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पुण्यश्लोक—लोकमाता देवी अहिल्याबाई

 

जिनसे ये देश है गर्वित, 
जिनसे इंदौर धड़कता है। 
शिवालय सुरक्षित हैं जिनसे, 
जिनसे ये धर्म महकता है। 
जिनसे ये आभा मण्डल है, 
जिनसे ये धर्म अमोघ रहा। 
युग की युग बीत गए, पर, 
देश ज्ञान का श्रोत रहा। 
कश्मीर से कन्याकुमारी, 
वो धर्म की परछाईं को। 
अलौकिक, अलंकृत, पुण्यश्लोक, 
उस देवी की अच्छाई को। 
इंदौर दुर्ग की महारानी व, 
शिव शंभु की अनुयायी को। 
प्रथम नमश्कार करता हूँ, 
अमर अहिल्याबाई को। 
 
जब वत्सल की मृत्यु हुई, 
तो राजकुमार न रुकते थे। 
हम इंदौर दुर्ग के राजा हैं, 
ये प्रजा से वो कहते थे। 
पर नियति को न भाया, 
अन्याय धरा पर होना। 
दुर्बल मृत वत्सल की, 
असहाय माँ का रोना। 
तभी वहाँ पर लोकमाता, 
देवी अहिल्या आईं। 
वत्सल के शव को पड़ा देख, 
वो कुछ भी समझ न पाईं। 
क्षण देरी न करते हुए फिर, 
प्रजा को बुलाया। 
मृत्यु कैसे हुई उसकी, 
तब विस्तार सुनाया। 
 
मन हुआ विचलित, संग भारी हुआ, 
नियति ने फिर परीक्षा ली। 
एक तरफ़ पुत्र था दोषी, पर, 
न्याय देने की इच्छा भी थी।
एक युद्ध शुरू हुआ ख़ुद में, 
जिसमें राजा न रानी थी। 
न शंभू का तांडव जिसमें, 
न खप्पर वाली काली थी।
जो रक्त-रक्त की करते बौछार, 
न थे वो वीरों के हथियार। 
न हाथी, घोड़े, न सैनिक थे, 
न तेज़ धार की फिर तलवार।
 
युद्ध किससे था? 
 
ये युद्ध तो अन्याय से था, 
मृत बच्चे के न्याय से था। 
ये युद्ध माता के कर्म से था, 
एक राजा-रानी के धर्म से था। 
ये युद्ध निरपेक्ष चिंतन से था, 
माता के अंतर्मन से था। 

एक क्षण भी न समय गँवाया, 
सीधा पुत्रवधू को बुलाया, 
पूछा उससे इस घोर पाप का, 
क्या देना चाहिए किसीको भी दंड? 
पहले आँखें नम हुईं फिर, 
बोलीं सीधा मृत्यु दंड। 
 
शक्ति से युक्त, वो तो भक्ति में लीन, 
धर्म कृत्य सत्य देख, 
सूर्य भी उनको भवानी मानने लगे। 
 
न्याय की कई निशानियाँ देखीं, पर, 
न्याय देख देवी का, 
देव भी उनसे निशानी माँगने लगे। 
 
तेज आभा मण्डल, मानो भरे, 
खप्पर रक्त अण्डल, 
इतिहास भी उनसे कहानी माँगने लगे। 
 
जब बैठीं रथ पर, स्वपुत्र की मृत्यु हेतु, 
तो कराल काल, 
भी मानो रवानी माँगने लगे। 

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