रात और दिन
काव्य साहित्य | कविता अजेय रतन1 Sep 2019
रात तो दूर बह जाती है,
सपन नदी में बहते बहते
दिन लँगड़ाता रह जाता है
चुभते काँटे सहते सहते।
रात का रेशमी अंधकार
है हम सबको बहुत लुभाता
कँटीला खुरदरा सा ये दिन
है रिसते ज़ख़्म को दुखाता
है रात रिझाती रति जैसे,
लटों से खेलो, आराम करो
स्वेद पोंछता दिन है कहता
काम करो भाई काम करो
दिन तो लगता दर्पण जैसा
सत्यवान सा सत्य बताता
अक्स ख़ुशामद कभी न करता
न दिन किसी के ऐब छुपाता
दिन औ रात मन में बसे है
ना तू नाहक़ घड़ियों को गिन
ख़ुद को ख़ुद से खोना रात है
ख़ुद को ख़ुद में पाना है दिन
बौनी रात व लम्बू दिन की
सदियों पुरानी लड़ाई है
जहाँ गई जीत, रात दिन से
वही तो अंतिम विदाई है
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टिप्पणियाँ
Roma Trikha 2019/09/03 10:44 AM
Beautiful
Arvind Vaid 2019/09/01 12:50 PM
Impressive & meaningful.. specially the concluding four lines..
Meena Rattan 2019/09/01 08:04 AM
Nic
राम रत्न शर्मा 2019/09/01 07:09 AM
समय की आपाधापी और बदलते हुए सामाजिक सरोकारों का दबाव और इस सबके बीच अपने आपको ढूंढने की कोशिश अजेय रत्न जी की काबिलियत है... अच्छी रचनात्मक बानगी देखने को मिली... साधुवाद !!
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Ajay Rattan 2019/09/04 06:22 AM
सभी गुणी मित्रों का दिल से साधूवाद