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रामकाव्य में राष्ट्रीय प्रेम


सारांश:

हर देश के निवासी या नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य अपने देश की मिट्टी के लिए सबसे बड़ा कर्त्तव्य होता है। जैसा एक पुत्र का अपनी माँ के प्रति होता है। इसलिए यह स्वाभाविक है जैसे एक बालक अपनी माँ से प्रेम करता है उसी के आँचल में रहना चाहता है। किसी कारण दूर रहकर भी माँ की स्मृतियों को कभी नहीं भूलता। उसी तरह प्रत्येक देशवासी भी अपने देश के हर कण-कण से प्रेम करता है। प्रवास में जाकर भी व्यक्ति अपने देश की यादों को सदैव याद करता है, उसी में लौटना चाहता है। इसका कारण यह भी है कि वह जिस मातृभूमि में रहा, जो नाम उसके साथ देश का नाम मिला वही उसको सुखद लगता है। क्योंकि हर मानव को अपनी ही संस्कृति, लोक संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, रहन-सहन और सभ्यता से प्रेम होता है। 

 

बीज शब्द: राष्ट्र,रिवाज़,संस्कृति,राम,प्रेम

 

भारत एक विशाल देश है, जिसमें नदियों, पौधों, पशु-पक्षियों, ऋतुओं के आगमन का स्वागत बहुत धूमधाम से होता है। अनेक प्रकार की विभिन्नता होने पर भी भारत एक अखण्ड राज्य के रूप में जाना जाता है। 

प्राचीन ग्रन्थों में भी राष्ट्रीयता की वंदना की गई है। ईश्वर की वंदना के साथ-साथ राष्ट्र की वंदना हमारी संस्कृति की विशेषता है। भारत में विभिन्न क्षेत्र, बोलियाँ, भाषा, रीति-रिवाज़ों के अलग-अलग होने पर भी संयुक्त कुटुम्ब की भावना सभी के हृदय में विद्यमान है। ऋग्वेद में ऐसी भावनाओं के दर्शन किए जा सकते हैं:

“सगच्छध्वं संवदध्वं संपो मानंसि जानताम। 
देवा भागं यथा पूर्व सन्जानना उपासते॥”

हम सबकी गति एक प्रकार की हो, हम सभी एक साथ चलें, एक प्रकार की वाणी बोले, हम सभी के मन में एक ही भाव प्रकट हो। जैसे देवता पहले से करते आए हैं, उसी प्रकार का समान भाव करो। देशप्रेम की भावना के लिए मन में किसी प्रकार का भेदभाव हो तब भी देशप्रेम की भावना का चक्कर कमज़ोर पड़ जाता है। 

भारतीय संस्कृति उदार मानवीय मूल्यों और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना के आधार पर खड़ी है। इसलिए भारतीय राष्ट्रीय चिंतन में उदारता के साथ-ही-साथ अखिल सृष्टि के साथ सामंजस्य की भावना सर्वत्र दिखाई देती है। यही भावना उसकी विशालता का द्योतक है और उसे अंतरराष्ट्रीय कल्याण का पोषक बनाती है। राष्ट्रीय भावना देश के प्रत्येक नागरिक के मन और हृदय के तारों से जुड़ी रहती है। भारत की एकसूत्रता के विषय में ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में दिनकर जी ने भारत की प्राचीन राष्ट्रीयता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, “उत्तर को आर्यों का देश और दक्षिण को द्रविड़ों का देश समझने का भाव यहाँ कभी नहीं पनपा। क्योंकि आर्य और द्रविड़ नाम से दो जातियों का विभेद यहाँ हुआ ही नहीं था। समुन्दर के उत्तर और हिमालय से दक्षिण वाला विभाग यहाँ हमेशा एक देश माना जाता रहा है।” राष्ट्रीय भावना से भरे विचार और विचारधारा राष्ट्र के लिए एक रहती है। समय की माँग के अनुसार राष्ट्रप्रेम अपना साक्षात्‌ रूप भी दिखा देता है। जब सीमा पर जवान शहीद होता है तो पूरा राष्ट्र उसकी शहादत देता है। तब शहीद पूरे देश का बेटा कहलाता है। डॉ. सुधीन्द्र ने राष्ट्र के सम्बन्ध में लिखा है, “भूमि, भूमिवासी जन और जन संस्कृति का समुच्चय ‘राष्ट्र’ है और ‘राष्ट्र’ के उत्थान और प्रगति के संयोजक तत्वों का समीकरण राष्ट्र धर्म है।”

डॉ. विनयमोहन शर्मा के अनुसार, “राष्ट्र जाति, धर्म एवं भाषा की एकता का नाम नहीं है, वह भावना की एकता का नाम है।”

इन्हीं सभी भावों, विश्वासों, मान्यताओं, राष्ट्र संगठन संबंधी नियमों, अवधारणाओं, सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और पारिवारिक मूल्यों को इकट्ठा किये हुए रामकाव्य ऐसा भण्डार है जिसमें कूट-कूट कर राष्ट्रीयता की भावना से भरा है। रामकाव्य महाकाव्यों में वर्णित विषयवस्तु हर पग राष्ट्रीय और समाज के कर्त्तव्यों का निर्वाह करती है। आधार ग्रन्थ ‘रामायण’ से लेकर गोस्वामी तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ और अन्य भाषाओं के रामकाव्य का मौलिक गुण देशप्रेम और राष्ट्रीय भावना ही है। जिसमें राजधर्म के लिए, राजा अपनी प्रजा के हित के लिए, सभी कार्य करता है। आधुनिक हिन्दी रामकाव्यों में भी राष्ट्रीयता का पर्याप्त आख्यान मिलता है। उसमें भारत के हर तरह से समृद्ध एवं गौरवपूर्ण अतीत और वर्तमान के चित्रण उपस्थित किया गया है। निराला जी द्वारा रचित ‘राम की शक्तिपूजा’ में स्वतंत्रता प्राप्ति की छटपटाहट वास्तव में निराला ने ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति’ कहकर सीधा संकेत किया है कि जो अन्यायी अँग्रेज़ हैं, वे शक्तिशाली हैं। इन सभी प्रसंगों को जामवंत के मुख से समाधान के रूप में निराला की कविता में प्रस्तुत करते हैं:

“आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त
शक्ति की करो मौलिक कल्पना करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो रघुनन्दन।”
                 (राम की शक्तिपूजा, निराला, राग-विराग, पृ. 100) 

निराला उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से भारतवासियों को बताते हुए कहते हैं कि हमें अपने राष्ट्र के लिए, राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करनी चाहिए। ये ही सुझाव निराला ने जनवासियों को दिया है। देशवासियों में माँ भारती के लिए प्राण देने की चाह है। राष्ट्र की उन्नति और विकास के लिए दृढ़ संकल्प लेते हैं। अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। इन सभी गुणों को देश के नागरिकों में होना मौलिक गुण होता है जो राष्ट्रप्रेम की भावना को व्यक्त करता है। 

छायावाद के स्तंभ जयशंकर प्रसाद ने अपनी कविता ‘अयोध्या का उद्धार’ में अपनी अस्मिता तथा स्वतंत्रता की रक्षा को ही कविता का मूल विषय बनाया है। जिसमें विदेशी शक जाति से अयोध्या को बचाने का संघर्ष, वास्तव में विदेशी व आक्रान्ताओं से जन्मभूमि ‘भारत’ को बचाने का सन्देश देती है। भारतभूमि शुरू से ही वीरों की भूमि रही है जो इस भूमि में आ जाता है वो यहीं का होकर रह जाता है। लेकिन माँ भारती जैसे प्रेम और स्नेह से दुलार करती है उसी तरह अपने बच्चों को किसी की ग़ुलामी करते हुए और अत्याचार होते हुए भी नहीं देख सकती। भारतवासियों में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी है। तभी तो जहाँ भारत के लोग भारत में आये अतिथियों का सत्कार करते हैं लेकिन भारत में क़ब्ज़ा जमाने वालों को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए अपने ख़ून की एक-एक बूँद बहा देते हैं। ‘अयोध्या का उद्धार’ बाहरी लोगों से रक्षा हेतु अयोध्या को बचाने का संघर्ष का वर्णन महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इन पंक्तियों के माध्यम से कहा है:

“रघु दिलीप अज आदि नृप
दशरथ राम उदार
पाल्यो जाको सदय हवै
तासु करहु उद्धार।” 

भारतभूमि शुरू से ही वीरों की भूमि रही है। भारत के हर कण-कण में राष्ट्रीय भावना और देशप्रेम का स्वर गूँजता है। ‘संशय की एक रात’ कवि नरेश मेहता कृत खण्डकाव्य है जिसमें राष्ट्रीय चेतना का स्वर मुखरित है जिसका केन्द्र बिन्दु राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की रक्षा है। ‘राम’ भारतीय गौरव है जो आम मानव यानी देश का आम नागरिक जो अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को बचाने के लिए युद्ध के लिए तैयार होता है। ‘संशय की एक रात’ खण्डकाव्य में नरेश मेहता का ‘राम’ राष्ट्रीय भावना से युक्त होकर ही युद्ध करने को तैयार होता है। ‘संशय की एक रात’ काव्य में चित्रित किया गया है कि जब ‘राम’ को भ्रम होता है कि ‘सीता’ की रक्षा व्यक्तिगत समस्या है, तब वानरादि राम को स्मरण कराते हैं कि ‘सीता’ स्वतंत्रता’ का प्रतीक है, जो सभी भारतवासियों की स्वतंत्रता है। हनुमान कहते हैं:

“रावण अशोक वन की सीता
हम साधारण जन की अपहृत स्वतंत्रता”

इन पंक्तियों के माध्यम से ‘संशय की एक रात’ में कवि नरेश मेहता ने ‘राम’ को युद्ध के लिए राष्ट्र के लिए तैयार किया है जो राष्ट्रभावना से भरा हुआ है, जिसके सामने राम की पीड़ा, उनके हृदय में दर्द देती है। ‘सीता’ रूपी स्वतंत्रता की प्राप्ति कर, राम वीर योद्धा को प्रस्तुत किया है। कवि नरेश मेहता का ‘प्रवाद पर्व’ खण्डकाव्य भी राष्ट्रीय चेतना पर ही आधारित है जिसमें व्यक्ति की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की रक्षा की गई है। इसमें सीता के मुख से कवि ने अभिव्यक्त किया कि भारतीय जनसाधारण का विश्वास तुम्हारे ऊपर है धीर, कि आप जैसा योद्धा भारत का हर वीर है, वीरों का गुण ये है कि वो अपनी मातृभूमि की रक्षा अपने प्राणों की आहुति देकर भी करेगा। राष्ट्र के निर्माण की ज़िम्मेदारी हर प्राणी की है लेकिन योद्धाओं को केन्द्रबिन्दु में रखा जाता है। वह हमारे देश के प्रहरी होते हैं। पूरा राष्ट्र आन्तरिक रूप से शान्ति व सुखी होता है जब देश की सीमा पर हमारे योद्धा रक्षा करते हैं। कवि नरेश मेहता कृत ‘प्रवाद पर्व’ में व्यक्ति की अभिव्यक्ति के रक्षार्थ सीता के द्वारा कहलवाये गये वाक्य उल्लेखनीय हैं। यदि यह उस अनाम साधारण जन का विश्वास है जिसने उसने निर्णय अभिव्यक्त किया है तो राज्य न्याय तथा आपको उस अनाम प्रजा के विश्वास की अभिव्यक्ति की रक्षा करनी चाहिए। 

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ कृत ‘वैदेही वनवास’ सीता का भी राष्ट्र के प्रति देशप्रेम भावना प्रस्तुत की है। ‘वैदेही वनवास’ के राम तुलसी के अखिल लोक विश्राम राम से भिन्न लोक विश्राम राम हैं एवं लोक विश्राम का अर्थ है, परम शान्तिपूर्ण सुख। यह भी सम्भव हो सकता है कि जब राजा अपने हितों की अपेक्षा जनहित की ओर विशेष ध्यान दें। जनमत का आदर करना सीखें। यह परम्परा हिन्दू राजाओं की विशेषता थी। राजा सगर ने अपने पुत्र का परित्याग करके उसी आदर्श की स्थापना की थी। मन्त्रणा परिषद में सीता का त्याग करने के पश्चात राम वशिष्ठ आश्रम में जाते हैं और उनसे सब वृत्तांत निवेदन करके उनसे अपना निश्चय यों कहते हैं:

“त्याग करूँ बड़ा क्यों न मैं
अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे
हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने
तो भी जनहित देख अविचलित चित्त हूँ।”

इस पर गुरु वशिष्ठ राम को समझाते हुए कहते हैं:

“जो हो पर पथ आपका अतुलनीय
लोकाराधन ही उदारतम नीति है
आत्मयाग का बड़ा उच्च उपयोग है
प्रजा-पुंज की उसमें भरी प्रतीति है।”

मुनि वशिष्ठ सीता को कुलपति महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में भेजने का परामर्श देते हैं और साथ ही सभी बातें सीता से स्पष्ट कह देने का भी उपदेश देते हैं:

“किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है
सब बातें कान्ता को बतला दीजिये
स्वयं कहेंगे वह पति प्राशा आपसे
लोकाराधन में विलंब मत कीजिये।”

क्योंकि उन्हें विश्वास था कि पतिपरायण, पतिव्रता सीता अपनी पति कीर्ति में कालिमा लगती हुई देखकर इस प्रस्ताव का स्वयं स्वागत करेगी। 

राम सीता को सभी बातें बताते हैं और वे सहर्ष राजा राम की आज्ञा मानकर राष्ट्रधर्म का पालन करती हुई वनगमन के लिए तत्पर होती है। राम के दर्शन कर हमें कर्तव्यनिष्ठ होने की बलवती प्रेरणा मिलती है। यह तो नहीं कि राम में सहृदयता नहीं थी, उनका मन वियोग की पीड़ा से करुणार्द्र था, किन्तु रिपुसूदन के शब्दों में:

धीर धुर धर, नीतिज, न्यायरत, संयत तथा लोकाराधन में तत्पर रहे हैं। राम के चरित्र का पूर्ण परिचय हमें इस गीत में मिलता है:

“जय जय रघुकुल कमल दिवाकर
मर्यादा पुरुषोत्तम सदगुण रत्न-नियम रत्नाकर”

सच में राम आदर्श राजा थे जो राष्ट्रधर्म और पिता की आज्ञा पाकर चौदह वर्ष के वनवास में चले गये। रामकाव्य में पिता की आज्ञा, गुरु की आज्ञा, माता की सेवा, भाई-भाई प्रेम, मित्रता प्रेम के साथ समन्वयवादी भावना मिलती है। सीताजी भी राष्ट्रसेवा का धर्म निभाती हुई राजधर्म का पालन करती है। ‘वैदेही वनवास’ की ‘सीता’ भारतीय संस्कृति एवं ‘राम’ जो मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श पति की धर्मपत्नी है जो स्त्रियों के लिए शिक्षा और प्रेरणास्रोत बनी है। पति-परायणता एवं पति-सुश्रूषा इनका मुख्य उद्देश्य है। इसलिए राम द्वारा निर्वासन सीता सहर्ष स्वीकार कर लेती है। 

‘बलदेव प्रसाद’ कृत ‘साकेत संत’ में तपस्या, त्याग और नीति के त्रिमूर्ति राम अनुज ‘भरत’ परम्परागत रूप में ही आये हैं पर इनके चरित्र में थोड़ा परिवर्तन किया है। एकता, अखण्डता और विश्वबन्धुत्व, देशप्रेम के लिए सर्वस्व न्योछावर का सन्देश दिया है। जहाँ माता कैकेयी ने भरत के लिए राज्य की माँग की, भरत के मामा भरत को राज्य के प्रति झुकाने का प्रयास करते हैं। लेकिन भरत ‘राम’ से और अयोध्या को प्रजा से बहुत प्रेम करते थे। अयोध्या आकर भरत अपनी माँ से कुपित तथा मंथरा के स्वार्थ पर काफ़ी ग़ुस्सा करते हैं और माँ कैकेयी और मंथरा को अपशब्द भी कह जाते हैं कि अयोध्या के भावी राजा और मेरे बड़े भाई के लिए आपने ऐसा क्यों किया। भरत ग्लानि तथा पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे हैं। कवि कहते हैं:

“स्वार्थ की कितनी दुर्धर आग
जलाकर जगत रहा वह जाग
आय के मिथ्या भ्रम में हाथ
मनुज मनुजों को ही खा जाय।”

जब भरत अपने बड़े भाई ‘राम’ से मिलने चित्रकूट जाते हैं तब राम उन्हें मानवता और राष्ट्रप्रेम को सजल भाव से बताते हैं:

“वही शासित है बनकर व्यक्ति
वही शासक है बनकर राष्ट्र
उसी में है अन्तर, राष्ट्रीय
बन्धनों से छन-छन कर राष्ट्र
सभी रंगों में एक असंग
कहाँ गोरे-काले का भेद
वही शिव सुन्दर सत्य महान
उसी की महिमा में रत वेद।”

राम भरत को समझाते हैं कि वे संपूर्ण संसार को सुख वैभव संपन्न देखना चाहते हैं। राम भरत पर सभी मानवों का दायित्व सौंपते हैं। उनका विश्वास है कि हम राष्ट्रप्रेम के भावों से जो कार्य करते हैं वह सभी के हित के लिए होता है। 

लक्ष्मीकान्त वर्मा कृत ‘चित्रकूट चरित’ में भी राष्ट्रप्रेम और देशप्रेम का सन्देश दिया है। ‘शिववचन चौबे साकृत्यायन’ कृत ‘कैकेयी की रामभक्ति’ में भी राम के दर्शन राष्ट्रप्रेमी के रूप में होते हैं। ‘रघुवर दयाल श्रीवास्तव’ कृत ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के राम अखण्डता और राष्ट्रभक्ति के पक्षधर हैं। वह अवध को विश्वमय देखते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जगत में जगाना चाहते हैं। ताकि देश में प्रेम भावना और देशभक्ति की भावना का विकास हो। पूरा राष्ट्र एकता के सूत्र में बँधकर विश्व बन्धुत्व से संपन्न हो। 

कवि रघुवर दयाल जी कहते हैं:

“सारा विश्व अवध बन जाये
सभी सुसंस्कृत हों, समाज हो
जननी मानें सभी अवध को और
हम एक राष्ट्र हों। 
लेकर यह उद्देश्य जा रहा हूँ मैं वन में
नहीं चर्म उत्कर्ष व्यक्ति का सिंहासन में।”

वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल के रामकाव्य जहाँ मर्यादा और आदर्शवादी भावना पैदा करते हैं वहाँ हर पग-पग पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भावना भी सीखते हैं। राम बचपन से ही ऋषि-मुनियों के आश्रमों में राजा की आज्ञा पाकर उनकी सेवा में लग जाता है। रामकाव्यों में राष्ट्रप्रेम भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण के रूप में भी स्पष्टता से चित्रित किया गया है। रामकाव्यों में राम का राजा का परिवार राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है जिसमें राजा दशरथ के चारों पुत्र और पुत्रवधू राष्ट्रधर्म का पालन करती है। राजा दशरथ के चारों पुत्र रामकाव्य में राष्ट्रप्रेम दिखाया है। वहीं इन चारों पुत्रों की पत्नियों को भारतीय संस्कृति के रूप में चित्रित किया गया है। इसलिए रामकाव्य में राष्ट्रप्रेम भावना के स्वर और भारतीय संस्कृति के संस्कारों से भरा हुआ है। भारत देश मूलतः संस्कृति प्रधान देश है जिसके कारण भारत की सांस्कृतिक, राष्ट्रवाद की संज्ञा दी गई है। हमारी उदारता, मानवता, संवेदनशीलता तथा सहिष्णुता का मूल कारण हमारी सांस्कृतिक विरासत रही है। आज के समय में तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ की रचना और आधुनिक रामकाव्यों में कवियों की भावना राष्ट्रीयता भावना का सन्देश जन-जन में देती है। जिससे समाज को एक अच्छा मार्गदर्शन प्राप्त हो। समूचे समाज और विश्व में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भाव पैदा हो। रामकाव्यों में राष्ट्रीय भावना को हमेशा ही कवियों, लेखकों, विद्वानों और जिज्ञासुओं ने इसलिए भी चित्रित किया है कि समाज में हर तरह के मूल्य का विकास हो जिससे समाज को एक ज्ञानवर्धक और उज्ज्वलमय दिशा-दशा मिल सके। जिससे समूचे विश्व का कल्याण हो। 

डॉ. नरेश कुमार सिहाग
विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक 
टांटिया विश्व विद्यालय, श्रीगंगानगर, राजस्थान
मो. 9466532152

संदर्भ:

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।

  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रो. वासुदेव सिंह।

  3. हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास, डॉ. रामचन्द्र तिवारी।

  4. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास: डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।

  5. पंचवटी: मैथिलीशरण गुप्त, साहित्य सदन, चिरगाँव झाँसी।

  6. साकेत में काव्य: संस्कृति और दर्शन, डॉ. द्वारिका प्रसाद मिश्र।

  7. साकेत: एक अध्ययन, डॉ. नगेंद्र।

  8. साकेत: मैथिलीशरण गुप्त।

  9. साकेत संत: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र।

  10. कैकेयी की रामभक्ति: शिववचन चौबे, ‘सांकृत्यायन, हिन्दुस्तान पेपर प्रोडक्टस कलकत्ता’

  11. वैदेही वनवास: अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।

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