेम ही निष्कामिनी
प्रेम ही आराध्य मेरे, प्रेम ही तो भोग है
प्रेम ही उपचार, मुझको प्रेम का ही रोग है
प्रेम से वंचित नहीं, पर प्रेम का भूखा रहा
प्रेम की वर्षा हुई मुझपर, मगर सूखा रहा
प्रेम मुझको माँजता, मैं प्रेम-कीचड़ में सना
प्रेम मुझपर चोट करता, प्रेम ही का मैं बना
प्रेम से मैं हूँ पराजित, प्रेम मेरी जीत है
प्रेम कोलाहल भरा है, प्रेम ही संगीत है
प्रेम में हँसता रहा मैं, प्रेम में अश्रु गिरे
प्रेम में सब हैं सहज, प्रेम में सब सिरफिरे
प्रेम से संतप्त हूँ, पर प्रेम का सुख चाहता
प्रेम ही कारण बनेगा, प्रेम के दिग्दाह का
प्रेम मेरा प्राण भी है, प्रेम ही मेरा मरण
प्रेम से ही छिप रहा हूँ, प्रेम मेरा आवरण
प्रेम में मैं मोम हूँ, मैं प्रेम में बनता अनल
प्रेम से औचित्य मेरा, प्रेम में जाता पिघल
प्रेम का जब बाँध टूटेगा, बहेगा प्रेम
प्रेम के कल्लोल में हँसकर बहेगा प्रेम
प्रेम निश्छल सर-सरोवर, उग्र सिंधु है
प्रेम बढ़ता, प्रेम घटता, प्रेम इंदु है
जीवन कहीं अब बह चलेगा
अस्थिर हुआ जल-बाँध है
है अमा, कल फिर दिखेगा
प्रेम क्या है? ― चाँद है
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