सांध्य बेला
काव्य साहित्य | कविता विवेक कुमार झा29 Apr 2016
इस बुढ़ापे के दिवस में सांध्य बेला,
कैसे ढोऊँ, कैसे ढोऊँ मैं अकेला।
छोड़कर सब जा चुके बेकार कहकर,
काम नहीं है क्या करेगा साथ रहकर,
कह रहे हैं कैसे रक्खूँ साथ अपने यह झमेला।
सांध्य बेला कैसे ढोऊँ मैं अकेला।
हड्डियाँ कमज़ोर हैं और आँख से न सूझता,
हो चुका जर्जर बदन सब रोग हरदम घूरता,
रोग जैसे नीम हो और लग रही काया करेला।
सांध्य बेला कैसे ढोऊँ मैं अकेला।
याद है जीवन दशक आरम्भ हुआ था सात का,
लाठी बना अपना मेरा अपना हुआ तब काठ सा,
चुप रहूँ, कुछ भी न बोलू, न निमंत्रित हो बवेला,
सांध्य बेला कैसे ढोऊँ मैं अकेला।
कैसी जीवन की पहेली अर्थ है अनबूझ सा,
दिन जो मेरे आये ऐसे, आये नहीं मूढ़ का,
लग रहा संपूर्ण जीवन विधि ने कोई खेल खेला।
सांध्य बेला कैसे ढोऊँ मैं अकेला।
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